‘एज इज़ जस्ट अ नंबर!’ दुनियाभर में मशहूर यह लाइन उम्र को रुकावट माननेवाली सोच को चुनौती देती है। बढ़ती उम्र में चुनौतियों को पूरा करते लोगों की उपलब्धि को दिखाने के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल होता है। लेकिन इस वास्तविकता को भी नहीं नकारा जा सकता है कि हमारे समाज में उम्र के आधार पर भेदभाव भी किया जाता है और यह भेदभाव बढ़ती उम्र और लैंगिक पहचान के साथ और अधिक बढ़ता चला जाता है। समाज में लैंगिक आधार पर होने भेदभाव की वजह से हाशिये पर रहने को मजबूर महिलाओं को उम्र के आधार पर भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं पर सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक तौर पर अनेक तरह की पाबंदियां लगाई जाती हैं। इस वजह से वे दैनिक जीवन की छोटी से छोटी ज़रूरतों के लिए घर के पुरुषों पर आश्रित रहती हैं। पारंपरिक परिवार के ढ़ांचे के चलते उम्र में बड़ी महिलाएं के लिए तो स्थिति बूढ़े पुरुषों के मुकाबले अधिक चुनौतिपूर्ण हो जाती है। उनपर अधिक पाबंदियां लगा दी जाती है, उनके लिए आगे बढ़ने के अवसर सीमित कर दिए जाते हैं, उन्हें घर की दीवारों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है। नौकरीपेशा महिलाओं के लिए उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव रूढ़िवादी पूर्वाग्रहों को मजबूत करता है, उनकी नौकरी की सुरक्षा और वित्तीय सुरक्षा को प्रभावित करता है क्योंकि कार्यस्थल पर उन्हें उम्र के साथ कम महत्वपूर्ण, कम सक्षम और अप्रसांगिक माना जाता है। महिलाओं को उम्र के आधार पर होने वाले भेदभाव को घर, परिवार, समुदाय, कार्यस्थल पर अलग-अलग तरीके से सामना करना पड़ता है।
उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव क्या है?
मनोवैज्ञानिक और गेरोन्टोलॉजिस्ट डॉक्टर रॉबर्ट बटलर ने 1969 में उम्र के आधार पर व्यक्ति या समूहों के ख़िलाफ़ भेदभाव का वर्णन करने के लिए एजिज़म शब्द गढ़ा था। उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव पुरुष और महिला को अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है। यूनाइटेड किंगडम में हुए एक सर्वे के अनुसार तीन में से एक व्यक्ति ने कहा था कि वृद्ध लोग अक्षम और अयोग्य है। उम्र के आधार पर होने वाला यह भेदभाव बहुत ही सूक्ष्म है। कॉनवरशेनन.कॉम में प्रकाशित लेख के अनुसार उम्र के बढ़ने के आधार पर होने वाले भेदभाव में जेंडर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लैंगिक पहचान की वजह से महिलाओं के लिए बढ़ती उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव एक दोहरी मार है। यह जॉर्ज क्लूनी प्रभाव है जिसे अर्थशास्त्री ‘अट्रेरेक्टिव पेनल्टी’ कहते है।
मनुष्य जीवन में उम्र बढ़ना तमाम तरह के अनुभव और संघर्षों के साथ समय का बदलाव है लेकिन महिलाओं के लिए यह लैंगिक पहचान और उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव है। लेखिका बोनी मार्कस उम्र बढ़ने के बारे में महिलाओं को बांधे रखने वाली धारणाओं और आशंकाओं के बारे में बात करते हुए कहती हैं, “कार्यस्थल पर अधिकतर होने वाली क्रियाएं या प्रथाएं ‘एजिस्ट असम्प्शन’ पर आधारित है। नियुक्ति की प्रक्रिया, नौकरी से निकालने की प्रक्रिया, पदोन्नति और मुआवजा के अन्तर्गत निहित नीतियां पूर्वाग्रहों पर आधारित है। महिलाएं पहले से ही अच्छे दिखने की महत्वता और बढ़ती उम्र के साथ आकर्षक नहीं है होने की एक गलत अवधारणा का सामना करती है। यह हमारे करियर पर एक पर्याप्त प्रभाव डालता है।”
