इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत हाशिये की कहानियां: शिक्षा के अधिकार से दूर भीख मांगने को मजबूर ख़ुशी

हाशिये की कहानियां: शिक्षा के अधिकार से दूर भीख मांगने को मजबूर ख़ुशी

सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 14 प्रतिशत बच्चे भीख माँगने का काम करते है।

एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह तीसरी कहानी है खुशी की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।

ग्यारह साल की ख़ुशी को आज एक़ बार फिर बस्ती में सुबह-सुबह चलने वाली पाठशाला क्लास को छोड़ना पड़ा। रोज़ की तरह सुबह आंख खोलते ही अपनी झोपड़ी में झाड़ू लगाकर और रात के बर्तन साफ़ करके उसे अपने पापा के साथ भीख मांगने जाना पड़ा। हर सुबह जब ख़ुशी अपनी झोपड़ी में झाड़ू लगाने और बर्तन साफ़ करने का काम करती है तो उस दौरान लगातार उसे अपने पापा की डांट और गालियां सुननी पड़ती हैं क्योंकि वह इन कामों में हमेशा ज़्यादा देर लगाती है।

ख़ुशी के लेट होने की वजह उसके काम करने की गति नहीं बल्कि उसकी नज़रें हैं, जो इस दौरान बस्ती में चलनेवाली पाठशाला क्लास में टिकी रहती हैं। यहां बच्चे सुबह-सुबह पढ़ना-लिखना सीखते हैं और हर दिन नयी-नयी चीजें सीखते हैं। झाड़ू लगाते और बर्तन साफ़ करते हुए, ख़ुशी का ध्यान पूरी तरह पाठशाला में लगा रहता है। इसकी वजह से उसे ये काम करने में देरी हो जाती है और उसे अपने पापा की गालियां सुननी पड़ती हैं। लेकिन अब ख़ुशी को पापा की गालियों को मानो आदत-सी पड़ चुकी है।

ग़रीबी की वजह से पिता के साथ भीख मांगने को मजबूर ख़ुशी

उत्तर प्रदेश के वाराणसी ज़िले के खरगूपुर गाँव (सेवापुरी ब्लॉक) की मुसहर बस्ती में रहनेवाली ख़ुशी के दो छोटे भाई (छह वर्षीय व चार वर्षीय) और एक सत्रह साल की बड़ी बहन है। माँ की मौत तीन साल पहले हो गई थी और पिता आंखों से देख नहीं सकते हैं। ख़ुशी की माँ खेतों में मज़दूरी का काम करती थीं, जिससे घर का खर्च चलता था। लेकिन उनकी मौत के बाद परिवार को लगातार आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए हर सुबह ख़ुशी अपने पिता के साथ पास के चौराहे में भीख मांगने जाती है। उसका पूरा दिन अपने पिता के साथ अलग-अलग चौराहे, मंदिर और मज़ार पर भीख मांगने में गुज़रता है और शाम को घर लौटने के बाद भीख में मिले पैसे या अनाज से उसका परिवार अपना पेट भरता है।    

दलित वर्ग के हाशिए पर सदियों से जीवन गुज़ारने के लिए मजबूर मुसहर समुदाय के ख़ुशी जैसे तमाम बच्चों की सुध लेने वाला कोई नहीं है, जो हमारे विकास करते समाज पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है।

सामाजिक न्याय व सशक्तिकरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 14 प्रतिशत बच्चे भीख मांगने का काम करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार पूरे देश में क़रीब 61,311 बच्चे भीख मांगने का काम करते हैं। साल 2011 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार क़रीब तीन लाख लोग भारत में भीख मांगने का काम करते हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल क़रीब 40000 बच्चों का अपहरण किया जाता है, जिनमें 25 प्रतिशत बच्चों के बारे में कोई भी जानकारी नहीं मिल पाती है।

बाल अधिकार के लिए काम करने वाली सेव द चिल्ड्रेन नामक संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में क़रीब तीन लाख बच्चे भीख मांगने को मजबूर किए जाते हैं। ये आंकड़े भारत में उन बच्चों की संख्या का एक खाका सामने रखते हैं जिनका बचपन बुनियादी मौलिक और बाल अधिकार से दूर भीख मांगने में गुजर रहा है। इन्हीं आंकड़ों की संख्या में से ख़ुशी एक है, जिसे ग़रीबी और पारिवारिक दबाव के चलते भीख मांगने जाना पड़ता है।

पितृसत्ता और जाति के दोहरे संघर्ष को झेलती ख़ुशी की बहन

ख़ुशी की बड़ी बहन सुमन बताती है, “मैं तो बड़ी हूं, इसलिए मज़दूरी जैसा काम करके घर में मदद कर सकती हूं। लेकिन मैं ये चाह कर भी नहीं कर पाती हूं, जिसकी कई वजह है, जिसमें पहला है मेरा मुसहर जाति से होना। मेरी जाति की वजह से कोई हम लोगों को काम नहीं देना चाहता है। खासकर वैसा काम जो गाँव के अन्य जाति के लोगों के घर के आसपास, उनके खाने या पानी से ज़रा भी जुड़ा हुआ है। इसलिए हम लोगों के नसीब में भी गाँव की मुख्य बस्ती से दूर बाहर के खेतों में कटाई के बाद ज़मीन पर गिरे अनाज को समेटने, फिर मिट्टी के फेकने या ईंट भट्टो में मज़दूरी का काम मिलता है, जिसमें मज़दूरी बहुत कम होती है।”

