समाजकैंपस गर्ल्स कॉलेज का स्पेस कैसे लड़कियों के लिए सामाजीकरण की नयी प्रक्रिया बनाता है

गर्ल्स कॉलेज का स्पेस कैसे लड़कियों के लिए सामाजीकरण की नयी प्रक्रिया बनाता है

महिलाओं के प्रति किसी भी रूढ़िवादी मानसिकता को चुनौती देने और परिवर्तनशील बनाने की संस्थाएं हमारे घरों के बाहर स्थापित होती हैं जिसमें स्कूल और काॅलेज जैसी शैक्षिक व्यवस्थाएं शामिल हैं। पर कई बार देखा जाता है कि अक्सर शैक्षिक संस्थाएं महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों को और अधिक पुख्ता करती नज़र आती हैं।

सामाजीकरण एक ऐसी जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है जो हमारे व्यक्तित्व का विकास करती है। इस प्रक्रिया अंजाम देने में हमें इसकी एजेंसियों को जानना बहुत ज़रूरी है। ये हमें हमारे माता-पिता, समुदाय, पड़ोस, सरकार, मीडिया, दोस्त या संगी-साथी, स्कूल और काॅलेज आदि परिवेश में मौजूद तमाम माध्यमों के जरिए हमें भाषा, ज्ञान, विचारधारा, आदत, सामाजिक कौशल, मानदंड, मूल्य और रीति-रिवाज को प्राप्त करने में सक्षम बनाते है। पर जरूरी नहीं है कि सामाजीकरण से सीखे गए यह तत्व उचित हो या हमेशा सकारात्मक रूप से हम पर प्रभाव डालते हों। इसके दूसरे पहलू को जाने तो यह प्रक्रिया ही कारण होती है जो हमें रूढ़िवादी, पक्षपात और कट्टरवाद की ओर ढकेलती है। यही कारण है कि भारतीय समाज में सामाजीकरण की प्रक्रिया उतनी प्रोग्रेसिव नहीं रही जितनी होनी चाहिए। इसका तीव्र परिणाम हमारे सामने तमाम तबके की महिलाओं के विरुद्ध उभरती हिंसा के रूप में आता है।

महिलाओं के प्रति किसी भी रूढ़िवादी मानसिकता को चुनौती देने और परिवर्तनशील बनाने की संस्थाएं हमारे घरों के बाहर स्थापित होती हैं जिसमें स्कूल और काॅलेज जैसी शैक्षिक व्यवस्थाएं शामिल हैं। पर कई बार देखा जाता है कि अक्सर शैक्षिक संस्थाएं महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों को और अधिक पुख्ता करती नज़र आती हैं। शैक्षिक संस्थाओं के इस कल्चर से आने वाली अगली पीढ़ियां भी ग्रस्त होने लगती हैं। यहां हम चर्चा कर रहे हैं कि गर्ल्स काॅलेज में पढ़ने वाली लड़कियों के अनुभव किस प्रकार के रहे हैं। उनके नज़रिए से वहां का परिवेश उनके पंखों को उड़ान देने के लिए किस तरह से मील का पत्थर साबित होता है जोकि सामाजीकरण की नई प्रक्रिया की दिशा की ओर इंगित करता है।

स्कूली शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा के तहत कॉलेज हमारे सामाजिक अनुभवों में बढ़ोतरी करता है। स्कूल में जहां लोकल विद्यार्थी देखने को मिलते हैं, वहीं कॉलेज में एक एकेडेमिक विकेन्द्रीकरण देखने को मिलता है। कॉलेज में देश के अन्य राज्य और क्षेत्र के विद्यार्थी दिखाई देते हैं। कुछ अंतराष्ट्रीय छात्र-छात्राएं भी देखने को मिलते हैं। विविधता से भरा यह स्पेस ऐसे गहन अकादमिक अनुभव प्रदान करता है, जहां हम अपनी पहचान को समझने लगते हैं और रूढ़िबद्धताओं में उलझी अपनी सोच को चुनौती देने लगते हैं। ये स्पेस हमें विषयों की चर्चाओं में शामिल होने, दूसरों को सुनने, उनकी अनूठी संस्कृति से रूबरू होने, आदर करने आदि का मौका देता है। कॉलेज की संस्कृति दोस्ती करने और उस दोस्ती को ताउम्र कॉलेज के अलावा अगली अवस्था तक निभाने का रास्ता प्रदान करता है। कॉलेज से जुड़े अनुभव लड़कियों को बाहरी व्यवस्थाओ से जुड़ने, बढ़ने और समाज के सक्रिय सदस्य बनने के लिए सीखने के अनेकों अवसर देते हैं।

