संस्था लेड बाय फाउंडेशन के एक अध्ययन में पिछले साल पाया गया था कि भारत में नौकरी के लिए कॉलबैक प्राप्त करनेवाली हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के बीच भारी भेदभाव मौजूद है। हालांकि दोनों ही समुदाय की महिलाएं नौकरी के लिए समान रूप से योग्य थीं। जुलाई 2021 से मार्च 2022 तक 9 महीनों में “हायरिंग बायस: एंप्लॉयमेंट फॉर मुस्लिम वीमेन एट एंट्री-लेवल रोल्स” शीर्षक से अध्ययन किया गया। इस अध्ययन के लिए लिंक्डइन और नौकरी.डॉट कॉम जैसी जॉब सर्च साइट्स पर 1,000 जॉब पोस्टिंग के लिए लगभग 2,000 जॉब एप्लिकेशन दो डमी प्रोफाइल के साथ भेजे गए थे। इसमें एक हिंदू लड़की (प्रियंका शर्मा) और दूसरी मुस्लिम लड़की (हबीबा अली) का नाम दिया गया था। नामों को छोड़कर, उनके रिज्यूमे में बाकी सब कुछ जानबूझकर वही रखा गया था।
शोध के अनुसार, हिंदू महिलाओं की तुलना में भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए भेदभाव दर 47.1 प्रतिशत है। इसके अलावा, यह बताया गया कि एक हिंदू महिला को नौकरी के लिए हर दो कॉलबैक के लिए, भारत में एक मुस्लिम महिला को केवल एक कॉलबैक मिलता है। बता दें कि 2019 में डॉ रूहा शादाब द्वारा स्थापित, लेड बाय फाउंडेशन मुस्लिम महिलाओं के लिए एक पेशेवर नेतृत्व इनक्यूबेटर है जो देश के कार्यबल में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने के उद्देश्य से काम करता है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी घटता प्रतिनिधित्व
शिक्षा मंत्रालय के उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआईएसएचई) के आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है कि 2020-21 में मुस्लिम छात्रों की संख्या 2019-20 में 21 लाख से घटकर 19.21 लाख हो गई। कुल मुस्लिम छात्रों की उच्च शिक्षा के लिए नामांकन की संख्या में भारी गिरावट आई है। लेकिन साथ ही एक तथ्य भी सामने आया है और वह यह है कि 2020-21 शैक्षणिक वर्ष में मुस्लिम अल्पसंख्यक कुल छात्र 9.5 लाख की तुलना में कुल 9.6 लाख महिला मुस्लिम छात्राएं थीं। इस तरह यह बात सामने आई है कि मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम पुरुषों की तुलना में उच्च शिक्षा में अधिक दिलचस्पी ले रही हैं।
एआईएसएचई 2021 के इन्हीं आंकड़ों के अनुसार स्नातक पाठ्यक्रमों में मुस्लिम समुदाय की महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक थी। उच्च शिक्षा में 1,000 मुस्लिम छात्रों में से 503 महिलाएं हैं। ऐसे में प्रश्न यह है कि अगर इतनी मुस्लिम महिलाएं शिक्षित हैं तो श्रम बाजार में उनकी क्या हिस्सेदारी है?
