संस्कृतिसिनेमा कटहल: छिछलेपन में सिमटी एक व्यंग्यात्मक पेशकश

कटहल: छिछलेपन में सिमटी एक व्यंग्यात्मक पेशकश

अगर इतने सारे मुद्दों पर काम करने के बजाय किन्हीं एक दो पर ही विस्तार से पेशकश की जाती तो शायद फिल्म बेहतर होती। शुरुआत, मध्य और अंत में एक साथ ध्यान दिया जाए तो कोई एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं जिससे हास्य तो पैदा होता है पर सोच में स्पष्टता नहीं दिखती।

बॉलीवुड में जब कभी ऐसी फिल्में बनी है जो किसी जाति, धर्म या जगह के संघर्षों का बखान करें तो अक्सर उसे व्यंग्य क्षणिकाओं में प्रस्तुत किया गया है। ऐसी फिल्में आती हैं सरकार या समाज पर कटाक्ष धरने पर खुद कटाक्ष पाकर रह जाती हैं। कारण है गहरी समझ और संवेदनात्मक कृत्यों पर काम करने के बजाय इन मुद्दों को सिर्फ हल्के-फुल्के चुटकुलों के सहारे व्यंग्य का रूप दे देना। ओटीटी प्लैटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘कटहल-ए जैकफ्रूट मिस्ट्री’ कुछ मायनों में एक ऐसी ही है।

ख़ैर, कहानी शुरू होती है एक वांछित अपराधी को पकड़ने में सफल होने से। महिमा बसोर (सान्या मल्होत्रा) मुख्य भूमिका में है और मोबा नाम के एक छोटे से शहर में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत है। अपराधी को हिरासत में लेने के तुरंत बाद ख़बर आती है कि शहर के विधायक के बगीचे से दो कटहल गायब हो गए हैं। अब पूरी पुलिस फोर्स को उसे ढूंढने में लगा दिया जाता है। केस को लीड करने का दायित्व महिमा बसोर के मत्थे मढ़ दिया जाता है क्योंकि महिमा काबिल है। दिखाया जाता है कि अगर वह एक प्रमुख स्थानीय अपराधी को पकड़ सकती है वह एक ‘जोड़ी कटहल’ तो आराम से ढूंढ सकती है।

कटहल की चोरी संगीन है क्योंकि विधायक के घर से हुई है। आगे छानबीन शुरू होती है। शक विधायक के बगीचे में काम करनेवाले माली पर जाता है क्योंकि वह दो दिनों से गायब है। पता चलता है कि माली खुद परेशान है अपनी अठारह साल की बेटी ‘अमिया’ के लापता होने से। अमिया के लापता होने की बात को ध्यान में रखते हुए महिमा अब उसे ढूंढने में लग जाती है। हालांकि, प्राथमिकता कटहल को देना ज़रूरी होती है। इससे बचने के लिए महिमा ऐसा दावा पेश करती है कि ‘कटहल’ की चोरी अमिया ने ही की है और कटहल पाने के लिए अमिया का मिलना ज़रूरी है।

अमिया के लापता होने की ख़बर से जब महिमा लापता लड़कियों की फाइल खंगालती है तो पाती है कि शहर से अमिया जैसी कई लड़कियां लापता रही हैं जिनकी खोज-खबर करने की ज़िम्मेदारी से पुलिस अब तक दूर है। लापता लड़कियों को ढूंढने से ज्यादा ज़रूरी सिस्टम में विधायक के घर से लापता ‘कटहल’ ढूंढना है। 

फिल्म में एक गाना है जिसके सहारे इस वाकये को ठीक तरह से समझा जा सकता है। गाना है, “ मथुरा में रहना है तो राधे राधे कहना है।” गाने के बोल में साफ़ झलकता है कि कैसे पुलिस बल की हालत कमज़ोर है और उन्हें वरिष्ठ अधिकारियों की इच्छाओं का पालन करना ही पड़ता है। जब कटहल चोरी को एक गैरज़रूरी मसला बोलने की हिम्मत करती महिमा को बदले में ‘प्लीज़ कॉपरेट’ सुनने को मिलता है तो उसकी और पूरी पुलिस बल की मजबूरी का इकट्ठा दृश्य दिखता है। वहीं दूसरी तरफ महिमा कटहल को ढूंढ निकालने के बदले सौरभ का प्रमोशन चाहती है जिससे उन दोनों के बीच का अंतर कम हो जाए और सौरभ का परिवार महिमा को अपना लें। यहां महिमा के मजबूत किरदार को समेटने की कोशिश दिखती है। उसके पूरे काम के लक्ष्य को बस यही बता दिया जाता है।

