इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत दो बीघा ज़मीन: आखिर फ़िल्म की प्रासंगिकता खत्म क्यों नहीं हो रही है?

दो बीघा ज़मीन: आखिर फ़िल्म की प्रासंगिकता खत्म क्यों नहीं हो रही है?

सारे संसाधन पूंजी से संचालित होंगे और जिनके पास पूंजी न होगी उनको सांस लेना भी दुर्लभ होगा। इसी फिल्म से एक सवांद जो आने वाले समय की भयावहता को जिस तरह से भांप रहा है वह अनूठा है। शंभु कहता है "शहर में तो बिना पैसे के सांस भी नहीं ली जा सकती। ये बात ध्यान देने की कि आज से कितने साल पहले कलकत्ता महानगर को लेकर ये बात कही गई थी और आज ये क्रूर यथार्थ कितना विस्तृत हो चुका है हम सब देख रहे हैं।

बड़ी बड़ी कोठिया सजावे पूंजीपतिया
दुखिया के रोटिया चोराई ,चोराई
अपनी महलिया में करे उजियारिया
बिजली के रडवा जराई,जराई…!

आज़ादी के बाद जब देश की सामंती व्यवस्था महाजनी व्यवस्था में बदल रही थी उसी समय नये भारत के बनने के स्वप्न के यथार्थ पर पूंजी और सत्ता के गठजोड़ को आइना दिखाते हुए लोककवि जुमई खान ने ये गीत लिखा था। यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है और दुखिया-सुखिया की युगों से चली आ रही देश- समाज में वह लड़ाई लड़ी जा रही है ।लेकिन इन गीतों को सुनते हुए एक सवाल मन में स्वाभाविक ही उठता है कि राज्य की भूमिका पर जो सवाल होने चाहिए थे। जो सबसे जरूरी थे वे न फिल्मों में उठ सके न गीतों में। क्या राज्य की ये संप्रभुता से भक्ति थी या राज्य के अपने बनाए दंड का डर जो भी हो पर सबसे ऊपर बैठे लोग फिल्मों में हमेशा बच जाते हैं।

आज़ादी के छह साल बाद बनी फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ जहां से शुरू होती है वह एक सामंती समाज की सोच में ढला समाज है। इसकी चेतना पाठशाला के मास्टर की गाय ढूंढना, बच्चों की शिक्षा से कहीं ज़रूरी काम है। फ़िल्म का नायक अपनी पत्नी पार्वती के साथ खेत के मेड़ पर बैठा है। उसका आठ नौ साल का बेटा कन्हैया दौड़कर पास आता है नायक कहता है पाठशाला से भाग आया है। बच्चा कहता है कि मास्टर जी की गाय खो गई है इसलिए स्कूल की छुट्टी हो गई। मास्टर साहब गाय ढूंढने गए। नायक कहता है तो तुम यहां क्यों आ गए, मास्टर साहब के पीछे जाते उनकी गाय ढूंढने में मदद करते। यह कोई सामान्य दृष्य नहीं है। पूरी तरह सामंती और गैरबराबरी के समाज का आईना है। जिस तरह नायक बच्चे को मास्टर की गाय ढूंढने को कह रहा है वह सर्वहारा समाज का चरित्र है क्योंकि ये पूरा ढांचा उनको यही सिखाता है।