हिजाब पहनने के कारण कार्यस्थल पर भेदभाव का सामना करती मुस्लिम महिलाएं
आज के समय में जब इस्लामोफोबिया बहुत अधिक फ़ैल चुका है। हेडस्कार्फ़ के खिलाफ भेदभाव उच्चतम स्थिति और आवश्यक उच्चतम योग्यता वाले व्यवसाय में बहुत अधिक है। भले ही फर्मों को अपनी खाली वैकेंसी को भरने में खूब समस्या हैं उसके बावजूद न तो उच्च स्तर की योग्यताएं और न ही एक सख्त श्रम बाजार मुस्लिम हेडस्कार्फ़ पहननेवाली महिलाओं की मदद करता है। 2017 में प्रकाशित एक हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू अध्ययन ने उन कुछ पक्षपातों को उजागर किया है जो हिजाब पहनने का चयन करने वाली मुस्लिम महिलाओं को जॉब मार्किट में सामना करना पड़ता है। अध्ययन के लिए, एचबीआर ने एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने समान योग्यता वाली काल्पनिक महिला उम्मीदवारों के लिए तीन नौकरी के आवेदन तैयार किए। प्रयोग जर्मनी में आयोजित किया गया था क्योंकि उस देश में नौकरी चाहने वाले आमतौर पर अपने रिज्यूमे के साथ अपनी तस्वीरें संलग्न करते हैं।
फर्जी आवेदकों में से दो तुर्किश मुस्लिम नाम थे जिनमें से एक मुस्लिम तुर्किश महिला ने हिजाब पहना हुआ था और तीसरे फर्जी आवेदक को जर्मन नाम दिया गया था। अध्ययन के लेखक ने बताया कि मैंने यह संकेत देने के लिए आधुनिक तरह का हेडस्कार्फ़ का उपयोग किया कि हिजाबी आवेदक एक युवा, आधुनिक महिला थी जो आसानी से एक धर्मनिरपेक्ष वातावरण में फिट हो सकती थी ।
नौकरी के विज्ञापनों के जवाब में इन तीन फर्जी महिलाओं के लगभग 1,500 आवेदन भेजे गए थे। इस अध्ययन में पाया गया कि एक हेडस्कार्फ़ पहनने वाली आवेदक को साक्षात्कार के लिए कॉल बैक की संख्या जर्मन नाम वाली आवेदक और बिना हेडस्कार्फ़ की आवेदक से बहुत कम थी। भारत में मुस्लिम महिलाओं की श्रम में भागीदारी की स्थिति पहले भी अच्छी नहीं थी मगर मोदी सरकार के आने के बाद से 2014 के बाद से उन्हें और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है।
क्या कहती है पीएलएफएस रिपोर्ट?
मुस्लिम महिलाओं के रोजगार की स्थिति देश में महिला रोजगार के धर्मनिरपेक्ष रुझानों के साथ-साथ समुदाय-विशिष्ट प्रवृत्तियों से घिरी हुई है। पीएलएफएस रिपोर्ट तीन विचलित करने वाले धर्मनिरपेक्ष रुझानों को दर्शाती है। एक: हमारे देश में महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) दर बहुत निचले स्तर पर स्थिर हो गई है। दो: महिलाओं के रोजगार को पूरक और आय के एक स्रोत के रूप में देखा जाता है जो केवल परिवार के लिए कठिन समय में सक्रिय होता है।
कोविड-19 के दौरान FLFP दर में वृद्धि हुई थी। भारत में महामारी से संबंधित लॉकडाउन से प्रेरित तेज नकारात्मक आय के झटके का अनुभव करने वाले परिवारों में महिलाओं के रोजगार की संभावना बढ़ गई है। तीन: उच्च शिक्षित महिलाओं के लिए भी अवैतनिक श्रम में कार्यरत महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। 2017-18 में, स्नातक (या उच्च) स्तर की शिक्षा के साथ 6.2 प्रतिशत महिलाओं (15-59 वर्ष की आयु) ने अवैतनिक सहायकों के रूप में काम किया। 2021-22 तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 11.2 फीसदी हो गई थी। वहीं, वेतनभोगी नौकरियों वाले इस स्तर के शिक्षा वाले लोगों की हिस्सेदारी 79.7 से घटकर 72.1 प्रतिशत हो गई।
