“तुम सबसे बड़ी हो, सबका ख्याल रखा करो, जाने दो तुम्हारे छोटे भाई-बहन हैं…..” अगर आप अपने घर की सबसे बड़ी बेटी हैं तो आपने यह सब जरूर सुना होगा। ये सब सुनकर गुस्सा भी आता होगा कि आखिर ये सारी ज़िम्मेदारियां सबसे बड़ी बेटी की ही क्यों है? परिवार की सबसे बड़ी बेटी होना एक ट्रेनिंग की तरह है जो हमारे परिवार के सदस्य हमें बचपन से ही देना शुरू कर देते हैं। छोटी उम्र से ही हमारे अंदर यह भावना जागने लगती है कि हमें हमारे छोटे भाई-बहन का ध्यान रखना है। किसी बड़े की गैर-मौजूदगी में घर का ‘कमांडर’ बन जाना है। अगर परिवार में कोई मुश्किल या असहमति होती है तो शांत रहना है।
परिवार की सबसे बड़ी बेटी ज्यादातर यह अनुभव करती हैं कि उनके साथ माता-पिता सख्त व्यवहार करते हैं, घर का ज्यादातर काम उन्हें सौंप दिया जाता है। साथ ही हमेशा परिवार के सदस्यों के बीच होनेवाले विवादों में बीच-बचाव करने की उम्मीद उनसे की जाती है।
सीरत (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मेरे भाई बहन में से मैं सबसे बड़ी हूं। बड़े होने के नाते मुझसे भी यह उम्मीद की जाती है कि मैं घर में सबका ध्यान रखूं, ख़ासतौर से अपने भाई-बहन का। माँ की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी की दोंनो ही परिस्थितियों में घर को संभाल लूं जैसा कि मेरे कुछ रिश्तेदारों के बच्चे किया करते हैं। ऐसा न करने पर मुझे बार-बार घर के सदस्यों द्वारा यह याद दिलाया जाता है कि घर की बड़ी बेटी होने के नाते मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं। हालांकि, घर की जिम्मेदारियां मेरे भाई और बहन को कभी याद नहीं दिलाई जाती। अगर उन्हें कोई काम करने को दिया जाए और वे उसे टाल दें तो कहा जाता है छोटे बड़ों को देखकर ही सीखते हैं।”
आगे वह कहती हैं, “घर में कुछ असहमति होने पर मुझसे शांत रहने को कहा जाता है। मुझसे अक्सर कहा जाता है, “तुम्हें तो दूसरे घर जाना है। इन लोगों को तो इसी घर में एक साथ रहना है। इन सब के बीच तुम बुरी मत बनो। शांत रहने का दवाब इस हद तक होता है कि बड़ी होने के नाते मैं मेरे घर में कुछ भी ग़लत के ख़िलाफ़ एक शब्द भी किसी के सामने नहीं कह सकती। मेरी माँ का मेरे भाई और बहन के साथ थोड़ा नर्म व्यवहार रहता है। वहीं, मेरे साथ वह सख्ती से पेश आती हैं।”
इस तरह की परिस्थिति के लिए लड़को की तुलना में लड़कियों को अधिक तैयार किया जाता है। वे अपने माता-पिता के तनाव और चिंता को भावुक होकर बिना किसी सवाल जवाब के अपनी जिम्मेदारी समझ लेती हैं क्योंकि ये सारी भूमिकाएं समाज द्वारा उनके जेंडर के आधार पर उन्हें सौंपी गई हैं। यह भावनात्मक बोझ ही ‘एल्डेस्ट डॉटर सिंड्रोम’ कहलाता है। पितृसत्तात्मक सोच के इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद घर की बड़ी बेटी को अकसर इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।
25 वर्षीय सुनैना सिंह बताती हैं, “ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ बड़ों पर ही सारी जिम्मेदारी थोपी जाती हैं। हम दो-भाई बहन हैं। मैं अपने घर में छोटी हूं, मेरे घर में मुझसे ज्यादा उम्मीदें रखी जाती हैं। मम्मी-पापा को डॉक्टर के पास ले जाना, घर का सामान लाना और बाकी सभी काम करने की उम्मीद सिर्फ मुझसे की जाती है। दिन खत्म होते ही अगले दिन की ज़िम्मेदारी तैयार रहती है। कभी-कभी पापा की बातों पर बहुत गुस्सा आता है लेकिन जब मैं उनके गुस्से पर गौर करती हूं तो समझ पाती हूं कि वे कैसा महसूस करते हैं।”
हमारे आसपास के लोग अक्सर यही कहते नज़र आते हैं कि इसमें गलत जैसा कुछ नहीं है। घर का सबसे बड़ा बच्चा अधिक परिपक्व होता है, तो क्या परिपक्व इंसान को घर और उसके बाकी सदस्यों का ख्याल नहीं रखना चाहिए? लड़कियां-लड़कों के मुकाबले समय से पहले समझदार हो जाती हैं तो एसे में लड़कियों को घर की देखभाल नहीं करनी चाहिए? उनसे बहतर ये काम कौन कर सकता है?