लड़कियों के लिए समय और उसका माइक्रोमैनेज

कई छात्राओं को उच्च शिक्षा में कदम रखने की शुरुआत में परिवार की तरफ से सुझाव दिया जाता है कि वो अपने आस-पास के क्षेत्र में उपलब्ध विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में एडमिशन लें। 22 वर्षीय गरिमा का कहना है, “मैं एक महिला कॉलेज में पढ़ रही हूँ। जब कॉलेज में होती हूँ तो समय से घर पहुँचने के लिए घर से कई सारी कॉल आती हैं। घरवालों का ‘समय से घर पहुँचना’ कॉलेज खत्म होने की टाइमिंग को नहीं मानना। कॉलेज में हर दिन के लेक्चर्स की टाइमिंग एक सी नहीं होती है। किसी दिन लेक्चर चार बजे खत्म होते हैं तो किसी दिन छह बज जाते है। वहीं मेरा भाई जो मुझसे दो साल छोटा है और ग्रेजुएशन कर रहा है उसे लेकर पेरेंट्स इस तरह से समय को लेकर माइक्रोमैनेज नहीं करते जिस तरह मुझे बार-बार कॉल करके करते हैं।”

रोशनी(26) राजस्थान की रहने वाली हैं और एक दलित समाज से आती हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक गर्ल्स कॉलेज से बी.एड की पढ़ाई की और फिर नार्थ कैंपस से एम.एड की डिग्री हासिल की जहां उन्हें कॉ-ऐड एनवायरमेंट मिला। उनका अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहना है, “ग्रेजुएशन के दौरान वो पढ़ाई में काफी अच्छा प्रदर्शन करती थी। उन्हें क्लास की लगभग सभी लड़कियों और टीचर से सराहना मिला करती थी। एम.एड में भी उनका प्रदर्शन इसी तरह काफी सरहानीय रहा पर इस दौरान उन्होंने महसूस किया की क्लास के लड़के-लड़कियां उनके परिचय के बारे में जानने को उत्सुक रहा करते थे।”

लड़कियां अक्सर टीचर के आने तक और बाकी लड़कियों से भरे व्यस्त कॉरिडोर में नए टॉपिक पर डिस्कशन और विषय मटीरियल जुटाने की रेस में लगी रहती हैं। यहां पीरियड्स और इससे जुड़े स्वास्थ्य संबंधी विषय, पीसीओडी, यौन उत्पीड़न आदि विषयों की चर्चाएं छिपकर नहीं होती है। इस माहौल में लड़कियां अक्सर बिना कोई ख़ास प्रयास के सहजता से खुद को ढाल लेती है जिससे उनके ऐकडेमिक प्रदर्शन पर भी सकारात्मक प्रभाव दिखाई पड़ता है। 

लड़कियों के माइनॉरिटी कॉलेज की बात करें तो यहां का वातावरण ऐसा दिखाई देता है जैसे एक ऐसा बाग हो जो नाना प्रकार के रंगों के फूलों से सुज्जजित होता है। इस वाक्य की वास्तविक अभिव्यक्ति हमें एक गर्ल्स माइनॉरिटी कॉलेज में पढ़ी रही 23 साल की ज्योति के अनुभवों के जरिए मिलती है। ज्योति बताती हैं कि कॉलेज अलग-अलग जगह से आने वाली और अलग-अलग सांस्कृतिक पहचान से ताल्लुक रखने वाली छात्राओं से युक्त है। यहां हम एक साथ खाते-पीते, लंच शेयर करते, अपने करियर की चिंताएं उनसे जुड़े फैसले, भावी योजनाओं को सांझा करते, किसी हेरिटेज स्थल को टोली में विजिट करने निकल पड़ते या कैंटीन में गप्पे लड़ाते हैं। विचारों को एक-दूसरे के साथ बेझिझक शेयर करते हैं। पिछली और वर्तमान राजनीतिक घटनाओं की चर्चाओं के दौरान सभी लड़कियों की भिन्न-भिन्न धारणाएं और राय रखने की तहज़ीब से परिचित होने का मौक़ा मिलता है। माइनॉरिटी कॉलेज में ज्योति के अनुभव हमारे आगे कॉलेज जैसी सामाजिक संस्था की एक ऐसी तस्वीर पेश करते हैं जो छात्राओं को परस्पर संपर्क में लाती है।