यह वह समय है जब आज़ादी के बाद देश की प्रगति के लिए उद्योगों की स्थापना को ज़रूरी समझा जा रहा था। लेकिन इस तरह की फ़िल्म बताती है कि उस समय ऐसी दृष्टि थी विकास के भ्रम में विनाश के खतरों को देख रही थी। बाज़ार की प्रकृति को हर चिंतनशील मनुष्य समझता है। फ़िल्म दो बीघा जमीन जब बनी तो वह समय देश का चिंतन प्रगतिशील विचार धारा के उत्कर्ष का था। एक आधुनिक समाज के स्वप्न का आदर्श दिलों में जन्मा था कि किसान को ज़मींदार से और शहर को पूंजीपति, बनिया और साहुकार से मुक्ति चाहिए। समाज का शोषित वर्ग उसी धरातल पर था जहां देश आज़ाद होने के पहले था। आज़ादी के बाद नेहरू के नये भारत के स्वप्न के यथार्थ को ये फ़िल्म भारतीय समाज को दिखाती समझाती नज़र आती है लेकिन एक ज़रूरी चीज़ छूट रही थी सीधे-सीधे राज्य की नियति के दोष को रेखांकित नहीं करती कि देश के अतिऔद्योगिकरण का कारण राज्य का मिजाज है न कि आधुनिक समय।

फिल्म में दिखाई गई छोटे किसानों की त्रासदी जाने कब से चल रही है जो आज तक खत्म नहीं हुई। छोटे किसान अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं लेकिन इस व्यवस्था में बने रहने के लिए उनकी जमीन आखिरकार उनसे छीन ली जाती है और वे मजदूर बन जाते हैं।

फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है कि शंभू गाँव में किसान है। परिवार में पत्नी पार्वती और एक बेटा कन्हैया है। उसका पिता गंगू बीमार है। गाँव में एक क्रूर ज़मींदार हरनाम सिंह है। वह समय है गाँव में भयंकर सूखा पड़ा है। हरनाम मोटी रकम कमाने के चक्कर में गांव में फैक्ट्री लगाना चाहता है। इसके लिए किसान की ज़मीन चाहिए। उसकी निगाह शंभू की दो बीघा ज़मीन पर है। गाँव के अन्य किसानों को विश्वास है कि शंभू अपनी ज़मीन नहीं बेचेगा तो गाँव में खेती की जमीन पर मिल नहीं बनेगा।उसे विश्वास है कि शंभू मान जाएगा। लेकिन वह मना कर देता है। तब हरनाम ने शंभू को धमकाने की गरज़ से उसके नाम पैंसठ रूपए का कोई पुराना कर्ज़ निकाल दिया कर्ज़ चुकाओ या ज़मीन बेचो। शंभू पत्नी के ज़ेवर बेच जैसे-तैसे पैसा जोड़कर क़र्ज़ चुकाई के नाम पर हरनाम को देता है। लेकिन ज़मींदार बताता है कि ब्याज सहित कुल रकम दो सौ चौंसठ रूपए है। शंभू अवाक रह जाता है। वह कोर्ट की शरण लेता है लेकिन जैसा कि होता आ रहा है सत्ता सबको नियंत्रित करती है, हरनाम यहां भी छल करके फैसला अपने हक़ में करवा लेता है। स्थिति ऐसी आ जाती है कि तीन महीने में कर्ज चुकाओ या ज़मीन बेचो अब शंभू के सामने एक ही विकल्प है- कलकत्ता जाकर रुपये कमाना।

कलकत्ता महानगर आकर शंभू को पता चलता है कि वहां समस्याओं का लम्बा सिलसिला है यहां एक नहीं कई लुटेरे हैं उसका सामान चोरी हो जाता है लेकिन कुछ भले लोग टकराते हैं बाप-बेटा उनकी मदद से काम शुरू करते हैं। कन्हैया बूट-पालिश करता है और शंभू हाथे ठेले रिक्शा यानी हाथ से ठेलने वाला रिक्शा चलाने लगता है दोनों खूब मेहनत करते हैं  एक दिन एक शंभू ज्यादा भाड़े के चक्कर  में रिक्शा बहुत तेज चलाता है और उसका एक्सीडेंट हो जाता है इधर गांव में उसकी पत्नी को शंभू के एक्सीडेंट की खबर मिलती है। वह बीमार ससुर गंगू को पड़ोसी के भरोसे छोड़ कर कलकत्ता जाती है। इधर कन्हैया पिता की मदद के लिए चोरी करता है और पकड़ा जाता है। अंत का दृष्य बेहद मार्मिक और पूंजी की क्रूरता को उजागर करता है शंभू और पारो वापस गांव जाते हैं उनकी ज़मीन पर हरनाम कब्ज़ा करके फैक्ट्री का निर्माण शुरू कर चुका है शंभू अपने खेत से एक मुठ्ठी माटी लेना चाहता है लेकिन सुरक्षा कर्मी उसे ऐसा नहीं करने देते हताश और दुखी शंभू और पारो वहां से चल देते हैं। 