आगे वह बताती है, “मुझे ये मज़दूरी के काम करने की भी मनाही है, कई बार कोशिश करने के बावजूद हमें घर के निकलने नहीं दिया जाता है और ये कहा जाता है कि अगर बस्ती के बाहर गई तो इससे इज़्ज़त चली गई फिर कोई शादी नहीं करेगा। अब मेरे पिता देख नहीं सकते हैं और बाक़ी के भाई-बहन छोटे हैं। ऐसे में हमलोगों की मदद करने कोई आगे नहीं आता है। पर जैसे ही मज़दूरी करके घर में दो पैसे लाने की बात आती है तो पड़ोस में रहनेवाले चाचा लोग मेरे पिता को ‘इज़्ज़त’ जैसी चीजों के बारे में बोलकर भड़काने चले जाते है।”

बाल अधिकार के लिए काम करने वाली सेव द चिल्ड्रेन नामक संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में क़रीब तीन लाख बच्चे भीख मांगने को मजबूर किए जाते हैं। ये आंकड़े भारत में उन बच्चों की संख्या का एक खाका सामने रखते हैं जिनका बचपन बुनियादी मौलिक और बाल अधिकार से दूर भीख मांगने में गुजर रहा है।

पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं के संघर्ष की परतें कई गुना ज़्यादा हो जाती है, जिसपर उनकी जाति और वर्ग का प्रभाव हमेशा उनके संघर्ष को बढ़ाने का काम करता है। ऐसे में जब वे ग़रीबी जैसी समस्याओं को चुनौती देकर आगे बढ़ने का प्रयास भी करती है तो उनके पैर में इज़्ज़त के नामपर कई बेड़ियाँ डाल दी जाती है। सुमन की छोटी बहन ख़ुशी को पढ़ना और खेलना पसंद है। वह पढ़ना चाहती है, लेकिन वह चाहकर भी इसे पूरा नहीं कर पा रही है। जब ख़ुशी से मैंने उसकी पसंद और सपने के बारे में बात की तो उसने बताया, “हम कम से कम बारहवीं तक पढ़ना चाहते हैं। अगर कभी ज़िंदगी में मौक़ा मिला तो डॉक्टर बनाना चाहते हैं।”

डॉक्टर बनने के सपने की वजह को जब मैंने ख़ुशी से जानने की कोशिश तो उसने बताया, “अगर मैं डॉक्टर बनी तो सबसे पहले अपने पापा की आंख ठीक कर दूंगी, जिससे हमको भीख मांगने नहीं जाना पड़ेगा और मैं भी स्कूल जा पाऊंगीं।” ख़ुशी का ये सपना उसकी पढ़ें की चाहत को साफ़ ज़ाहिर करता है, इसलिए वह डॉक्टर बनकर पैसे कमाने से पहले अपने पिता के इलाज करने का सपना देख रही है, जिससे उसको भीख मांगने नहीं जाना पड़ेगा।

अपनी बातचीत के आख़िर में जब मैंने ख़ुशी की पसंद के बारे में सवाल पूछा तो उसने काफ़ी देर सोचने के बाद कहा, “मुझे घर में रहना पसंद है।” कम शब्दों में, धीमी आवाज़ में कही जाने वाली ख़ुशी की ये सारी बातें उस दमन को दिखाती है, जो भीख मांगने के बुरे परिणाम के रूप में सामने है। बच्चों को भीख मांगने के लिए मजबूर करना उनके मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तित्व विकास में बाधा डालता है, इसका जीवंत उदाहरण ख़ुशी के रूप में सामने है।

वो ख़ुशी जिसकी नज़रें घर के काम के दौरान भी पाठशाला की क्लास में टिकी रहती है, उसे जल्दी काम ख़त्म करके भीख मांगने जाने का दबाव अब उसमें एक अजीब तरह की निराशा को बढ़ावा देने लगा है। वो निराशा जो उस यथार्थ की स्वीकृति के साथ है, जिसमें वो जानती है कि डॉक्टर बनने का जो सपना उसकी आंखों में है वह शायद ही कभी पूरा हो। बच्चों को किसी भी समाज का भविष्य कहा जाता है। ऐसी स्थिति में जब किसी समाज के बच्चे को शिक्षा और उनके बुनियादी बाल अधिकार से दूर स्कूल जाने की उम्र में भीख माँगने जाना पड़े तो ये इसका सीधा प्रभाव न केवल उन पर पड़ता है, बल्कि इसका प्रभाव समाज में भी पड़ता है। लेकिन दलित वर्ग के हाशिये पर सदियों से जीवन गुज़ारने के लिए मजबूर मुसहर समुदाय के ख़ुशी जैसे तमाम बच्चों की सुध लेने वाला कोई नहीं है, जो हमारे विकास करते समाज पर एक बड़ा सवाल खड़ा करता है।


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