समाजकैंपस दिल्ली यूनिवर्सिटी की एडहॉक व्यवस्था पर सवाल करती है समरवीर सिंह की ‘सांस्थानिक हत्या’

दिल्ली यूनिवर्सिटी की एडहॉक व्यवस्था पर सवाल करती है समरवीर सिंह की ‘सांस्थानिक हत्या’

डीयू में पीएचडी के एक स्कॉलर अविनाश का कहना है, "बाकियों की तरह मेरी नज़र में भी यह घटना साफ़-साफ़ सांस्थानिक मर्डर है जिस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। हम अभी कॉलेजों में शिक्षक बनने की प्रक्रिया में हैं। यह घटना हमारे भीतर चिंता पैदा करती है क्योंकि आनेवाले समय में हम भी एडहॉक सिस्टम के जरिये कॉलेजों में अवसरों को तलाशेंगे।"

33 वर्षीय समरवीर सिंह दिल्ली के हिंदू कॉलेज में पिछले 6 साल से एडहॉक/तदर्थ शिक्षक के तौर पर दर्शनशास्त्र/फिलॉसफी पढ़ा रहे थे। इसी साल फरवरी में स्थायी पदों की भर्ती के दौरान उन्होंने अपनी नौकरी खो दी थी जिसकी प्रक्रिया पिछले वर्ष सितंबर के महीने में शुरू हुई थी। 26 अप्रैल को उनकी आत्महत्या से मौत की ख़बर से पूरा दिल्ली विश्वविद्यालय सन्न है। जिन विद्यार्थियों को वह पढ़ाया करते थे, वे उनके पढ़ाने के तरीके की बेहद प्रशंसा करते हैं। लेकिन नियमों के प्रति असहाय और सिलेक्शन कमिटी के निर्णय पर प्रश्न न उठाने की स्थिति ने एक योग्य शिक्षक को हमारे बीच से छीन लिया। इंटरव्यू के फैसले को जीवन के अंतिम फैसले के रूप में स्वीकार करने पर उन्हें मजबूर किया गया।

कॉलेज का वातावरण और वहां पढ़ने आ रहे बच्चों के साथ छह साल का लंबा नाता और खुद को स्थायी पद के लिए चयन के लिए अच्छा शिक्षण रिकॉर्ड तैयार करने की निरंतर मेहनत को कम करके नहीं आंका जा सकता है। हम क्यों यह बार-बार भूल जाते हैं कि शैक्षणिक व्यवस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा शिक्षक भी होते हैं। संस्थानों में सालों का समर्पण दो घड़ी के इंटरव्यू के परिणाम के आगे धुंधला जाता है। ऐसी ही कुछ अनुभूति समरवीर सिंह को भी हुई होगी और उनके पढ़ाए गए विषय दर्शनशास्त्र में इस ‘अनुभूति’ शब्द का महत्वपूर्ण स्थान है।

एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक उनके चचेरे भाई ने पुलिस को दिए गए बयान में बताया कि समरवीर अपनी नौकरी छूट जाने के बाद से काफी परेशान चल रहे थे। पुलिस इस घटना से जुड़ी किसी प्रकार की साजिश के संदेह को इनकार करती है। लेकिन एडहॉक पद से समरवीर की तरह तमाम शिक्षकों के अपने-अपने पदों से निष्कासित होकर सड़क पर आ जाना संस्थागत ‘साजिश’ को बयां करती है।

यह तथ्य ज़ाहिर है कि गेस्ट और एडहॉक पदों में जॉब सिक्योरिटी और वेतन से जुड़ी अन्य ज़रूरी सुविधाएं ज़ीरो या नाममात्र ही होती हैं। जॉब सिक्योरिटी की इस हैसियत के साथ हज़ारों शिक्षक एक ही कतार में परमानेंट होने की आशा से भर्तियों के निकलने की बाट देख रहे होते हैं। कम स्थायी भर्तियों का निकलना और आंतरिक सोर्स या लिंक की राजनीति के चलते एडहॉक पर कार्यरत शिक्षकों में नौकरी छूट जाने का डर पल -पल बना रहता है।

स्थायी पदों के मानदंडों को पूरा करने के साथ-साथ कॉलेज में एक अच्छी छवि और बच्चों के सकारात्मक फ़ीडबैक भी ज़रूरी तत्व होते हैं। 26 अप्रैल उनकी मौत के अगले ही दिन हिंदू कॉलेज में सालाना फेस्ट आयोजन हो रहा था जहां कॉलेज के बाहर कई विद्यार्थी उनके साथ हुए अन्यायपूर्ण निष्कासन के खिलाफ असंतोष व्यक्त करने के उद्देश्य से एकजुट हुए थे। इसके साथ ही घटना के तुरंत बाद कॉलेज में सालान फेस्ट का आयोजन शैक्षणिक संस्थानों की निगाहों में शिक्षकों की अहमियत को दर्शाता है। 

चयन प्रक्रिया आखिर कितनी लोकतांत्रिक? 

