इंटरसेक्शनलयौनिकता महिला जीवन, बढ़ती उम्र और उनकी यौन स्वतंत्रता

महिला जीवन, बढ़ती उम्र और उनकी यौन स्वतंत्रता

ऐसा नहीं है कि सभी महिलाओं को स्वछंद यौन व्यवहार करने की छूट नहीं होती है; हां लेकिन यह पुरुषों के मुकाबले कहीं कम होती है।

बात अगर यौनिक स्वतंत्रता की हो, तो हमारा यह पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को यौनिक जीव बने रहने का अधिकार तब तक प्रदान करता है, जब तक कि वे पुरुषत्व और विषमलैंगिक यौनिकता की सीमाओं का पालन करते रहते हैं अधिकांश पुरुष इसी सोच के साथ जीवन जीते हैं कि यौनिक व्यवहार करते रहने की स्वतंत्रता और काबिलियत उन्हें उनके पुरुष यौनांग के साथ ही मिलती है। यही कारण है कि यौनिक व्यवहार दर्शाना और इसका उपयोग करते रहना कुछ पुरुष अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी महिलाओं को स्वछंद यौन व्यवहार करने की छूट नहीं होती है; हां लेकिन यह पुरुषों के मुकाबले कहीं कम होती है।

कल्पना करें अगर एक 20 वर्ष की महिला एक दवा की दुकान में जाकर कॉन्डम मांगती है और एक 30 वर्ष की महिला भी ऐसा ही करती है। इन दोनों ही महिलाओं के बारे में लोग आमतौर पर गलत धारणा ही बना लेते हैं, लेकिन इसकी भी संभावना हो सकती है कि शायद बड़ी उम्र की इस महिला के बारे में यह धारणा कदाचित कुछ कम बने और अगर यह महिला शादीशुदा दिखती है तो शायद लोग इसके बारे में बिलकुल भी गलत न सोचें। हमने अनेक बार ऐसा देखा है कि कम उम्र की युवा अविवाहित महिलाओं को समाज की नज़रों से बचने के लिए अनेक बार शादीशुदा होने का दिखावा करना पड़ता है और इसके लिए वे मांग में सिंदूर लगा लेती हैं या मंगलसूत्र पहन लेती हैं। युवा महिला और पुरुष जोड़ों को एकांत में यौन सुख के कुछ क्षण बिताने के लिए सुरक्षित स्थान में मिलना कितना कठिन होता है। समाज में कुछ ऐसे लोग हैं जो आपसी सहमति से अपनी यौन इच्छाओं को व्यक्त करने या सेक्स करने वाले युवा जोड़ों को भी सलाखों के पीछे पहुंचाना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं। ऐसे में भारत जैसे और दूसरे अनेक देशों में यौन रूप से सक्रिय युवा जोड़ों को अपनी यौनिकता व्यक्त करने के लिए सुरक्षित स्थानों के अभाव देखा जाता है। 

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लेकिन उम्र बढ्ने के साथ–साथ यह समीकरण भी बदलने लगते हैं और हम पर अपने फैसले खुद लेने का दायित्व आ जाता है। उम्र के बढ़ने के साथ–साथ, विषमलैंगिक विवाह संबंध भी यौनिक स्वतंत्रता पाने के लिए लाइसेंस का काम करते हैं। किसी विवाहित महिला के मन में सेक्स करने की चाहत पर किसी को आपत्ति नहीं होती, क्योंकि ऐसा करने पर उसके पति को भी आनंद मिलता है और फिर इससे संतान की उत्पत्ति तो होती ही है। वहीं दूसरी ओर अविवाहित महिलाओं को अपनी मर्ज़ी से जीवन व्यतीत करने का अधिकार नहीं होता और स्त्रीत्व की मान्य सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करने पर उनके यौनिक व्यवहार को बढ़ा–चढ़ाकर बताया जाता है या फिर उन्हें सेक्स–विहीन घोषित करने की कोशिश होती है। किसी महिला को अपनी मर्ज़ी से यौनिक व्यवहार करने की छूट अनेक सामाजिक संदर्भों में अलग–अलग तरह से मिल सकती है लेकिन, विवाह कर यौनिक स्वतंत्रता का लाभ उठाना महिलाओं के लिए सबसे अधिक महत्व रखता है। 

