इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत हाशिये की कहानियां: सदियों के चलन को तोड़ समाज को बदलता करिश्मा का खेल

हाशिये की कहानियां: सदियों के चलन को तोड़ समाज को बदलता करिश्मा का खेल

जब हम खेल जगत में महिलाओं की भागीदारी को तलाशने की कोशिश करने है तो इससे जुड़ी कई रिपोर्ट सामने आती हैं। लेकिन जैसे ही हम इन रिपोर्ट को जाति के लेंस से देखने की कोशिश करते हैं और हाशियेबद्ध समुदाय की महिलाओं और किशोरियों की खेल जगह में भागीदारी को तलाशते हैं तो हमें उनकी भागीदारी उतनी बड़ी संख्या में नज़र नहीं आती।

एडिटर्स नोट: जाति की परतें हमेशा महिलाओं के संघर्षों को कई गुना ज़्यादा बढ़ाने का काम करती हैं। जब बात युवा महिलाओं की आती है तो उनके संघर्ष को उजागर करने का कोई स्पेस नहीं होता। ग्रामीण उत्तर भारत के हाशियेबद्ध मुसहर समुदाय की युवा महिलाओं के संघर्ष को उजागर करने की दिशा में है ‘हाशिये की कहानियां अभियान एक पहल है। इसका उद्देश्य ग्रामीण युवा महिलाओं की उन युवा महिलाओं की कहानियों को सामने लाना है, जिनकी तरफ़ अक्सर मुख्यधारा का रुख़ उदासीन होने लगता है। इसी पहल में यह चौथी कहानी है करिश्मा की। यह लेख स्वाती सिंह ने द रेड डोर एवं क्रिया संस्था द्वारा संचालित यंग विमेन लीडर फ़ेलोशिप के तहत लिखा है।

साल 2020 में बीबीसी की तरफ़ से ज़ारी एक रिपोर्ट के अनुसार, जेंडर आधारित भेदभाव के चलते 42%  पुरुष किसी भी तरह के खेल से जुड़े होते है वहीं मात्र 29% महिलाएँ ही खेल के क्षेत्र से जुड़ पाती है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से पहले बीबीसी की तरफ़ से किया गया ये रिसर्च खेल के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को लेकर कई तथ्य को सामने रखता है, जिसके अंतर्गत 14 राज्यों के 10,181  उत्तरदाताओं के साथ यह रिसर्च किया गया, जिसमें शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्र के लोग शामिल थे। रिपोर्ट के अनुसार, लोगों ने ये भी माना कि कुश्ती और बॉक्सिंग जैसे खेल महिलाओं के लिए उचित नहीं है। वहीं पीडब्लूसी की एक रिपोर्ट के अनुसार ओलंपिक खेलों में साल 2020 महिलाओं की भागीदारी 47% थी, जो बीतों सालों में अब तक का बेहतर आँकड़ा माना जा सकता है।

खेल जगत से जुड़े इन रिपोर्ट और आँकड़ों की गणित से दूर सुबह-सुबह करिश्मा ने अपनी साइकिल की धूल साफ़ करके एक़बार फिर मैदान में निकाल लिया है और अब वो निकल पड़ी है पास के गाँव की लड़कियों को खेल से जोड़ने की दिशा में अपनी अगली क्लास की ओर। उन्नीस साल की करिश्मा अपनी बस्ती की पहली लड़की है जो खेल की दिशा में आगे बढ़ रही है। चार साल पहले करिश्मा की शादी तय कर दी गई थी।

मुसहर समुदाय में लड़कियों की शादी चौदह-पंद्रह साल में करना आज भी आम माना जाता है और इसी आम चलन के तहत करिश्मा की शादी भी तय की गयी थी, लेकिन स्कूल की दहलीज़ से दूर अपनी बस्ती में चलने वाली पाठशाला से जुड़कर करिश्मा ने अपने नाम लिखने से पहले ये सीख लिया था कि ‘कम उम्र ने शादी अपराध है।‘ और इसी सीख को आधार बनाकर करिश्मा ने मज़बूती से अपने साथ होने वाले बाल-विवाह का विरोध किया। उस बस्ती का ये पहला विरोध था, जब कोई लड़की मज़बूती से अपने फ़ैसले पर अड़ी थी कि ‘मै किसी भी हाल में शादी नहीं करूँगीं।‘ फिर क्या था बदलाव के लिए पहली पहल की ज़रूरत होती है और करिश्मा उस पहली पहल की सूत्रधार बनी।