भारत जैसे देश में तमाम रिक्त पदों की भर्तियों के निकलने का इंतज़ार लाखों लोग सालों साल करते हैं। यही हाल डीयू में एडहॉक के पद पर बने शिक्षकों का भी है। यह तथ्य ज़ाहिर है कि गेस्ट और एडहॉक पदों में जॉब सिक्योरिटी और वेतन से जुड़ी अन्य ज़रूरी सुविधाएं ज़ीरो या नाममात्र ही होती हैं। जॉब सिक्योरिटी की इस हैसियत के साथ हज़ारों शिक्षक एक ही कतार में परमानेंट होने की आशा से भर्तियों के निकलने की बाट देख रहे होते हैं। कम स्थायी भर्तियों का निकलना और आंतरिक सोर्स या लिंक की राजनीति के चलते एडहॉक पर कार्यरत शिक्षकों में नौकरी छूट जाने का डर पल-पल बना रहता है।

हम क्यों यह अक्सर बार-बार भूल जाते हैं कि शैक्षणिक व्यवस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा शिक्षक भी होते हैं। संस्थानों में सालों का समर्पण दो घड़ी के इंटरव्यू के परिणाम के आगे धुंधला जाता है। ऐसी ही कुछ अनुभूति समरवीर सिंह को भी हुई होगी और उनके पढ़ाए गए विषय दर्शनशास्त्र में इस ‘अनुभूति’ शब्द का महत्वपूर्ण स्थान है।

यूजीसी के स्थायी पद से जुड़े उपनियम के अनुसार एक वर्ष पूरा करने के बाद कोई भी एडहॉक यूनिवर्सिटी में स्थायी पद पाने की स्थिति में आ जाता है लेकिन कई कैंडिडेट सोर्स के सहारे इंटरव्यू में बैठते हैं। कई बार सोर्स के प्रभाव के चलते किसी कॉलेज में लंबे समय से पढ़ा रहे शिक्षकों की तुलना में कम वर्ष के अनुभवी शिक्षक मौका ले जाते हैं। मौजूदा स्थायी चयन की इस व्यवस्था में इस आंतरिक राजनीति को खत्म करने का कोई समाधान नहीं निकाला गया है। भर्ती की पक्षपातपूर्ण प्रक्रिया इसकी विश्वसनीयता पर कई सवाल खड़े करती है जो कि शिक्षा की गुणवत्ता पर भी प्रहार है। 

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (DUTA) की चुप्पी

डूटा को एडहॉक शिक्षकों और उन्हें स्थायी करने के मुद्दों के प्रति आवाज़ उठाते अक्सर देखा गया है। उससे यह भी उम्मीद की जाना लाज़मी है कि वह समरवीर सिंह के साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाए। डूटा की इस पूरी घटना पर ऐसी प्रतिक्रिया उसे कमज़ोर स्थिति में ला खड़ा करता है। नॉर्थ कैंपस में प्रदर्शन के दौरान इस चुप्पी पर डीयू के कई प्रोफ़ेसरों ने चिंता जताई है।

डीयू में पीएचडी के एक स्कॉलर अविनाश का कहना है, “बाकियों की तरह मेरी नज़र में भी यह घटना साफ़-साफ़ सांस्थानिक मर्डर है जिस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। हम अभी कॉलेजों में शिक्षक बनने की प्रक्रिया में हैं। यह घटना हमारे भीतर चिंता पैदा करती है क्योंकि आनेवाले समय में हम भी एडहॉक सिस्टम के जरिये कॉलेजों में अवसरों को तलाशेंगे।”

प्रतिभाशाली समरवीर एक आरक्षित श्रेणी से थे। आरक्षित श्रेणी से आए शिक्षकों को स्थायी भर्तियों में और अधिक प्रोत्साहित करने की विशेष ज़रूरत होती है। यह घटना डीयू में कमज़ोर सामाजिक और आर्थिक तबके से आए शिक्षकों के प्रति किए जानेवाले प्रशासनिक बरताव और संगठनों के उपेक्षित रुख़ को दर्शाती है।

पदों का दावा न करने की गुंजाइश 

दिल्ली विश्वविद्यालय के माता सुंदरी कॉलेज फॉर वीमेन में पढ़ा रही असोसिएट प्रोफेसर रुबल शर्मा का कहना है, “लगभग दस साल से कोई नियुक्ति नहीं हुई है। जो भी हुई वे भर्तियां छिटपुट ही हुई हैं। तब से ज़्यादातर शिक्षक एडहॉक पर पढ़ा रहे हैं। ये शिक्षक यूजीसी की नेट/जेआरएफ परीक्षा से योग्य हैं जिन्हे डीयू में पढ़ाते हुए पंद्रह साल से भी ज़्यादा हो गए हैं। फिर भी इन स्थायी भर्तियों में कुछ का चयन हो पता है और कई क़ाबिल शिक्षकों को अपने पदों से विस्थापित होना पड़ता है। ऐसे कई शिक्षक हैं जिनको पढ़ाते हुए 50 -55 साल हो गए हैं और अगर उनको स्थायी पद मिलता भी है तो ड्यूटी के केवल 10-15 साल शेष रह जाते हैं।”