ये पितृसत्तात्मक सामाजिक धारणाएं इतनी गहरी हैं कि इनके आगे असल समस्या को हम नजरअंदाज करते चले जाते हैं। यह एक वंशानुगत दवाब होता है जिसके साथ परिवार की बेटी बड़ी होती है। औरत के जीवन में यह दबाव कम हो सकता है लेकिन खत्म कभी नहीं होता। यह चक्र नियमित रूप से चलता रहता है। ये संघर्ष उनके वयस्क जीवन में भी जारी रहते हैं, जहां वे वास्तव में वही भूमिका निभा रही होती हैं जो उन्होंने अपने बचपन में अदा की थी। जब उनके अपने बच्चे होते हैं, यह चक्र नये सिरे से शुरू होता है।
यहां पर मैं अपनी दादी के बारे में बताना चाहुँगी। मेरी दादी पाँचवी कक्षा में थी जब उनके पिता के बीमार होने के कारण उन्हे स्कूल जाना छोड़ना पड़ा और काम करना पड़ा। चूंकि मेरी दादी सारे भाई बहनो में सबसे बड़ी थी इसलिए पूरे परिवार की जिम्मेदारी मेरी दादी और उनकी माँ पर आ गई थी। उस ज़माने में मेरी दादी और उनकी माँ साइकिल की सीट में रुई भरा करती थीं। वर्तमान में मेरी दादी को छोड़ कर उनके सारे भाई-बहन सुशिक्षित हैं। इस सब के बाद बीस साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई और मेरे पिता के जन्म के बाद वह सब एक बार फिर नए सिरे से शुरू हुआ। महिला होने के चलते समाज हमें उस लाइफ स्टाइल में फिट होने के लिए कहता है जो हमारी मेंटल हेल्थ के लिए नुकसानदायक है। परिवार की सबसे बड़ी बेटियों और बेटों पर इस रीत का एक सफल उदाहरण साबित होने का दबाव सदियों से बनाया जाता रहा है जो कि आगे चलकर हानिकारक साबित होता है। लड़कियाँ आगे चलकर डिप्रेशन और एंग्जाइटी का शिकार हो जाती हैं।
कम उम्र में बहुत अधिक ज़िम्मेदार और परिपक्व होने के दीर्घकालिक प्रभाव होते हैं। इस सब के चलते परिवार का सबसे बड़ा बच्चा ख़ासकर लड़कियां अपनी भावनाओं को अनदेखा करने शुरू कर देती हैं। अपने माता-पिता का पालन-पोषण कर के और उनकी कुछ ज़िम्मेदारियों को निभाकर वे अपनी भावनाओं, चाहतों और ज़रूरतों को दबा देती हैं। हम में से अधिकतर लोग भी यही करते हैं। इस सबके बीच बड़ी बेटियां महसूस करने और भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता अक्सर खो देती हैं। व्यस्कता मे प्रवेश करते ही वह उदासी, डिप्रेशन और एंगजाइटी का अनुभव करती हैं।
सीरत (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “मेरे भाई बहन में से मैं सबसे बड़ी हूं। बड़े होने के नाते मुझसे भी यह उम्मीद की जाती है कि मैं घर में सबका ध्यान रखूं, ख़ासतौर से अपने भाई-बहन का। माँ की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी की दोंनो ही परिस्थितियों में घर को संभाल लूं जैसा कि मेरे कुछ रिश्तेदारों के बच्चे किया करते हैं। ऐसा न करने पर मुझे बार-बार घर के सदस्यों द्वारा यह याद दिलाया जाता है कि घर की बड़ी बेटी होने के नाते मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं।”
हम एल्डेस्ट डॉटर सिंड्रोम के बारे में इसलिए बात कर रहे हैं क्योंकि सामाजिक उपेक्षा और पितृसत्ता हमें यह बताती है कि महिलाओं को घर की ज़िम्मेदारियां खुद ही ले लेनी चाहिए। हम में से कई लोग एसे माहौल में बड़े हुए जहां हमारी भावनाओं को कभी समझा नहीं गया और विरोध करने पर हमें ‘मॉर्डन’ होने का ताना दे दिया गया। कुछ मामलों में अपवाद भी होते हैं जैसे कभी-कभी छोटे भाई-बहन भी उन्हीं चीज़ो का सामना करते हैं जिसका सामना बड़े भाई या बहन ने किया था। एल्डेस्ट डॉटर सिंड्रोम इंटरनेट पर एक नॉन मेडिकल शब्द हो सकता है, लेकिन पहले जन्म लेनेवाली महिलाओं के एक बड़े समुदाय के अस्तित्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। बड़ी बेटी के जीवन में माता-पिता की गैर मौजूदगी में रोल मॉडल और संचालक बनने का दबाव दूर किया जाना एक बेहतर शुरुआत हो सकती है।