पीएलएफएस 2021-22 की रिपोर्ट अलग-अलग तरीके से महिलाओं की आर्थिक भागीदारी के अध्ययन के महत्व पर प्रकाश डालती है। देश में मुस्लिम महिलाओं की महिला श्रम बल भागीदारी दर हिंदू महिलाओं की 26.1 प्रतिशत की तुलना में 15 प्रतिशत है। पिछले तीन वर्षों में, देश में सभी धार्मिक समूहों के बीच मुस्लिम महिलाओं की एलएफपी दर सबसे कम रही है, जबकि सिख समुदाय को छोड़कर भागीदारी में लैंगिक अंतर भी समुदाय के लिए सबसे व्यापक रहा है। जबकि वेतनभोगी काम शायद आय का अधिक स्थिर स्रोत है, केवल 12.4 प्रतिशत कामकाजी मुस्लिम महिलाएं – सभी समुदायों में सबसे कम – 16.2 प्रतिशत हिंदू महिलाओं की तुलना में वेतनभोगी हैं।
भारत में, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने ऐसे कानून पारित किए, जिसने मुसलमानों को ओर हाशिए पर डाल दिया। हालाँकि मुस्लिम समुदाय भारत में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है, जो भारत की आबादी का लगभग 15% है। पितृसत्तात्मक मानदंडों के कारण महिलाओं की गिरती श्रम भागीदारी दर के साथ, मुस्लिम महिलाओं को महिला और मुस्लिम होने के दोहरे नुकसान का सामना करना पड़ता है।
इकोनॉमिक टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, मुसलमानों ने निजी क्षेत्र में मध्य से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों के पद में लगभग 2.7% का गठन किया। अप्रैल 2018 तक, केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के रैंक वाले केवल 1.33% अधिकारी मुस्लिम पाए गए। महिला नेताओं की कमी तो और भी ज्यादा है। और भारतीय मुस्लिम महिलाएं व्यावहारिक रूप से देश के कार्यबल में अदृश्य हैं।
मुस्लिम महिलाओं को उनके बाहरी रूप को उनके दिमाग के अंदर की तुलना में अधिक आंका जाता है। उन्हें उनकी योग्यता के आधार पर नहीं आंका जाता है। बल्कि वे कैसे कपड़े पहनती हैं उन्हें इस तरीके से आंका जाता है। यह समाज मुस्लिम महिलाओं को महसूस कराता है कि वे अलग हैं। भारत में कई धर्म के लोग रहते हैं और सभी अपने-अपने धर्म के अनुसार पहनावा भी पहनते हैं लेकिन अन्य धर्मों के लोग जो दिखाई देने वाले धार्मिक प्रतीकों को पहनते हैं, उनसे शायद ही कभी पूछताछ की जाती है। उदाहरण के लिए, सिख पुरुष, पगड़ी पहनते हैं और कुछ सिख महिलाएं भी करती हैं। हिंदू तिलक लगते हैं जनेऊ धारण करते हैं, छोटी चोटी भी रखते हैं लेकिन उन्हें कार्यालय आने से पहले अपने धार्मिक प्रतीकों को हटाने के लिए नहीं कहा जाता है।
सभी मुस्लिम महिलाएं हिजाब नहीं पहनती हैं। ऐसा हेडस्कार्फ़ जो बालों, गर्दन और कभी-कभी कंधों और छाती को ढकता है। न ही वे अनिवार्य रूप से नकाब पहनती हैं, एक ऐसा चेहरे का घूंघट जो आंखों को खुला छोड़ देता है, या बुर्का जो पूरे शरीर को सिर के ऊपर से पैरों तक ढ़कता है, या जिलबाब, एक लंबा, ढीला बाहरी वस्त्र जो पूरे शरीर और कभी-कभी सिर को ढकता है। लेकिन जो महिलाएं भी ऐसा करती हैं वो अपने निजी फैसले के लिए करती हैं। मुस्लिम महिलाओं का हिजाब उनका अपना निजी फैसला होता है जोकि उनकी मर्ज़ी पर आधारित होता है।