शादी से बचने के लिए करिश्मा ने चुना ‘खेल’

करिश्मा की ज़िद्द के बाद उसकी शादी रोक दी गई और फिर उसने अपनी पढ़ाई शुरू, लेकिन अब सभी को पढ़ाई में मन लगे ये ज़रूरी तो नहीं है न, क्योंकि आगे बढ़ने के लिए इरादे मायने रखते है, ज़रिये नहीं। इसलिए करिश्मा ने पढ़ाई की बजाय खुद के लिए खेल का ज़रिया चुना। कबड्डी और खो-खो करिश्मा का पसंदीदा खेल है। खेल इस चुनाव को लेकर जब मैंने करिश्मा से बात की तो उसने बताया, “हम कभी स्कूल नहीं गए। क्योंकि स्कूल जाने या पढ़ने का कभी मौक़ा ही नहीं दिया गया।”

जब हम खेल जगत में महिलाओं की भागीदारी को तलाशने की कोशिश करने है तो इससे जुड़ी कई रिपोर्ट सामने आती हैं। लेकिन जैसे ही हम इन रिपोर्ट को जाति के लेंस से देखने की कोशिश करते हैं और हाशियेबद्ध समुदाय की महिलाओं और किशोरियों की खेल जगह में भागीदारी को तलाशते हैं तो हमें उनकी भागीदारी उतनी बड़ी संख्या में नज़र नहीं आती।

आगे वह बताती है, “जब से होश संभाला तभी से हाथ में चूल्हा-चौका और घरेलू काम का ज़िम्मा सौंप दिया गया। मेरे परिवार में क्या मेरी पूरी बस्ती में किसी लड़की ने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा था। क्योंकि हमारी जाति की वजह से हमलोगों को कभी स्कूल में सम्मानजनक जगह नहीं दी गयी और उस जगह को बनाना कैसे है ये भी कभी किसी ने न तो बताया और न हमलोगों ने कोशिश की। इसलिए शुरुआती दौर से पढ़ाई से दूर रहने की वजह से चाहते हुए कि मेरा मन नहीं लगा पढ़ाई। जब शादी की बात तेज हो गयी तब सोचा कि शादी को अगर मना करूँगी तो इसकी जगह पर क्या करना है ये बताना होगा, इसलिए हमने बस्ती में चलने वाली पाठशाला से जुड़कर पढ़ने का इरादा बता दिया।”

जब मैंने बस्ती में पढ़ना शुरू किया तो देखा कि अभी भी मेरे ऊपर से काम का बोझ कम नहीं हुआ। पढ़ते वक्त भी अगर किसी कोई काम की ज़रूरत होती तो तुरंत बुला लेता और शादी को माना करने के बाद से मेरे ऊपर ख़ूब सारी पाबंदी भी बढ़ गयी थी। ये सब मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं आ रहा था और फिर एक समय के बाद ये महसूस होने लगा कि ये पाबंदी और दबाव भी एक तरह से परिवार व समाज की साज़िश है, मेरे सामने शादी का एक विकल्प रखने की। इसलिए मैंने खेल को चुना कि मैं खेल से जुड़ूँगी तो शादी के रिश्ते तलाशने में दिक़्क़त आएगी और मुझे आगे बढ़ने का और मौक़ा मिलेगा।‘

बाल विवाह से बचने के लिए करिश्मा ने खेल का चुनाव किया। उसने ये चुनाव अपने समाज के लोगों को ये संदेश देने के लिए किया था कि ‘ये लड़की खेलती है। इसलिए घर के कामकाज नहीं करेगी।‘ जिससे उसकी शादी के लिए रिश्ते नहीं आएँगें। लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे गतिशील और आगे बढ़ती करिश्मा ने अब साइकिल चलाना सीख लिया है और एक स्वयंसेवी संस्था के साथ जुड़कर वो अपनी जैसे अन्य मुसहर और हाशिएबद्ध समुदाय की किशोरियों को बाल-विवाह और जेंडर आधारित हिंसा को चुनौती देने की दिशा में खेल के माध्यम से उनके नेतृत्व विकास के लिए काम कर रही है।