मेरा खुद का अनुभव में मैंने देखा है कि अपनी उम्र बढ़ने के साथ अब मैं कुछ खास तरह के यौनिक व्यवहारों में अधिक आत्मविश्वास से अपनी इच्छानुसार काम कर पाती हूं जबकि पहले कम उम्र में ऐसे ही व्यवहारों के लिए मुझे बहुत सोचना पड़ता था और मैं इतनी हिम्मत नहीं कर पाती थी। युवा उम्र में मुझे यौनिकता के बारे में इतनी जानकारी नहीं थी कि मैं खुद को आश्वस्त कर पाऊं, और न ही मुझमे अपने फैसलों की ज़िम्मेदारी लेने की हिम्मत और योग्यता थी। लेकिन अब विवाहित होने के बाद मुझे खुद में, यौन आनंद उठा पाने की क्षमता और स्वतंत्रता अधिक महसूस होती है। लेकिन अब भी अगर बात मैरिटल रेप की रिपोर्ट करने की आए, तो अदालतें शायद मुझे यह अधिकार नहीं देंगी, क्योंकि मुझसे यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि मैं ‘अपने पति’ की यौन ज़रूरतों को पूरा करने की अपने संस्कारी कर्तव्य को अनदेखा कर दूं या भूल जाऊं।  

लेकिन वहीं किसी भी अधेड़ उम्र की विषमलैंगिक विवाहित महिला के प्रति समाज का रवैया नम्र होता है और और समाज इस महिला की यौन इच्छाओं को स्वीकार कर लेता है हालांकि अभी मुझे लगता है कि अपनी उम्र और वैवाहिक स्थिति के कारण मुझे बहुत हद तक यौनिक व्यवहार की स्वतंत्रता मिल पाई है, लेकिन मुझे यह भी मालूम है कि अपनी इसी उम्र में मैं इस यौन जीवन चक्र में उफान की दिशा में बढ़ रही हूं। आगे चलकर उम्र बढ्ने के साथ, मेरे इस चक्र में नीचे की ओर बढ़ने की पूरी संभावना रहेगी। रजोनिवृत्ति यानि मेनोपॉज़ के बाद तो मेरे शरीर को यौन विहीन ही समझा जाने लगेगा और तब मुझसे अपेक्षा की जाएगी कि मैं सेक्स में अपनी रुचि को भूल जाऊं और अपनी यौन इच्छाओं को मन में ही दबा लूं। लेकिन मैं क्यों इन धारणाओं से प्रभावित हूं आखिर वर्तमान में जीने का नाम ही ज़िंदगी है! तो क्यों न मैं बड़ी मेहनत से मिले इस अवसर का पूरा लाभ उठा लूं। 

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लोगों के एक मिश्रित समूह में अब कोई ‘उत्तेजक’ चुटकुला सुना देने पर भी लोगों के माथे पर कम ही शिकन पड़ती है। हालांकि इसमें खतरा भी हो सकता है और लोगों को आपत्ति भी हो सकती है लेकिन बातों में यौनिक शब्दों या विचारों को व्यक्त कर दिये जाने को भी अब अनदेखा कर दिया जाता है। अब अगर किसी की तारीफ में दो शब्द कह दिये जाएँ, भले ही किसी पुरुष की तारीफ कर दी जाये, तो उसे भी आदरस्वरूप ही लिया और समझा जाता है। कभी कभी तो एक–दो मादक घूंट भर लेने के बाद किसी के साथ छेड़छाड़ करने की भी छूट मिल जाती है क्योंकि इसे स्वाभाविक और हानिरहित समझा जाता है। अब अगर खुलकर भी अपनी यौन इच्छाओं के बारे में बात करूँ, कम से कम अपनी महिला मित्रमंडली के बीच, तो बहुत ही कम लोगों को हैरानी होती है। ऐसी संभावना भी बहुत हो सकती है कि कभी अपने मन की उत्तेजक और यौनिक  कल्पनाओं को पूरा कर पाना भी शायद संभव हो पाये। अभी उम्र का वह पड़ाव है जब जीवन में कुछ नया कर पाने या अपने बेडरूम में अपनी शर्म का त्याग करने और कुछ नए प्रयोग करने की छूट भी है और हिम्मत भी।   

समय बीतने के साथ–साथ, लोग अपने शरीर के प्रति कम संकोची हो जाते है और अपने शरीर पर पहले से अधिक नियंत्रण महसूस कर सकते है। इस उम्र में किसी खास तरह की शारीरिक संरचना पाने की इच्छा भी उतनी बलवती नहीं रहती और न ही त्वचा के सही रंग और बालों के सही आकार और स्वरूप को पाने की इच्छा रहती है जैसा कि इस पूंजीवादी व्यवस्था में फैशन की मांग होती है। कई तरह से लोग अनेक शारीरिक कमियों और मोटापे से भी समझौता करने लगते है। हैरानी की बात यह है कि अधेड़ उम्र की किसी महिला को संबंध बनाने के लिए दूसरे पुरुषों की नज़रों में आकर्षक दिखने के दबाव  का सामना भी नहीं करना पड़ता क्योंकि वो तो पहले ही किसी की ‘बन चुकी’ होती है। एक ही संबंध रखने की मान्यता के इस समाज में किसी महिला को दूसरे पुरुषों की खुद में रुचि जागृत करने की भी ज़रूरत नहीं रहती और इसीलिए उसे खुद को सजाने और सँवारने की जरूरत महसूस ही नहीं होती। अब चूंकि वो अपनी ‘यौनिक सुंदरता’ की आखिरी दहलीज़ पर पहुँचने वाली होती है, तो फिर वह भले ही एक बेडौल बोरी की तरह दिखने लगे, क्या फर्क पड़ता है!   

