समाजखेल खेलों में जेंडर के आधार पर दोहरा व्यवहार और यौन शोषण की चुनौतियों का सामना करती महिला खिलाड़ी

खेलों में जेंडर के आधार पर दोहरा व्यवहार और यौन शोषण की चुनौतियों का सामना करती महिला खिलाड़ी

खेल जहां अभिव्यक्ति और आजादी का मायना दिखलाता है वहीं महिला खिलाडियों को लैंगिक पहचान के आधार पर शारीरिक यौन शोषण का सामना करना पड़ता है। इसका ताजा उदाहरण वर्तमान में दिल्ली के जंतर-मंतर पर महिला पहलवानों का कुश्ती संघ प्रमुख ब्रजभूषण सिंह के ख़िलाफ़ चल रहा विरोध प्रदर्शन है।

“खेलों में दुनिया बलदने की ताकत है” जब यह वाक्य सुना जाता है तब लगता है कि खेल एक ऐसा क्षेत्र है जो सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि इसके जरिए समता और समानता स्थापित की जा सकती है। लिंग, जाति, धर्म के भेदभाव से परे होकर खेल समाज को बदलने में एक अहम हिस्सा है। वहीं जब गहराई से देखा जाए तो वास्तविकता यह है कि खेलों का क्षेत्र भी लैंगिक असमानताओं से घिरा है। खेलों में लड़कियों और महिलाओं को कई तरह के भेदभाव और शोषण का सामना करना पड़ता है जिसे सामने आने तक से दबाया जाता है उसके बारे में सुनते ही सब स्तब्ध हो जाते हैं।

खेलों में यौन शोषण के मामले 

खेल जहां अभिव्यक्ति और आजादी का मायना दिखलाता है वहीं महिला खिलाड़ियों को लैंगिक पहचान के आधार पर शारीरिक यौन शोषण का सामना करना पड़ता है। इसका ताजा उदाहरण वर्तमान में दिल्ली के जंतर-मंतर पर महिला पहलवानों का कुश्ती संघ प्रमुख ब्रजभूषण सिंह के ख़िलाफ़ चल रहा विरोध प्रदर्शन है। हालांकि यह पहला बड़ा मामला नहीं है इससे पूर्व में भी बहुत सी महिला खिलाड़ियों द्वारा यौन शोषण की बातें सामने आ चुकी हैं। यहां ध्यान देने वाली बात तो यह है कि महिला खिलाड़ी चाहे वे किसी भी खेल से संबधित हो उन पर होने वाले शोषण और अपशब्द के अधिकांश मामले सामने नहीं आ पाते हैं। इसकी मुख्य वजह यौन हिंसा पर हमारे पितृसत्तात्मक समाज की प्रतिकिया है। दूसरा ऐसे में अपनी आवाज़ उठाना उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाता है क्योंकि एक तरफ उनका सपना और करियर है जिसके लिए वो अपने घर, गांव, समुदाय, समाज से संघर्ष करके आगे बढती हैं। 

तस्वीर साभारः AP News

पूरे राजनीतिक और अधिकारिक माहौल में शोषण के ख़िलाफ़ आवाज उठाना, कानूनी कार्रवाई करना उनके लिए बहुत बड़ी चुनौती होती है। विक्टिम ब्लेमिंग और सत्ता की ताकत के ख़िलाफ़ कई अपनी आवाज़ उठा कर शोषण के ख़िलाफ़ बोल पाते हैं तो कई सहते रहते हैं। द वायर में छपी ख़बर के मुताबिक़ भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) में दायर आरटीआई से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले एक दशक साल 2010 से 2020 में महिला खिलाड़ियों द्वारा 45 यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज किये गए। दर्ज मामलों में से 29 कोचों के ख़िलाफ़ हैं। 

खेलों में अप्रोच के चलते ग्रामीण महिला खिलाड़ियों को पिछड़ने का डर

खेल जगत में कई आधार पर होने वाले भेदभाव के चलते प्रतिभाशाली खिलाड़ी पीछे छूट जाते हैं। अप्रोच बनाकर जगह बनाना और गुणवत्ता के बजाय नाम और आर्थिक स्थिति जैसे कई आधार को महत्व दिया जाता है ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र की महिला खिलाड़ी के लिए स्थिति और भी कठिन हो जाती है। अपनी खेल प्रतिभा के ज़रिए खिलाड़ी बनने की इच्छा रखने वाली इन लड़कियों को अलग-अलग स्तर पर आगे बढने और अपनी पहचान बनाने के लिए कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण इलाकों से किशोरियां जो कई रूढिवादी विचारधाराओं और लैंगिक भेदभाव, पितृसत्ता को चुनौती देते हुए और खेलों के जरिए आगे बढ रही हैं उन्हें डर है कि अप्रोच और अन्य मुश्किलों के चलते वे खेल से पीछे रह कर वापिस रूढ़िवादिता में जा सकती हैं और उनका भविष्य पिछड़ सकता है।