को-ऐड कॉलेज में दलित छात्रा के अनुभव

रोशनी(26) राजस्थान की रहने वाली हैं और एक दलित समाज से आती हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक गर्ल्स कॉलेज से बी.एड की पढ़ाई की और फिर नार्थ कैंपस से एम.एड की डिग्री हासिल की जहां उन्हें कॉ-ऐड एनवायरमेंट मिला। उनका अपने व्यक्तिगत अनुभव से कहना है, “ग्रेजुएशन के दौरान वो पढ़ाई में काफी अच्छा प्रदर्शन करती थी। उन्हें क्लास की लगभग सभी लड़कियों और टीचर से सराहना मिला करती थी। एम.एड में भी उनका प्रदर्शन इसी तरह काफी सरहानीय रहा पर इस दौरान उन्होंने महसूस किया की क्लास के लड़के-लड़कियां उनके परिचय के बारे में जानने को उत्सुक रहा करते थे। कोई उनसे उनके निवास स्थान, माता-पिता के कामकाज के साथ-साथ उनकी जातिगत पहचान तक पहुँचने का प्रयास किया करते थे। इसका एहसास उन्हें गर्ल्स कॉलेज में कभी नहीं हुआ था। ऐसा लगता है जैसे गर्ल्स कॉलेज में केवल एक समान लिंग के साथियों के साथ पढ़ना अन्य सामाजिक पहचानों को उतना ज़्यादा फोकस में नहीं लाता। लेकिन कॉ-ऐड कॉलेज के परिवेश में महिला और पुरुष दोंनो का साथ पढ़ना दो लैंगिक बाइनरी के साथ-साथ अन्य प्रबल सामाजिक पहचानों को भी प्रासंगिक बना देता है।”

एक महिला का दूसरी महिला के बीच के रिश्ते को अमूमन एक ख़राब कहावत के साथ संबोधित किया जाता है जैसे, ‘महिला ही महिला की दुश्मन होती है’ लेकिन इन कॉलेजों में लड़कियां हाथ में हाथ मिलाकर सहयोग के भाव से एक दूसरे को ऊपर उठाते हुए ऐसे स्टीरियोटाइप से भरे कटाक्ष को मुँह तोड़ ज़वाब देती हैं।

दिल्ली की 26 वर्षीय वंशिका हमसे अपने अनुभव सांझा करती हैं और बताती हैं, “जब मुझे पता चला की मेरा सिलेक्शन गर्ल्स कॉलेज में हुआ है तो वहां सोशल होने और समायोजित होने की चिंताएं मेरे दिमाग में दौड़ने लगी जैसे केवल लड़कियों से ही इंटरेक्शन होगा, दोस्त नहीं बन पाएंगे आदि सारे विचार मेरे दिमाग में दौड़ते रहते थे। कॉलेज ज्वाइन करने के बाद मैंने जाना कि ऐसा नहीं होता है। अक्सर जैसा हमें बाहर सुनने को मिलता है वैसा तो बिल्कुल नहीं होता है। मेरे लिए “गर्ल्स कॉलेजेसे आर टोटली फन”। वहां की सबसे अच्छी बात यह होती है कि ऐसा एनवायरमेंट हमे कहीं नहीं देखने को मिलता। यहां अपनी पसंद के कैसे भी कपड़े डाल कर आ जाओ, कैसे भी बैठो, अपनी बातों को बिलकुल बेझिझकता और बेबाक़ी से रखो, एक हेल्दी डिबेट और डिस्कशन का हिस्सा बनो। आप वहां चारों तरफ़ अपने ही जेंडर के लोगों को चीज़ें करते और बोलते देख सकते हो। इससे अच्छा मोटिवेशन और लाइफ में कुछ करने का जज़्बा और कहीं नहीं मिलता।”

पढ़ाई के बाद भी एक-दूसरे को प्रभावित करती लड़कियां

जो लड़कियां कॉलेज की जर्नी पूरी हो जाने के बाद भी आपस में एक दूसरे से संपर्क में रहती हैं वो करियर के संबंध में एक- दूसरे को प्रभावित करती हैं। जैसे जयपुर की 28 वर्षीय कविता हमें बताती हैं कि शादी हो जाने के बाद मैंने आगे बाकी की पढ़ाई पूरी करने की इच्छा जताई। मैं अक्सर अपने समूह या क्लास में साथ पढ़ी हुई दूसरी लड़कियों को जॉब करने या पढ़ाई जारी रखने के किस्से सुना करती हूं। उनकी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनकी तरक्की से जुड़ी फोटो और पोस्ट देखती हूं तो काफ़ी प्रेरित होती हूं। इससे में अपनी आगे पढ़ाई करने की हिम्मत जुटाती हूं। 

इस तरह गर्ल्स कैंपस के अनुभवों का सामाजिक विश्लेषण हमारे समक्ष छिपी हुई पितृसत्ता की जड़ों को दृश्यमान बनाता है। पितृसत्ता की इन जड़ों को दृश्यमान बनाने के साथ-साथ एक ऐसे औपचारिक सेटअप भी होता है जो सालभर हमें अपने आपको अभिव्यक्त करने और सशक्त होने का मार्ग प्रशस्त करता है। एक महिला का दूसरी महिला के बीच के रिश्ते को अमूमन एक ख़राब कहावत के साथ संबोधित किया जाता है जैसे, ‘महिला ही महिला की दुश्मन होती है’ लेकिन इन कॉलेजों में लड़कियां हाथ में हाथ मिलाकर सहयोग के भाव से एक दूसरे को ऊपर उठाते हुए ऐसे स्टीरियोटाइप से भरे कटाक्ष को मुँह तोड़ ज़वाब देती हैं।


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