डूटा को एडहॉक शिक्षकों और उन्हें स्थायी करने के मुद्दों के प्रति आवाज़ उठाते अक्सर देखा गया है। उससे यह भी उम्मीद की जाना लाज़मी है कि वह समरवीर सिंह के साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाए। डूटा की इस पूरी घटना पर ऐसी प्रतिक्रिया उसे कमज़ोर स्थिति में ला खड़ा करता है।

इससे जुड़े उपनियम के मुताबिक, तदर्थ कर्मचारियों को कॉलेज द्वारा लगभग 89 दिनों की निश्चित अवधि तक रखा जाता है। हर 89 दिनों के बाद एक ब्रेक दिया जाता है और यह अवधि पूरी होने के बाद कॉलेज इन्हें रिजॉइन करवाता है। शिक्षण प्रदर्शन के आधार पर इसी अवधि के लिए अनुबंध का नवीनीकरण किया जाता है। इस प्रकार ऐसी दोषयुक्त व्यवस्था में पदों पर अपना दावा करने की कोई संभावना नहीं रहती। डीयू के नॉर्थ कैंपस में विद्यार्थियों और शिक्षकों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए कई वर्षों से पढ़ाने वाले एडहॉक शिक्षकों को भर्ती के दौरान वरीयता दी जाने की मांग की है।

क्या कहते हैं पीएचडी स्कॉलर 

डीयू में पीएचडी के एक स्कॉलर अविनाश का कहना है, “बाकियों की तरह मेरी नज़र में भी यह घटना साफ़-साफ़ सांस्थानिक मर्डर है जिस पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। हम अभी कॉलेजों में शिक्षक बनने की प्रक्रिया में हैं। यह घटना हमारे भीतर चिंता पैदा करती है क्योंकि आनेवाले समय में हम भी एडहॉक सिस्टम के जरिये कॉलेजों में अवसरों को तलाशेंगे।”

इस घटना से जुड़े इन सभी तथ्यों के आलोक में प्रश्न ये उठते हैं कि पूर्व एडहॉक समरवीर सिंह की नौकरी छूट जाने के बाद उठाया गया यह क़दम किस लाचारी की ओर इशारा करता है? समरवीर जैसे ऐसे कितने एडहॉक पर शिक्षक कार्यरत होंगे जो अंधकारमय भविष्य में अपनी नौकरी खो जाने के डर के अवसाद में पढ़ा रहे हैं? क्या यह केस सिस्टम की बेपरवाही और गैरज़िम्मेदारी को प्रकाश में नहीं लाता? ऐसे शिक्षकों की मानसिक स्थिति की बेपरवाही और स्थायी चयन के दौरान निकाले जाने के बाद नयी नौकरी मिलने की ज़िम्मेदारी किसके पल्ले है? क्या यहां भी सब्सिडी जैसी राजनीतिक लॉलीपॉप की सुविधा थमा कर इनके प्रोफेशन की क्षुधा को शांत करना समाधान है?

जिस देश में योग्य कैंडिडेट सालों-साल वेकैंसी के इंतज़ार में रहते हैं क्या वहां जॉब छूट जाने के बाद तुरंत नई नौकरी पा लेना किसी पूर्व एडहॉक के लिए उतना आसान होता है? हमारे सामने ऐसे कई पूर्व एडहॉक के उदाहरण ज़रूर होंगे जिन्होंने स्थायी चयन के दौरान निकाले जाने के बाद खुद का कोई न कोई व्यवसाय शुरू किया है। पर यहां भी यह प्रश्न उठना वाज़िब होगा कि ऐसे कितने ही शिक्षक हैं जो नए व्यवसाय की शुरुआत कर पाते होंगे। क्या ऐसी उम्मीद उन शिक्षकों से करना उचित होगा जो शिक्षक बनने के जुनून को पूरा करने के सपने को साकार करने के लिए छोटे शहरों और कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक तबके से दिल्ली जैसे शहरों में संघर्ष करने आते हैं? इस पंक्ति में विवश होकर कोई और समरवीर सिंह न बनने पाए इसलिए सिस्टम से ऐसी गंभीर घटनाओं पर चुप्पी लगाने की बजाए समाधान की चेष्टा की जाती है क्योंकि जिस देश में शिक्षकों का पेशा ही दाव पर हो फिर ऐसी परिस्थिति में कौन ही शिक्षक बनने का सपना देख सकता है? हमे यह तथ्य स्वीकारना होगा की शिक्षा का स्तर स्कूली हो या उच्च स्तरीय हो सभी स्तरों पर काबिल शिक्षकों के अभाव में हम देश के भविष्य की कल्पना कभी नहीं कर सकते।


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