द वायर में छपी ख़बर के मुताबिक़ भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) में दायर आरटीआई से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले एक दशक साल 2010 से 2020 में महिला खिलाड़ियों द्वारा 45 यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज किये गए।

महिला खिलाड़ियों की प्रतियोगिता की स्पॉन्सरशिप मिलने में भी परेशानी

राजस्थान में ग्रामीण क्षेत्र में किशोरियों को फुटबॉल खिलाने वाली एक संस्था की कार्यकर्ता से जब मैंने स्पॉन्सरशिप और टूर्नामेंट के अनुभवों पर बात की तो नाम न उजागर करने की बात पर उन्होंने बताया, ‘‘एक बार जब महिला खिलाड़ियों के टूर्नामेंट की स्पॉन्सरशिप के लिए मैं किसी से मिलने उनके ऑफिस में गई तो मेरे साथ एक पुरुष सहकर्मी भी थे। बावजूद इसके वो सर मेरे सहकर्मी के पास बैठने के बजाय मेरे बिल्कुल समीप आकर बैठे तो मैं ही पीछे सरक गई थी। उसके बाद हमने अपने किशोरियों के साथ होने वाले संस्था के काम के बारे में उन्हें बताया और स्पॉन्सरशिप के लिए कहा तो उन्होंने मुझे बहुत ही असहज करने वाली नज़रों से देखा। उन्होंने मुझे एक होटल में आकर मिलने के लिए कहा। उस वक्त तो हमने बातें घुमाते हुए वहां से निकलना ठीक समझा।”

आगे वे कहती है, “मेरी उम्र 50 साल है जब मेरे बारे में वो ऐसा कह सकते है, सोच सकते है और ऐसी नज़रों से देख सकते है तो मेरी जगह कोई और लड़की होती तो उसका क्या होता। मैं खेल स्पॉन्सरशिप के लिए बात करने गई थी इसका मतलब वो मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं। मेरे साथ एक पुरुष सहकर्मी होने के बावजूद उस जगह ऐसा व्यवहार हुआ अगर मैं अकेली होती तो पता नहीं किस तरह की परिस्थिति हो सकती थी। मैं संस्था में काम करती हूं जहां महिला अधिकारों पर, शोषण के ख़िलाफ़ और किशोरियों के लिए लीडरशिप पर काम करती हूं। मैंने खुद को संभाल लिया और वहां से बच निकल आई लेकिन  मेरी जगह कोई और होता तो क्या होता।” 

खेलों में लैंगिक भेदभाव के कारण लड़कियों नहीं बढ़ने दिया जाता 

महिलाएं जिन्हे अक्सर समाज में दोयम दर्जा दिया जाता है जिनके लिए एक दायरा सीमित कर दिया जाता है फिर चाहे वो बात उनके भविष्य, सपनों और इच्छाओं को लेकर हो या उनके जीवनशैली पर। वे क्या करेंगी और क्या नहीं इन सब पर नियंत्रण करता हुआ पितृसत्तात्मक समाज में जब बात खेल की आती है तब भी यहीं सामने आता है कि बाहर खेले जाने वाले खेल पुरूषों के लिए है महिलाएं केवल इंडोर गेम्स खेल सकती हैं।

राजस्थान राज्य के ग्रामीण इलाकों में लडकियां फुटबॉल के जरिए अपना विकास और सपने बढा रही हैं। वहां ग्रामीण लोगों का मानना है कि ‘‘लड़कियां अगर लड़कों वाला खेल खेलेंगी तो लड़कों जितनी मजबूत ना होने के कारण चोट लग गई तो इनकी शादी कैसे होगी।‘‘ पुरुषवादी मानसिकता खेल को सिर्फ खेल ना देखते हुए पुरूष और महिला होने के नाते खेल खेलने में ताकत को देखती है। फुटबॉल, क्रिकेट, बास्केटबॉल, हॉकी, कबड्डी, कुश्ती आदि को पुरूषों का खेल माना जाता है और जब कोई लड़की या महिला ये खेल खेलती है तो उन्हे तवज्जों कम दी जाती है और अंचभित होकर देखा जाता है। इतना ही नहीं महिला खिलाड़ियों की उनकी शारीरिक बनावट कद, वजन तक के लिए बॉडी शेमिंग की जाती है। 

