इंटरसेक्शनलजेंडर औरतों की आर्थिक आज़ादी का मतलब सिर्फ ‘पैसा’ नहीं ‘पहचान’ से भी है

औरतों की आर्थिक आज़ादी का मतलब सिर्फ ‘पैसा’ नहीं ‘पहचान’ से भी है

जब भी बात कमाई की हो तो हमेशा यह समझें कि महिला जब काम पर जाती है तो वह सिर्फ़ पैसे नहीं बल्कि अपनी पहचान भी कमाती है।

वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2022 में कुल 146 देशों में भारत 135वें पायदान पर है। रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक अवसरों में मौजूद असमानता की खाई बहुत व्यापक है इसे पूरा करने में 151 साल का लंबा वक्त लग सकता है। इसका मतलब है कि अपने देश में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत कामकाजी पुरुषों के प्रतिशत से कई गुना ज़्यादा कम है।

जब हम महिलाएं अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपनी स्थिति देखते हैं तो ये आंकड़े बहुत सटीक भी लगते हैं। सच्चाई यही है कि आज भी भारतीय परिवारों में महिलाओं का कामकाजी होना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। जब कोई महिला कामकाजी होने की तरफ़ कदम बढ़ाने की कोशिश भी करती है तो पूरा परिवार, समाज अपनी पूरी ताक़त के साथ उसके कदम को रोकने में लग जाता है। कभी इज़्ज़त की दुहाई दी जाती है तो कभी परिवार की तो कभी बच्चे की। ये सब महिलाओं को मानसिक रूप से कई बार इतना परेशान कर देता है कि वह खुद इस सवाल का जवाब नहीं तलाश पाती कि आख़िर ‘इस नौकरी ये मुझे क्या फ़ायदा होगा?’ और फिर वह अपने कदम पीछे कर लेती है। ऐसे में हम महिलाओं को अपने दिमाग़ में बैठाना होगा कि जब हम महिलाएं कामक़ाज़ी होने की तरफ़ कदम बढ़ाती हैं तो इसके लिए पहले हमें खुद को मानसिक रूप पर तैयार करना होगा और इन निम्नलिखित बातों को अच्छी तरह समझना होगा।

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कमाई का फ़ायदा सिर्फ़ पैसा नहीं पहचान भी है

जब महिलाएं नौकरी करने की बात करती हैं तो पहला सवाल उनसे कमाई को लेकर पूछा जाता है। लेकिन यहां हम महिलाओं को यह समझना होगा कि कमाई की बात सिर्फ़ परिवार के लिए होती है पर बतौर महिला हमें अपनी पहचान भी कमाना है। पितृसत्ता बचपन से ही हमारी पहचान पुरुषों के साथ बांध देती है। लेकिन जब हम काम करते हैं तो हम अपनी पहचान भी बनाते हैं।

पितृसत्ता हमेशा रोज़गार को ‘कमाई’ से जोड़कर ही देखती है और ऐसा सभी को दिखाती भी है। कमाई के लिए पितृसत्ता पुरुष को केंद्र में रखती है। वह पुरुष जिसे महिलाओं से ज़्यादा अधिकार इस पितृसत्ता से मिले हैं और उसकी समाज में हमेशा एक पहचान होती है।

जिस जगह पर और जिन लोगों के साथ हम काम करते हैं, वहां हमारी पहचान ‘अपनी पहचान’ होती है, अपना काम और अपनी क़ाबलियत होती। इसलिए जब भी बात कमाई की हो तो हमेशा यह समझें कि महिला जब काम पर जाती है तो वह सिर्फ़ पैसे नहीं बल्कि अपनी पहचान भी कमाती है। यह उसका सबसे बड़ा फ़ायदा है, क्योंकि पैसे तो उसके पिता और पति भी उसे दे सकते हैं लेकिन अपनी पहचान महिला खुद कमाती है। इसीलिए कामकाजी महिलाएं पितृसत्ता के लिए एक चुनौती के समान होती हैं।