फ़िल्म दो बीघा जमीन जब बनी तो वह समय देश का चिंतन प्रगतिशील विचार धारा के उत्कर्ष का था। एक आधुनिक समाज के स्वप्न का आदर्श दिलों में जन्मा था कि किसान को ज़मींदार से और शहर को पूंजीपति, बनिया और साहुकार से मुक्ति चाहिए। समाज का शोषित वर्ग उसी धरातल पर था जहां देश आज़ाद होने के पहले था।

खेत जब उजड़ते हैं तो एक भयावह वीरानी वातावरण में दिखाई देती है इस फ़िल्म के अंत के दृष्य में शम्भू अपने पत्नी और बच्चे के साथ जब गाँव पहुंचता है तो उसके खेत की जगह फैक्ट्री की चिमनी से धुआं निकल रहा होता है। वह ख़ामोश देखता रह जाता है इस दृष्य मे बाजार का प्रकृति को नष्ट करने का गहरा संकेत सा दिखता है। फ़िल्म का अंत वहीं हो जाता है जहां प्रेमचंद की कहानी पूस की रात में होता है कि किसान हल्कू अंत मे किसान से मजदूर बन जाता है। फिल्म में दिखाई गई छोटे किसानों की त्रासदी जाने कब से चल रही है जो आज तक खत्म नहीं हुई। छोटे किसान अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं लेकिन इस व्यवस्था में बने रहने के लिए उनकी जमीन आखिरकार उनसे छीन ली जाती है और वे मजदूर बन जाते हैं।

फ़िल्म में जो विडम्बनाएं हैं वह आजतक समाज में थोड़े बहुत बदलाव से चल रही है कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाया। आज भी स्त्री और हाशिये के समाज की स्थिति बदल नहीं पायी फ़िल्म का ही दृष्य है जिसमें नायक शम्भू अपनी पत्नी पार्वती को दुलार रहा है और उसके साथ के लोगों अचरज़ है कि विवाह के इतने साल बाद भी वह पत्नी को प्यार क्यों करता है ये सोच भी सामन्ती समाज ढांचे में ढली मर्दवादी सोच की देन हैं जहां स्त्री मनुष्य न होकर सामान है और सामान का पुराना होना उसकी उपयोगिता को नष्ट कर देता है। और आगे जब खेती की जमीन पर मिल बनने की बात आती है तो यही सामंत और पूंजी में भाईचारा हो जाता है। उन्हें लगता है ज़ंमीदारी नहीं रहेगी तो इंड्रस्टी उनकी आधुनिक ज़ंमीदारी होगी। फ़िल्म में कई सवाल उठते हैं लेकिन फ़िल्म कोई ठोस जवाब देती नज़र नहीं आती। आखिर किसान की ज़मीन कौन छीन रहा है पूंजीसत्ता या राज्यसत्ता। आखिरकार फ़िल्म उद्योगीकरण से जुड़ी इन समस्याओं का ऐसा कोई हल नहीं सुझाती जो उद्योगीकरण के विरुद्ध हो या नयी तकनीक को अस्वीकार करती हो। 