कटहल चोरी की जांच को गुमराह करने के बावजूद, महिमा को अदालत में कोई सज़ा नहीं मिलती है। इसके बजाय उसकी इसके लिए उसकी सराहना की जाती है जिसका मलतब है कि न्यायिक प्रक्रिया आपके हाशिए पर होने के बावजूद आपके नेक फैसलों के पक्ष में होगी जो कि दर्शकों में सिर्फ एक भ्रम पैदा करती है। महिमा के नेक इरादों और अमिया को सही सलामत ढूंढने के सम्मान में उसे डीएसपी नियुक्त किया जाता है और साथ ही उसके आग्रह के अनुसार सौरभ का भी प्रोमेशन किया जाता है। कटहल की असल चोरी किसने की है ये फिल्म के पोस्ट क्रेडिट सीन में दिखाया गया है जिसे देख पूरे फिल्म का रिमाइंडर अचानक से आंखों के सामने हो आता है और एक धीमा हास्य छूटता है।

बॉलीवुड में जब कभी ऐसी फिल्में बनी है जो किसी जाति, धर्म या जगह के संघर्षों का बखान करें तो अक्सर उसे व्यंग्य क्षणिकाओं में प्रस्तुत किया गया है। ऐसी फिल्में आती हैं सरकार या समाज पर कटाक्ष धरने पर खुद कटाक्ष पाकर रह जाती है। कारण है गहरी समझ और संवेदनात्मक कृत्यों पर काम करने के बजाय इसे सिर्फ हल्के-फुल्के चुटकुलों के सहारे व्यंग्य का रूप दे देना।

फिल्म के कुछ हिस्से जो व्यंग्य करने में सफल हुए एक दफा महिमा विधायक और परिवार जनों से कटहल की चोरी के बारे में पूछ-ताछ कर रही होती है कि अचानक उसे पिछे हटने को कह दिया जाता है। पता चलता है कि वह विधायक के महंगे कालीन पर खड़ी है। उसके वहां से बाहर निकलने के बाद विधायक अपनी पत्नी को उस जगह पर गंगा जल छींटने को कहता है। ज़ाहिर है कि उन्हें महिमा की जाति से आपत्ति है। 

फिल्म में सौरभ द्विवेदी नाम का एक किरदार है जो कॉन्स्टेबल के पद पर है। सौरभ और महिमा एक दूसरे से प्रेम करते हैं। द्विवेदी के पिता इस रिश्ते से नाखुश हैं और इसके सख़्त खिलाफ़ हैं। फिर से, महिमा की जाति उसकी काबिलियत पर हावी है। साथ ही महिमा का पद सौरभ से ऊंचा है जिससे भी पितृसत्ता आहात है क्योंकि लोग एक ऐसी महिला से बैर रखते हैं जो उसने अधिक आगे हो। 

तस्वीर साभार: The Scroll

अमिया की छानबीन के दौरान एक व्यक्ति अमिया के जाति और पहनावे से उसके चरित्र का हिसाब करता दिखता है और कहता है कि उसकी जैसी जाति के लोगों का पेट तो चोरी करके ही भरता है जिसके जवाब में महिमा अपनी जाति के प्रमाण में अपना पूरा नाम बताती है और कहती है कि वह चोरी नहीं करती उल्टा चोरों को जेल भेजती है। 

फिल्म बार-बार अपने बहाव से डगमगाती हुई दिखती है। हर कुछ समय में मुद्दों का बदल जाना, भावनाओं का सही से खिंचाव न होना, बड़े और ज़रूरी मुद्दों को हल्के में प्रस्तुत करना, एक साथ कई तरह के भावों का मिश्रण जैसे कामों से प्रस्तुति की समझ में कमी दिखती है।