अपने आप को पहचाने की एक पहल

पितृसत्ता हमेशा रोज़गार को ‘कमाई’ से जोड़कर ही देखती है और ऐसा सभी को दिखाती भी है। कमाई के लिए पितृसत्ता पुरुष को केंद्र में रखती है। वह पुरुष जिसे महिलाओं से ज़्यादा अधिकार इस पितृसत्ता से मिले हैं और उसकी समाज में हमेशा एक पहचान होती है। लेकिन जब बात महिलाओं की आती है तो महिलाएं हमेशा कभी किसी की बीवी, बेटी, पत्नी या बहु के नाम से ही समाज में जानी जाती हैं। इसके चलते एक समय के बाद वह खुद भी अपना नाम मानो भूलने सी लगती हैं। घर से बाहर कदम निकालते वक्त अधिकतर महिलाओं में यह डर होता है कि शायद बाहर जाकर काम करना उनके लिए बना ही नहीं है।

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मैंने भी जब अपने घर से बाहर कदम निकाला था तब मेरे मन में कई सवाल थे लेकिन धीरे-धीरे काम करते हुए अब यह महसूस होता है कि बचपन से ही हम महिलाओं की परवरिश इस तरह से की जाती है कि हमें हमेशा किसी न किसी सहारे की ज़रूरत होती है। यह पितृसत्तात्मक परवरिश इस तरह हमें प्रभावित करती है कि हम अपने लिए फैसले लेने में डरते हैं। लेकिन वास्तव में इस डर के आगे हमारे लिए बहुत सारे अवसर होते हैं क्योंकि यहां हमें अपनी पहचान और बराबरी का एहसास होता है। बाहर निकलने से ही हम यह जानते हैं कि हम क्या कर सकते हैं और जिन चीजों को हम अब तक पहाड़ समझते आए थे वे तो कितनी आसान हैं।

कमाई स्पेस, गतिशीलता और यौनिकता की

महिलाएं जब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती हैं तो उनके विचारों और मत को भी परिवार में जगह दी जाती है। परिवार के फ़ैसलों में भी उन्हें शामिल किया जाता है और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए ज़रूरी है कामकाज। इसके साथ ही, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता महिलाओं की गतिशीलता को भी बढ़ावा देने में मदद करती है। यह आर्थिक आज़ादी ही है जो महिलाओं को अपनीे अनुसार ज़िंदगी जीने के लिए एक जगह बनाने में मदद करता है, जहां वे अपने पसंद के पहनावे, खानपान और जीवनशैली को अपना सकती हैं।

मैंने भी जब अपने घर से बाहर कदम निकाला था तब मेरे मन में कई सवाल थे लेकिन धीरे-धीरे काम करते हुए अब यह महसूस होता है कि बचपन से ही हम महिलाओं की परवरिश इस तरह से की जाती है कि हमें हमेशा किसी न किसी सहारे की ज़रूरत होती है। यह पितृसत्तात्मक परवरिश इस तरह हमें प्रभावित करती है कि हम अपने लिए फैसले लेने में डरते हैं।

जब भी हम महिलाएं खुद पैसे कमाने के बारे में सोचती हैं तो इसके फ़ायदे पर ख़ूब विचार-विमर्श करती हैं। यह बहुत अच्छी चीज़ भी है, लेकिन हमें इस मंथन को पितृसत्ता के नज़रिए से नहीं बल्कि खुद के नज़रिए से करना होगा। साथ ही हमें समझना होगा कि घर से बाहर काम पर निकलना और पैसे कमाना, यह एक महिला के लिए सिर्फ़ पैसे कमाने का नहीं बल्कि अपने विकास का एक ज़रिया है। जब तक हम अपने रोज़गार के फ़ायदे को सिर्फ़ पैसे के आसपास सोचेंगें तो हम हमेशा पुरुषों और पितृसत्ता के हाथों की कठपुतली ही बनकर रह जाएंगे। इसका परिणाय यह होगा कि काम भले ही हम करें, लेकिन हमारी कमाई का हिसाब हमारे घर के पुरुष ही रखेंगें।

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तस्वीर साभार: The Economic Times

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