बढ़ती उम्र और नौकरियों के विकल्प में कमी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की 49 वर्षीय प्रतिभा (बदला हुआ नाम) पेशे से एक टीचर रही हैं। साल 2020 में पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते उन्होंने अपनी नौकरी से ब्रेक लिया था। उसके बाद कोविड के चलते लॉकडाउन की वजह से स्कूल बंद और ऑनलाइन शिक्षा के कारण वह नई नौकरी के लिए अप्लाई नहीं कर पाई। प्रतिभा पिछले एक साल से वह नौकरी तलाश रही हैं। उनका कहना है, “मैं पिछले कुछ समय से बहुत गंभीरता से नौकरी ढूढ़ रही हूं लेकिन कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। न्यू हायरिंग में जेंडर और एजिज़म के प्वाइंट से जो आपने सवाल किया है मैं भी उस नज़रिये पिछले कुछ समय से सोच रही हूं। एक तो मुझे टीचिंग में अच्छा अनुभव है तो जाहिर कि अनुभव वाले इंसान के लिए संस्थानों को अधिक वेतन देना होता है। इस वजह से वे नये लोगों को महत्व देते हैं। दूसरा उम्र के इस दौर पर निजी कारणों से ब्रेक लेने को इंटरव्यू में जानने के बाद भी लोगों का नज़रिया बदल जाता है। उम्र के साथ स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ने को लेकर सामने वाला सोचता है कि रिटायरमेंट की उम्र की ओर बढ़ने वाले इंसान की जगह किसी नये को रखे। मुझे तो अपने केस में ऐसा ही लगता है।”
“आर्थिक निर्भरता डराती है”
मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली 54 वर्षीय अंजना भार्गव एडमिन के तौर पर काम करती हैं। बढ़ती उम्र में नौकरी और कार्यस्थल की चुनौतियों के बारे में बात करते हुए उनका कहना हैं, “मैं एक सिंगल पेरेंट हूं। पति की मृत्यु के बाद से इस घर और बच्चों को संभाल रही हूं। पूरा समय नौकरी करते हुए बीत गया है। उम्र के साथ कार्यस्थल पर चुनौतियां बढ़ती है मेरे केस में जो पहला कारण लगता है वह है टेक्नोलॉजी। यानी हम पुराने लोग टेक्नोलॉजी, नये-नये बदलावों को स्वीकार करने में नई पीढ़ी के लोगों के मुकाबले पीछे हैं। इस वजह से अक्सर ऑफिस में भी कहा जाता है कि आपके बस में ये काम नहीं है। अनुभव और पुराने समय से काम करते आने के कारण संस्थाएं आपको रखे हुए हैं। अगर सैलरी में बढ़ोत्तरी को देखे तो वह भी उस दर से बढ़ नहीं रही है तो ये सब चीजें बहुत बुरी लगती है। हमसे कम उम्र के लोगों को ज्यादा मालूम है तो केयरटेकर जैसा कह कर कई बार ऐसे महत्वहीन जैसा भी लगता है। लेकिन जीवन के इस पड़ाव पर किसी पर आर्थिक निर्भर होना डराता है इसलिए कार्यस्थल पर तमाम भेदभाव और उपहास के बावजूद काम पर लगे हुए क्योंकि इस उम्र में किसी और जगह पर नई नौकरी मिलना बहुत मुश्किल काम है।”
फोर्ब्स में छपी जानकारी के अनुसार कई यूरोपीय देशों में हुए एक सर्वे के अनुसार जेंडर एजिज़म वास्तविक है। सर्वे में शामिल 80 फीसदी लोगों का मानना है कि बढ़ती उम्र की महिलाओं को नौकरी ढूढ़ने में ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है। सर्वे में शामिल 75 फीसदी कार्यरत लोगों का कहना हैं कि लैंगिक और उम्र के आधार पर भेदभाव के उनके अनुभव को दर्ज करने पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। 70 फीसदी लोगों का कहना था कि उन्हें विश्वास था कि कार्रवाई नहीं होगी।
रिपोर्टे के अनुसार जेंडर एजिज़म के कारण रिटायरमेंट पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। 59 से 65 साल की 28 फीसदी महिलाओं का कहना हैं उनके काम जारी रखने की संभावना ‘निष्पक्ष या खराब’ थी। इसका सबसे आम कारण यह बताया गया कि उनकी कंपनियां पुराने कर्मचारियों को कम महत्व देती हैं। उम्र के आधार पर भेदभाव की वजह से अगर बढ़ती उम्र में एक बार नौकरी छूटती है तो दूसरी नौकरी मिलने की संभावना बहुत कम रहती है। यहां तक की सबसे उच्च शिक्षित महिलाएं भी इस प्रकार का अनुभव करती हैं।