तस्वीर साभारः Olympics

भारत की टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा ने लैंगिक भेदभाव पर बोलते हुए कहा था कि ये लैंगिक भेदभाव ही है जब मैं विबंलडन जीतकर भारत लौटी तो मुझसे माँ बनने के बारे में पूछा गया। अंतरराष्ट्रीय उपलब्धि होने के बावजूद मेरे जीवन को पूरा नहीं माना गया यह तो भेदभाव की चरम सीमा है। एक महिला खिलाड़ी से ही ये यह पूछा जाता है कि वे कब सैटल होगी, वे कब माँ बनने का सोच रही है।

महिला खिलाड़ियों को मिलता है कम वेतन 

खेल जगत में लैंगिक भेदभाव की वजह से महिला खिलाड़ियों को पुरूषों की तुलना में वेतन, इनाम की राशि में अंतर, महिला खिलाडियों के लिए कम अवसर, स्वास्थ्य और अन्य जरूरत पर कम खर्च करना, नौकरी में अवसर और सुरक्षा में कमी आदि का सामना करना पडता है। स्क्रोल में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार क्रिकेट में महिला खिलाड़ियों और पुरुष खिलाड़ियों को मिलने वाली राशि में बड़ा अंतर है। महिला क्रिकेटर की ग्रेड ग्रुप में राशि लाख में है तो पुरुषों की करोड़ो की धनराशि मिलती है। बीते साल ही बीसीसीआई ने महिला और पुरुष क्रिकेटरों की मैच फीस को समान करने की घोषणा की है। इतना ही नहीं महिला और पुरूष खिलाड़ियों द्वारा खेले जाने वाले खेलों में दर्शकों की संख्या में भी अंतर देखने को मिलता है। मीडिया भी इसमें जिम्मेदार है जो अपने कवरेज के जरिए भेदभाव को दर्शाता है और महिला खेल, लीग और खिलाड़ियों को कम महत्व देता है।

राजस्थान राज्य के ग्रामीण इलाकों में लड़कियां फुटबॉल के जरिए अपना विकास और सपने बढा रही हैं। वहां ग्रामीण लोगों का मानना है कि ‘‘लड़कियां अगर लड़कों वाला खेल खेलेंगी तो लड़कों जितनी मजबूत ना होने के कारण चोट लग गई तो इनकी शादी कैसे होगी।‘‘

विज्ञापनों में भी पुरुष खिलाड़ी आगे

वर्तमान में खेल को सिर्फ खेल और खिलाड़ियों तक सीमित ना होकर इसमें पूंजीवाद भी शामिल हो गया है। विज्ञापन जगत में खिलाड़ियों को बहुत अहमियत दी जाती है लेकिन यहां भी पुरुष खिलाड़ियों को ज्यादा वरीयता दी जाती है। भले ही महिला खिलाड़ी ने कितनी भी बड़ी उपलब्धि हासिल की हो किसी पुरुष खिलाड़ी के मुकाबले इस तरह के आयोजनों में भी कम स्थान दिया जाता है। खेल जगत में तमाम बदलाव होने के बावजूद महिलाओं को लेकर जमीनी बदलाव होने बाकी है।

कोई खेल खेलना, उसमें आगे बढ़ने के अलावा लड़कियों को महज जेंडर के आधार पर अपार चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं। उसमें भी ग्रामीण महिला खिलाड़ियों जिनके लिए अवसर और रास्तों में पहले ही इतनी रूकावटें और कठिनाइयां उनके लिए विभाग और खेल संस्थाओं के द्वारा एक सुरक्षित माहौल बनाया जाए। खेलों को प्रोत्साहन दिया जाएं। लैंगिक भेदभाव, क्षेत्रीयता, जातिगत सारे भेदभावों को खत्म कर समावेशी और शोषण मुक्त माहौल हो और केवल खेल और खेल भावना की बात हो। 

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