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सुनने में यह कितना ही अटपटा क्यों न लगे, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है की महिलाओं को भी, महिला होते हुए भी, समय बीतने के साथ–साथ कुछ यौनिक स्वतंत्रता ज़रूर मिल पाती है। मुझे याद है, जब मेरी उम्र लगभग 20 वर्ष की थी, तब मैं अनेक बार डर और शर्म के मारे अपने अंगों पर पुरुषों के हाथों के छूने और जानबूझकर मुझसे टकराकर निकलने को अनदेखा करती थी, लेकिन अब शायद मैं ऐसा बिलकुल नहीं होने दूँगी। हम युवा महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न सहने और शोषण किए जाने पर भी इसकी शिकायत न करने के अनेक मामलों के बारे में सुनते हैं – उसका कारण भी यही होता है कि उन्हें शर्मिंदगी उठाने से डर लगता है और लगता है कि कहीं इसका दोष भी उन्हीं के  सर पर न मड़ दिया जाये। यहाँ तक कि अपनी रज़ामंदी से बनने वाले या फिर वैवाहिक सम्बन्धों में भी सेक्स के समय गर्भनिरोधक के प्रयोग के बारे में या फिर किस तरह से सेक्स किया जाये, इस पर युवा महिलाएं अक्सर इसलिए अपनी इच्छा व्यक्त नहीं कर पाती हैं क्योंकि वे अपने साथी को नाखुश करने से डरती हैं। लेकिन किस्मत साथ दे तो समय के साथ हमें हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए कुछ तरह के कौशल आ जाते हैं, हम अपनी बात कह पाते  हैं और अपने यौन और सामाजिक जीवन में अपने फैसलों को लागू करने पर अपने विचार रख पाते  हैं। 

व्यक्तिगत रूप से मुझे, एक युवा अविवाहित लड़की से अब प्रगतिशील और सकारात्मक प्रभाव और संतोषजनक संबंध रख चुकी उम्रदराज़ विवाहित महिला बनने के इस सफर से अपने निजी जीवन में अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करने में बहुत मदद  मिली है। मैं अब उन सामाजिक मान्यताओं को अनदेखा करना जानती हूँ जो मेरे शरीर और आनंद के बीच दीवार बन कर खड़ी होती हैं। फिर भले ही यौन और सामाजिक सम्बन्धों की बात हो, सेक्स करने के तरीके की बात हो, गर्भनिरोधक के प्रयोग का निर्णय हो, सेक्स के लिए सहमति देने या न देने की बात हो, यौन उत्पीड़न होने पर इसकी शिकायत करनी हो या फिर यौनिकता से जुड़े मुद्दों पर अपनी बात कहनी हो, मुझे लगता है कि मेरी उम्र के कारण या फिर मेरे विवाहित होने के कारण मुझे बहुत हद तक अपनी इच्छाओं को पूरा कर पाने की स्वतंत्रता  मिल पाती है। ऐसा नहीं है कि एक महिला होने के नाते मेरे फैसलों पर लोग मेरे बारे में राय कायम नहीं करते, वे ऐसा करते हैं लेकिन अब ऐसा कम ही होता है। अब मैं अपनी यौन इच्छाओं को व्यक्त कर पाने में खुद को सक्षम पाती हूँ, जोकि कम उम्र में किसी के लिए संभव नहीं होता। चूंकि मेरा यौनिक अस्तित्व अभी भी सामाजिक तौर पर स्वीकृत सिसजेंडर, विषमलैंगिक और विवाहित अर्थात एक व्यक्ति से संबंध रखने वाली (मोनोगैमस) महिला के रूप में ही परिभाषित होता है, इसलिए मुझे अपने व्यवहार के कारण तब तक किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता जब तक कि में खुलकर इन अपेक्षित सीमाओं  का उल्लंघन नहीं करने लगती। इसलिए मैं अपनी इस वर्तमान स्थिति का लाभ उठाते हुए इसका प्रयोग अपने उन यौन अधिकारों को पाने के लिए करती हूं, जो मेरा अधिकार है। 

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(यह लेख पहले TARSHI में प्रकाशित हो चुका है और इसकी लेखिका राम्या आनंद हैं, जिसका अनुवाद सोमेंद्र द्वारा किया गया है। इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए क्लिक यहां क्लिक करें।)


तस्वीर : श्रेया टिंगल फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

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