प्रतिभा पिछले एक साल से वह नौकरी तलाश रही हैं। उनका कहना है, “मैं पिछले कुछ समय से बहुत गंभीरता से नौकरी ढूढ़ रही हूं लेकिन कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। न्यू हायरिंग में जेंडर और एजिज़म के प्वाइंट से जो आपने सवाल किया है मैं भी उस नज़रिये पिछले कुछ समय से सोच रही हूं। एक तो मुझे टीचिंग में अच्छा अनुभव है तो जाहिर कि अनुभव वाले इंसान के लिए संस्थानों को अधिक वेतन देना होता है। इस वजह से वे नये लोगों को महत्व देते हैं।”
लैंगिक आधार पर उम्र के बढ़ने पर होने वाला भेदभाव महिलाओं को उनके करियर के सभी चरणों में प्रभावित करता है, लेकिन विशेषरूप से 35 से कम और 50 से अधिक उम्र के समय अधिक होता है। जिस वजह से 50 वर्ष के आसपास की उम्र की महिलाओं को साइडलाइन कर दिया जाता है। एक बार नौकरी से निकलने के बाद महिलाओं को नई नौकरी मिलने में बहुत ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
कॉर्पोरेट क्षेत्र में वृद्ध महिलाओं को माना जाता है भार
एक अध्ययन के अनुसार दुनिया की लगभग 80 फीसदी महिलाएं उम्र के आधार पर होने वाले लैंगिक भेदभाव का सामना करती है। लगभग हर क्षेत्र और निकाय में महिलाएं इसका सामना करती हैं। सिनेमा जगत उम्र के आधार पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को दिखाने का सबसे सरल उदाहरण है। जैसे ही महिला कलाकारों की उम्र अधिक होती है उन्हें लीड रोल से गायब कर दिया जाता है। इसी वजह से बड़ी उम्र की भूमिकाओं में भी छोटी उम्र की महिला कलाकार निभाती दिखती है। एटरटेंटमेंंट इंडस्ट्री की यह सोच उसमें निहित स्त्रीद्वेष को जाहिर करती है।
कॉर्पोरेट क्षेत्रों में भी कई लोग सोचते हैं कि वृद्ध महिलाएं घरेलू कामों में अधिक व्यस्त रहती हैं इसलिए वे अपनी प्रोफेशनल दुनिया पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाएंगी। यह सब सोच पितृसत्ता से पोषित है क्योंकि पितृसत्तात्मक अवधारणा में महिलाओं को अधिक घरेलू जिम्मेदारियों को निभाने के लिए माना जाता हैं जबकि पुरुषों पर इस तरह का भार नहीं रहता है।
उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव महिलाओं को आगे बढ़ने से रोक रहा है बावजूद इस विषय पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। इतना ही नारीवादी आंदोलन तक में इस मुद्दे पर कम झुकाव देखा गया। 1960 के दशक में महिला आजादी आंदोलन युवा महिलाओं का वर्चस्व था। नारीवाद को भी एक युवा महिला अभिव्यक्ति के तौर पर पेश किया गया। फेमिनिस्ट कम्यूनिटी नामक वेबसाइट पर प्रकाशित लेख के अनुसार शुरुआती नारीवादी आंदोलनों तक में वृद्ध महिलाओं को शामिल नहीं किया गया। इस वजह से नारीवादी सिंद्धात अभी भी विवाह, परिवार नियोजन और पितृसत्ता में महिलाओं की स्थिति तक को नेविगेट करता है। आंदोलन में महिलाओं की जीवनशैली का प्रतिनिधित्व किया गया लेकिन उनमें वृद्ध महिलाएं का पक्ष नहीं शामिल था।
लैंगिक पहचान और उम्र के आधार पर होने वाले भेदभाव पर बात करना बहुत आवश्यक है। क्योंकि इसके चलते महिलाएं सामाजिक, आर्थिक, नेतृत्व करने में पीछे छूट रही है। नौकरी से इतर घर के दायरे में उन्हें दोयम दर्जे का जीवन जीना के लिए मजबूर किया जा रहा है। महिलाओं की क्षमता को नज़रअंदाज किया जा रहा है।