जिस दौर में ये फ़िल्में बनीं, उस दौर में इन समस्याओं का उठना बहुत स्वाभाविक है, लेकिन उनका ऐसा हल पेश करना मुमकिन नहीं था जो राष्ट्रीय विकास की सामूहिक इच्छा के विरुद्ध जाता हो। उस समय इस तरह की फ़िल्में इस बात की गवाह है कि आज़ादी के बाद के पहले दशक में ही ऐसे फ़िल्मकार थे जो अपने समाज के बदलाव के प्रति न केवल सजग थे, बल्कि उसे एक आलोचनात्मक नज़रिए से भी देख रहे थे। उनकी दृष्टि बहुत गहरी और दूरदर्शी थी। वे आज़ाद देश की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा से परिचित भी थे। समाज में वर्ग की पुरानी खाई पाटने की ये पहल नहीं थी बल्कि नयी बड़ी खाई बनने की दिशा देख पा रहे थे।

फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ देखते हुए कई प्रश्न उठते हैं और एक द्वंद्व रचते हैं मन में फ़िल्म का नायक शंभु महतो दो बीघा ज़मीन का मालिक है लेकिन वह ज़मीन गांव के जमींदार के पास गिरवी रखी हुई है। हर साल ब्याज चुकाने के बावजूद न मूल चुका है और न ब्याज। अब ज़मींदार उस ज़मीन को हड़पना चाहता है, लेकिन ऐसा वह तभी कर सकता है जब शंभु महतो कर्ज न चुकाये। ज़मींदार उसे कर्ज चुकाने के लिए थोड़ी मोहलत देता है। शंभु जानता है कि गांव में किसानी से या मज़दूरी से कर्ज नहीं चुका सकता इसलिए वह कलकत्ता शहर आ जाता है और वहां रिक्शा चलाता है और तब वह देखता है कि छोटे नर्क से निकल कर बड़े नर्क में आ गया है। 

उस समय इस तरह की फ़िल्में इस बात की गवाह है कि आज़ादी के बाद के पहले दशक में ही ऐसे फ़िल्मकार थे जो अपने समाज के बदलाव के प्रति न केवल सजग थे, बल्कि उसे एक आलोचनात्मक नज़रिए से भी देख रहे थे।

सारे संसाधन पूंजी से संचालित होंगे और जिनके पास पूंजी न होगी उनको सांस लेना भी दुर्लभ होगा। इसी फिल्म से एक सवांद जो आने वाले समय की भयावहता को जिस तरह से भांप रहा है वह अनूठा है। शंभु कहता है “शहर में तो बिना पैसे के सांस भी नहीं ली जा सकती। ये बात ध्यान देने की कि आज से कितने साल पहले कलकत्ता महानगर को लेकर ये बात कही गई थी और आज ये क्रूर यथार्थ कितना विस्तृत हो चुका है हम सब देख रहे हैं।

शहर में पहुंचकर शंभु देखता है यहां तो कोई कहीं आने जाने के लिए पल भर रास्ता बताने तक को तैयार नहीं।  भखा रहकर, जी तोड़ मेहनत करके भी वह पैसे नहीं जुटा पाता। इस दौरान वह दुर्घटना का शिकार भी हो जाता है। इस तरह उसकी ज़मीन कर्ज न चुका पाने के कारण उससे छीन ली जाती है और उस पर एक फैक्ट्री खड़ी हो जाती है। सारी त्रासदी और व्यथा को कहते हुए भी फ़िल्म वह बात नहीं बताती कि आखिर क्या होना चाहिए। कौन सा रास्ता इस बर्बादी से किसानों को बचा सकता है। फ़िल्म का यह अंत इस सत्य को स्थापित करता है कि उद्योगीकरण समय का एक ज़रूरी सच है। उद्योगीकरण के कारण किसानों को भी बर्बाद होने से नहीं रोका जा सकता। आधुनिक दृष्टि और राज्य व्यवस्था के पास क्या और कोई रास्ता नहीं है किसानों के अस्तित्व को बचाने का सिवाय इसके कि किसान को आखिरकार मिल फैक्ट्री में मजदूर की मजदूरी करनी होगी। इसी तरह के सवाल और उदासी के साथ फ़िल्म खत्म होती है।


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