जिस उम्र से लड़कियां ‘लज्जा’ का अर्थ समझती हैं उस उम्र से ही वह दरवाजे के पीछे छिपना सीख जाती है। ‘सीखना’ शब्द किसी भी इंसान के शब्दकोश का वह हिस्सा है जो कोरे अनुभव को आहिस्ता-आहिस्ता अनुभव से लबालब गागर में तब्दील कर देता है। कितना सामान्य सवाल है, हमने अब तक अपने जीवन में क्या कुछ सीखा? सबसे पहले रोना सीखा, हंसना सीखा, बोलना, चलना, पढ़ना और गढ़ना सीखा। गढ़े हुए को समझना, समझे हुए को सराहना सीखा और सीखते रहने के लगातार द्वंद में अपने आप को दृढ़ रखना सीखा। हर शख़्स का अपना जवाब हो सकता है। मेरा उत्तर इस प्रश्न सा सामान्य है।
सीखने के अनेक पड़ावों में से एक है छिपना और छिपाना सीखना। यही समय होता है जब हम अवगत होते हैं कला से, कविताओं से और कहानियों से। शायद ही कोई लड़की पैदाइशी अंतर्मुखी होती होंगी जबकि परिस्थितियों से परामर्श के पश्चात् ही वे अपने आपको इससे परिचित होती पाती हैं। एक अंतर्मुखी लड़की के जीवन में कविताओं और कहानियों का वही स्थान है जो एक कोरे कागज़ पर किसी रचना का है। एक अंतर्मुखी व्यक्तिव भावावेश में अक्सर किसी ऐसी चीज़ की ओर रुख करता है जो उसके मन को शांत कर सके और वो कोना दे सके जहां वह अपने भाव बग़ैर संकोच उगल सके। कविताएं और कहानियां वही कोना है।
निहारिका झा बिहार की रहने वाली है और एक काव्य प्रेमी है। कविता को अपने जीवन से जोड़ने हुए उनका कहना है, “कविता ने हमेशा मेरे मन के मौन रूपी अंधेरे को चीरकर भावों का प्रकाश फैलाया है, काव्य ने हमेशा जीवन के मुश्किल वक्त में प्रेरित कर आगे बढ़ने का हौसला दिया है।”
कुछ अंतर्मुखी लड़कियों के व्यक्तिगत विचारों का उद्धरण
मेधा उषा उत्तराखंड से है, अभी पुरातत्त्व से पीएचडी कर रही हैं। मेधा खुद के परिचय में कहती है, “ पहाड़ से, जंगल से, खेतों से हूं, जो भी हूं, जहां भी हूं।” वह कहती हैं, “जीवन में वास्तविकता अधिक हो जाए तो कविता और कहानी अपनी कल्पना से जीवन को रहने लायक बनाए रखते हैं। ऐसा नहीं है कि कविता और कहानी का वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं, कल्पनाओं की परिधि सीमित नहीं होती। वे अपार होती हैं। मेरे लिए कविताएं और कहानियां दोनों ही जीवन को सरल और जीने लायक बनाती है।”
कविताएं या कहानियों का महत्व मैंने तब जाना
दीपिका छिल्लर नर्सिंग की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद पिछले पाँच सालों से मिलिट्री अस्पताल के आई.सी.यू. में काम कर रही है। दीपिका अपने परिचय में कहती है, “मैंने किसी शिशु के जन्म जैसा खूबसूरत पल या फिर किसी को आख़िरी साँस तक बचाने की हर कोशिश इस 27 साल की उम्र में देखी है। मैंने ज़िंदगी से सीखा है कि जो है अभी है, कल किसी का नहीं हुआ।” कविताओं के साथ अपने संबंध के बारे में उनका कहना है, “जब कविताओं ने हाथ थामा जब खुद का हाथ थामने का ना हौसला था ना ही हिम्मत थी। आप हजारों की भीड़ में हो तब भी एकांत हैं कविताएं। सुख में पढ़ी गई और दुःख में लिखी गई पंक्तियां है कविता। किन्ही दिनों अस्पताल से जब निराश होकर आती हूं तो आशा की किरण हैं कविताएं। इनमें मैंने हमेशा वास्तविकता से अलग ज़िंदगी जी है, जिसके बारे में शायद ही कोई जान पाएगा।”
निशिका सिंह हिंदी साहित्य से एम.ए. कर रही हैं और साथ ही मध्यप्रदेश पुलिस में कांस्टेबल के पद पर कार्यरत है। साहित्य और कला से विशेष जुड़ाव रखती हैं और खुद को कला और साहित्य प्रेमी बताना पसंद करती हैं। उनका कहना है, “मैं ज्यादा कहानियां नहीं पढ़ती पर जो पढ़ी है सभी ने मुझे किसी न किसी मोड़ पर रोमांचित किया है लेकिन कविताएं तो जैसे मेरे जीवन का अभिन्न अंग है। मैंने रोते, गाते, खुश होते हर मोड़ पर कविताओं को अपने साथ पाया है। कविताओं ने मुझे आगे बढ़ाया, रास्ता दिखाया, कई-कई बार हाथ थाम कर परिस्थितियों से निकाला है, मेरे आंसू पोंछे है, साथ रोई है, मुझे हंसाया है और एक पंक्ति में कहा जाए तो कविताओं ने ही मुझे बचाया है।”