करिश्मा मौजूदा समय से पचास से अधिक लड़कियों के साथ कबड्डी, खो-खो और हूलाहुप जैसे अलग-अलग खेल के माध्यम से उनकी गतिशीलता, आत्मविश्वास और नेतृत्व विकास की दिशा में काम कर रही है, जो अब उसकी पहचान बन चुका है। बेशक करिश्मा ने इस चुनाव को बाल-विवाह से बचने के एक ज़रिए के रूप में चुना, लेकिन बस्ती की पहली पहल का ये कारवाँ अब तमाम बस्तियों की किशोरियों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन चुका है, जिसमें लड़कियाँ न केवल जेंडर आधारित हिंसा को चुनौती दे रही है, बल्कि अपने अधिकार और यौनिकता से जुड़े मुद्दे पर मुखर भी हो रही है।

सदियों के चलन को तोड़ समाज को बदलता करिश्मा का खेल

साल 2011 की ज़नगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मुसहर समुदाय की ज़नसंख्या क़रीब 250,000 है। इन आंकड़ों के अनुसार मुसहर समुदाय में कुल साक्षरता 7500 यानी 3 प्रतिशत है और वहीं महिलाओं में साक्षरता  का स्तर 2500 यानी कि 1 प्रतिशत है। यानी कि मुसहर समुदाय में 100 में से मात्र 1 इंसान साक्षर है। साल 2023 में यूनिसेफ़ की रिपोर्ट  के अनुसार दुनिया की हर तीन बाल वधू में एक भारत से है और वहीं भारत में सबसे ज़्यादा बाल वधू उत्तर प्रदेश में है जो 34% है।  इन बाल वधुओं में अधिकतर बाल वधू मुसहर समुदाय से होती है।

करिश्मा की ज़िद्द के बाद उसकी शादी रोक दी गई और फिर उसने अपनी पढ़ाई शुरू, लेकिन अब सभी को पढ़ाई में मन लगे ये ज़रूरी तो नहीं है न, क्योंकि आगे बढ़ने के लिए इरादे मायने रखते है, ज़रिये नहीं। इसलिए करिश्मा ने पढ़ाई की बजाय खुद के लिए खेल का ज़रिया चुना।

ये आंकड़े मुसहर समुदाय की स्थिति को बताने के लिए काफ़ी है। वहीं दूसरी तरफ़ जब हम भारत में खेल के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का स्तर देखते है तो वो आज भी आधुनिकता के दौर में आगे बढ़ते भारत की सीमित तस्वीर को सामने रखते है, जहां महिलाओं का खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ पाना किसी चुनौती से कम नही है। इस क्रम में जब हम खेल जगत में महिलाओं की भागीदारी को तलाशने की कोशिश करने है तो इससे जुड़ी कई रिपोर्ट सामने आती हैं। लेकिन जैसे ही हम इन रिपोर्ट को जाति के लेंस से देखने की कोशिश करते हैं और हाशियेबद्ध समुदाय की महिलाओं और किशोरियों की खेल जगह में भागीदारी को तलाशते हैं तो हमें उनकी भागीदारी उतनी बड़ी संख्या में नज़र नहीं आती।

जिस पल हम समानता की बात करते है और आंकड़ों में महिला-पुरुष के समान आंकड़ों की जद्दोजहद में लगे होते है, ठीक उसी पल हमें समता के दृष्टिकोण को भी अपनाने की ज़रूरत है और ये समझना ज़रूरी हो जाता है कि समाज में सभी महिलाओं की स्थिति समान नहीं है, जाति, वर्ग, धर्म, भूगोल और अलग-अलग मायनों पर उन्हें हर बार अवसर से दूर होना पड़ जाता है। ऐसे में जब तक हम समता के दृष्टिकोण से इन पहलुओं को नहीं देखेंगे तब तक करिश्मा जैसी लड़कियों का खेल के मैदान में आना शुरू कोई साधारण और कुछ समय के बाद उनका वापस चले जाना लाज़मी लगेगा। इन सबके बीच करिश्मा जैसी लड़कियों का अपने समुदाय के सदियों से चले आ रहे चलन को चुनौती देकर आगे बढ़ने का सफ़र अपने आप में पहली की सशक्त पहल बन चुका है, जो समाज के खेल को बदल रही है।


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