फिल्म के एक किरदार का कहना है कि कहने को तो पुलिस इंडियन पीनल कोड को फॉलो करती है पर काम उन्हें इंडियन पॉलिटिकल कोड का करना पड़ता है। माने कि देश के मंत्रियों का दबदबा पुलिस से अधिक है और पुलिस पर भी बना हुआ है। मौजूदा क्षमता को दरकिनार कर उन्हें विधायक, मंत्रियों और यहां तक कि मंत्रियों से संबंध रखने वाले लोगों के लिए समर्पण को तैयार रहना होता है। 

ज़रूरत थी मुद्दों को अधिक समझ और संवेदनात्मक तरीके से पेश करने की

सबसे पहले तो फिल्म बार-बार अपने बहाव से डगमगाती हुई दिखती है। हर कुछ समय में मुद्दों का बदल जाना, भावनाओं का सही से खिंचाव न होना, बड़े और ज़रूरी मुद्दों को हल्के में प्रस्तुत करना, एक साथ कई तरह के भावों का मिश्रण जैसे कामों से प्रस्तुति की समझ में कमी दिखती है। फिल्म में एक नहीं बल्कि कई छोटे बड़े मुद्दों को शामिल किया गया है जिनमें से जेंडर के आधार पर भेदभाव, जाति के आधार पर लोगों की अवधारणा, महिलाओं का पुरुषों से ऊंचे पद पर होने पर किसी की प्रतिक्रिया, पुलिस बल की ताकत और मजबूरी पर व्यंग्य, अधिकारियों का दबदबा, मीडिया की समाज में स्थिति, लड़कियों के पहनावे से उसके चरित्र का आंकलन पर खासा गौर किया गया है।

लेकिन अगर इतने सारे मुद्दों पर काम करने के बजाय किन्हीं एक दो पर ही विस्तार से पेशकश की जाती तो शायद फिल्म बेहतर होती। शुरुआत, मध्य और अंत में एक साथ ध्यान दिया जाए तो कोई एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं जिससे हास्य तो पैदा होता है पर सोच में स्पष्टता नहीं दिखती। सान्या मल्होत्रा का फिल्म में अभिनय काफ़ी सराहनीय दिखता है। फिल्म दंगल में बबिता के किरदार के बाद सान्या के अभिनय में प्रगति साफ झलकती है। उनका अभिनय और डायलॉग डिलीवरी का तरीका सटीक है जो दर्शकों को फिल्म की तरफ आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।

कटहल चोरी की जांच को गुमराह करने के बावजूद, महिमा को अदालत में कोई सज़ा नहीं मिलती है। इसके बजाय उसकी इसके लिए उसकी सराहना की जाती है जिसका मलतब है कि न्यायिक प्रक्रिया आपके हाशिए पर होने के बावजूद आपके नेक फैसलों के पक्ष में होगी जो कि दर्शकों में सिर्फ एक भ्रम पैदा करती है।

फिल्म में हाशिये के लोगों के प्रति तथाकथित उच्च जाति के लोगों का व्यवहार भी स्पष्ट दिखता है। विधायक और उसकी पत्नी का महिमा को तुच्छ समझना, चोरी का इल्ज़ाम माली के ऊपर आना, अमिया को फटी हुई जींस पहनने और मधुश्री तंबाकू खाने के वजह से “हाथ से निकली हुई लड़की” या बिगड़ी हुई होना कहना। माली के बार-बार विनती करने पर भी उसकी बेटी की लापता होने की सूचना को नज़रंदाज़ करना जैसे और भी वाकिये हुए जो सही सही दिखा। 

अगर बात व्यंग्य की हो तो फिल्म इसमें असफल रही क्योंकि अपने मूल इरादे के आड़ में तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों के लिए एक मनोरंजन का माध्यम बनना सफलता का हिस्सा नहीं है। भ्रष्ट व्यवस्था पर व्यंग्य कर पाने की क्षमता फिल्म में कम है। हल्के मनोरंजन के लिए फिल्म देखी जा सकती है। 


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