मेरे जीवन में काव्य ने दिया अहम योगदान
निहारिका झा बिहार की रहने वाली है और एक काव्य प्रेमी है। कविता को अपने जीवन से जोड़ने हुए उनका कहना है, “कविता ने हमेशा मेरे मन के मौन रूपी अंधेरे को चीरकर भावों का प्रकाश फैलाया है, काव्य ने हमेशा जीवन के मुश्किल वक्त में प्रेरित कर आगे बढ़ने का हौसला दिया है। कविता या काव्य का हर व्यक्ति के जीवन में कुछ योगदान या महत्व ज़रूर ही होता है, कई बार जाने-अनजाने में हम कहानियों और कविताओं से प्रेरित होते हैं। मेरे जीवन में काव्य ने बहुत अहम भूमिका निभाई है।”
कविताओं और कहानियों की ओर मेरी व्यक्तिगत यात्रा
मेरा खुद का कविताओं और कहानियों की ओर रुझान होना ‘लज्जा’ शब्द से जुड़ा हुआ है। एक ऐसे परिवार में पलना जहां सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध है बस वो कोना नहीं है जहां मैं अपने दिल की बात कह सकूं, अपनी इच्छाओं को साफ तौर से प्रकट कर सकूं, जहां घर के बेटे को अलग और घर की बेटियों को अलग परवरिश दी गई। जहां हमारे हक़, आज़ादी और इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं, जहां शादी वो पैमाना है जिससे ये तय किया जाता है कि हमारा जीवन सफल हुआ या विफल। ऐसे में कविताएं और कहानियां मुझे अपना आलिंगन भेंट करती हैं। ये वो कोना बनती हैं जहां मैं जो चाहे बन सकती हूं।
‘पुष्प की अभिलाषा’ (माखन लाल चतुर्वेदी) से लेकर ‘रश्मिरथी’ (रामधारी सिंह “दिनकर”) तक के इस काव्य सफर में और ‘ईदगाह’ (प्रेमचंद) से लेकर ‘गुनाहों का देवता’ (धर्मवीर भारती) के मध्य जो कहानियां पढ़ी है उनसे जाना है कि संभावनाएं असीम है। इतना कुछ रचा हुआ होने के बावजूद कितना कुछ रचा जाना अभी शेष है। इसी शेष में अपना नाम दर्ज करने हेतु लिखती हूं। छिपने, छिपाने के क्रम से ऊबी हुई मैं, अब छपना चाहती हूं। चाहती हूं कि जब मेरे जैसी लड़कियां मुझे पढ़े तो वही कोना पा सके जो मैंने परवीन शाकिर और अमृता प्रीतम को पढ़ कर पाया है।
पितृसत्तात्मक समाज में कविताओं और कहानियों के बीच एक लड़की
जिस समाज में पहले से लिंगभेद, जात-पात, असमानता, गरीबी और बेरोजगारी जैसी कुरीतियों की भरमार लगी हो उसमें एक ऐसे मुद्दे को उठाना जिसे ज्यादा महत्वपूर्ण भी नहीं माना जाता, एक व्यर्थ प्रयास मात्र ही है। साल 2017 में ‘फिल्लौरी’ नाम की एक फ़िल्म आई थी। फ़िल्म की मुख्य किरदार शशि, फिल्लौर शहर में अपने बड़े भाई के साथ रहती है और कविताएं लिखना पसंद करती है। शशि की कविताएं शहर की एक मैगज़ीन में छपती है, पूरा शहर उसकी कविताएं पढ़ता है मगर इस बात से अनजान रहते हुए कि ये कविताएं जो ‘फिल्लौरी’ के नाम से छपती है, असल में किसकी है। कारण है शशि के भाई का लिखने, गाने-बजाने वालों को हेय दृष्टि से देखना। हालांकि ये रहस्य समय के साथ खुलता है और सराहा भी जाता है।
आज कितने ही घरों में लड़कियों के प्रति उनके परिवार या समाज की यही भावना है। जहां पढ़ना-लिखना लड़कों के लिए कर्तव्य है वहीं लड़कियों के लिए एक विकल्प मात्र। इस देश में कितनी ही क्रांतियां हो पर जब एक मध्यवर्गीय परिवार में कोई अंतर्मुखी लड़की कविता और कहानियां पढ़ती या गढ़ती है तो उसके मन में भी क्रान्ति की भावना पैदा होती है। जब मैं असरार-उल-हक़ मजाज़ का लिखा पढ़ती हूं कि “तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था” तो चाहती हूं कि क्रान्ति हो।