औरतों को आर्थिक फैसलों से हमेशा ही दूर रखा गया। पितृसत्तात्मक सोच की इस सोच के मुताबिक कि पुरुष बेहतर आर्थिक फैसले लेते हैं। इस पितृसत्तात्मक अवधारणा ने औरतों के दिमाग में इस विचार के बीज बोए हैं कि आर्थिक प्रबंधन एक बेहद कठिन काम है जो सिर्फ़ आदमी ही कर सकते हैं। इस सोच के कारण लंबे समय से कारण महिलाएं आर्थिक फैसलों और उनसे जुड़ी चीज़ों से दूर और वंचित रहीं। इसका की नतीजा है कि आज हमारे समाज में अधिकतर औरतों के पास बैंक अकाउंट भी नहीं होते हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में औरतों को बैंक अकाउंट की सुविधा बैंकों ने तो दे दी लेकिन इस समाज के लोगों की मानें तो औरतों को बैंक अकाउंट्स की ज़रूरत नहीं होती।
औरतों के पास बैंक अकाउंट होना ना होना चर्चा का विषय क्यों?
हम पुरुषों के बैंक अकाउंट न होने की चर्चा नहीं करते क्योंकि हमें इसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती। हमारे समाज की सोच यही कहती है कि एक पुरुष के पास बैंक अकाउंट तो होगा ही। सदियों से पुरुष ही हमेशा सभी आर्थिक और वित्तीय फैसले हमेशा से लेते आए हैं। लेकिन इसके विपरीत औरतों का आर्थिक फैसलों में हिस्सा लेने का अधिकार शून्य के बराबर रहा। इसका मुख्य कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था और पुरुषों का आर्थिक फैसलों पर पूरी तरह आधिपत्य है।
अब इसे ऐसे समझिए। ऐतिहासिक रूप से औरतों के कपड़ों में जेब इसलिए नहीं बनाई जाती थी क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज का मानना था कि उनकी पैसों तक पहुंच तो है नहीं तो इसलिए उन्हें जेब की क्या ज़रूरत। मीडियम में प्रकाशित एक लेख के अनुसार औरतों के कपड़ों में जेब इसीलिए नहीं हुआ करती थीं क्योंकि माना जाता है कि उनके पति पैसे और उनकी ज़रूरत का सामान रखेंगे। औरतों की आर्थिक फै़सलों में भागीदारी समाज में मौजूद इस हीन भावना से भी प्रभावित है कि औरतें पैसों से संबंधित फैसले सही तरीके से नहीं ले सकतीं। इस भावना समाज में इस तरह निहित की गई है कि औरतें भी यही मानने लगीं।
बैंक अकाउंट होने से क्या होगा?
जब हम यह चर्चा करते हैं कि औरतों के पास बैंक अकाउंट होने चाहिए उसके साथ यह भी सवाल उठता है कि बैंक अकाउंट होने से उनके जीवन में क्या बदलाव आएंगे। इसका जवाब हम निम्नलिखित बिंदुओं से समझ सकते हैं:
सशक्तिकरण: जहां हम औरतों को आज अपने लिए आवाज़ उठाने के लिए बढ़ावा देते हैं वहीं यह भी सोचना चाहिए कि वह अपनी आवाज़ किस बलबूते उठाएंगी? अगर उठाएंगी भी तो फिर उनके आर्थिक बुनियादी और न्यूनतम ज़रूरतों को वे कैसे पूरा करेंगी? जवाब आसान है, आर्थिक तौर पर स्वतंत्र होकर और आर्थिक फैसलों में पूरी तरह भागीदार बन, अपने वित्तीय फैसले खुद लेने के लिए समर्थ होकर।
अधिकार की भावना उत्पन्न होना: औरतों को हमेशा से त्याग और बलिदान की मूर्ति बताया गया है। उनकी परवरिश आज भी इसी सोच के आधार पर की जाती है। इस सोच से औरतों को नुकसान होता आया है और हो रहा है। यह नुकसान इतना गहरा और घातक है कि यह औरतों को अधिकार पाने के बारे में सोचने तक नहीं देता। जो कुछ महिलाएं इस तरह सोचती हैं तब उन्हें अपराधबोध होने लगता है। यह भी पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है।
आंकड़े क्या कहते हैं?
बिजनस लाइन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में जनवरी 2023 तक 225.5 करोड़ जमा खाते हैं जिसमें से औरतों के जमा खातों की संख्या केवल 79 करोड़ है। इन खातों में कुल 170 लाख करोड़ रुपये जमा हैं, जिसमें से 34 लाख करोड़ ही केवल महिलाओं के हिस्से हैं। हालांकि इस रिपोर्ट में महिलाओं के खातों के इतनी कम संख्या होने की पीछे की वजह नहीं बताई गई है। द इकॉनमिक टाइम्स एक के लेख के अनुसार 49 प्रतिशत महिलाएं या तो निवेश कर ही नहीं रही या वे निवेश आदि से संबंधित चीज़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं रखती। इसका कारण ‘पुरुष पैसों से जुड़े फैसले सही लेते हैं’ की भावना को बताया गया है।
द इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में सामने आया कि ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ औरतों के बैंक अकाउंट की संख्या मे में सहायक हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 में 43 प्रतिशत औरतों के नाम पर बैंक खाते हुआ करते थे। यह आंकड़ा साल 2017 में बढ़कर 77 प्रतिशत हुआ। इन आंकड़ों के मुताबिक औरतों द्वारा बैंक अकाउंट धारण में बढ़त तो हुई है लेकिन क्या यह वृद्धि वाकई ज़मीनी स्तर पर हुई है? क्या औरतें अपनी मर्ज़ी से इन खातों का इस्तेमाल कर पाती हैं? क्या वे अपने खातों पर मालिकाना हक़ जमा पाई हैं?
पितृसत्तात्मक सोच कितनी ज़िम्मेदार?
पितृसत्ता औरतों के हर कदम को प्रभावित करती आई है। आर्थिक और वित्तीय फैसलों में भी यह औरतों की भागीदारी को चिंताजनक स्थिति तक पहुंचा चुकी है। आर्थिक और वित्तीय फै़सलें सीधा सत्ता और शक्ति से जुड़ा रहा है इसीलिए इस पर अधिकार पुरुषों ने रखा।
औरतों के बीच हमेशा ही आर्थिक जागरूकता को कोई महत्व नहीं दिया गया। उनके बीच यह डर और गलतफहमी बैठाई गई कि किसी बैंक जाने के लिए उन्हें किसी पुरुष की आवश्यकता होती है। यहां भी पुरुष प्रधान समाज अपना काम कर रहा होता है; बैंक जाने से महिलाएं बचती हैं और उनसे इसका कारण पूछने पर उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यह इसीलिए क्योंकि औरतों के बीच यह डर है कि अगर कोई गलती उनसे हो जाती है तो फिर वे अपने घर के पुरुषों को किस तरह जवाब देंगी? यह जवाबदेही की भावना आर्थिक मुद्दों में आगे आने से औरतों को रोकती है।