अपनी वकालत पूरी करने के बाद जब मैं खुद अपनी इंटर्नशिप के लिए कुछ वकीलों से मिली, जिसमें मुस्लिम वकील, यहां तक कि महिला वकील भी शामिल थीं, ने पूर्ण योग्य होने के बावजूद मुझे अपने साथ काम पर रखना पसंद नहीं किया। उसके पीछे उनका विशेष कारण था कि मैं अदालत में बुर्का पहन कर काम पर आती अच्छी नहीं लगूंगी।
केवल मुस्लिम महिलाएं ही हैं जिन्हें सबसे अधिक विरोध और तीखी नज़रों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी यह मान लिया जाता है कि जो महिलाएं बुर्क़ा पहनती हैं वे किसी तरह संदेह के योग्य हैं, कि उनके पास छिपाने के लिए कुछ है। या किसी तरह यह माना जाता है कि जो महिलायें बुर्क़े/हिजाब को पहनती हैं, उन्हें या तो उनकी इच्छा के विरुद्ध मजबूर किया जाता है या उनका विश्वास उनमें इतना गहरा होता है कि वे आधुनिक दुनिया में स्वतंत्र महिलाओं के रूप में कार्य करने में सक्षम नहीं हो सकती हैं। ये धारणाएँ अक्सर इस्लाम से अपरिचित लोगों द्वारा ही बनाई जाती हैं। कार्यस्थल पर धर्म से ज्यादा नियोक्ताओं के साथ कुछ भी विवादास्पद नहीं है। कंपनियां उम्र के भेदभाव या लैंगिक पूर्वाग्रह जैसे मुद्दों को संबोधित करने की आदी हो गई हैं, लेकिन धर्म की नहीं।
बतौर हिजाबी महिला मेरा अनुभव
मुस्लिम महिलाएं, खासकर वे जो हेडस्कार्फ़ पहनती हैं, उनके पास श्रम बाजार में होने वाले भेदभाव के बारे में बताने के लिए एक कहानी है – लेकिन दुर्भाग्य से, बहुसंख्यक आबादी द्वारा अक्सर उन्हें अनसुना कर दिया जाता है। वे उनको ज़्यादा महत्व नहीं देते हैं जोकि एक गलत रवैया है। सबको मानव अधिकार देने की बात हमेशा की जाती रही है। यहाँ तक कि जानवरों तक को अधिकार दिए जाने लगे हैं लेकिन मनुष्य, धर्म के नाम पर दूसरे धर्म के लोगों के अधिकार छीनने से बाज नहीं आते हैं।
एक मुस्लिम हिजाबी महिला होने के नाते मेरे साथ भी श्रम बाजार में काफी भेदभाव किया गया । हिजाब पहनने का फैसला मेरा अपना था और मैं उसे पहन कर खुश भी हूं। अपनी वकालत पूरी करने के बाद जब मैं खुद अपनी इंटर्नशिप के लिए कुछ वकीलों से मिली, जिसमें मुस्लिम वकील, यहां तक कि महिला वकील भी शामिल थीं, ने पूर्ण योग्य होने के बावजूद मुझे अपने साथ काम पर रखना पसंद नहीं किया। उसके पीछे उनका विशेष कारण था कि मैं अदालत में बुर्का पहन कर काम पर आती अच्छी नहीं लगूंगी। मुझसे कई बार हिजाब न पहनने को कहा गया क्योंकि मैं उसे पहन कर उन्हें आतंकवादी वाली फीलिंग भी दिलाती थी।
कई जगह नौकरी के लिए रिज्यूमे भेजने पर बहुत कम कालबैक प्राप्त होती थी। जहां से इंटरव्यू के लिए कॉल प्राप्त हुईं वहां पर एम्प्लायर ने मेरा हिजाब देख कर मुझे दोबारा कॉल बैक नहीं किया। इसीलिए मैंने स्वतंत्र शोधकर्ता का कार्य चुना। क्योंकि स्वतंत्र रूप से कार्य करने पर आप अपने बनाये नियम से अनुसार कार्य कर पाते हैं। ऐसा नहीं हैं कि मुस्लिम महिलाएं पढ़-लिख कर घर में बैठना पसंद करती हैं बल्कि वे खुद फील्ड में आकर कार्य करना चाहती हैं। लेकिन दोहरी मानसिकता वाले समाज में क्या किया जा सकता है जोकि अंदरूनी योग्यता से ज़्यादा बाहरी कपड़ों को महत्त्व देता है।
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