“मैंने सिर्फ अपने निजी जीवन को अपनी कला का विषय बनाया है।” ये शब्द हैं ज़रीना हाशमी के। ज़रीना भारतीय मूल की एक अमेरिकी कलाकार थीं। उनका काम ड्राइंग, प्रिंटमेकिंग और मूर्तिकला तक फैला हुआ है। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वुटकट्स और इंटैग्लियो प्रिंट के जानी जाने वाली मशहूर कलाकार थीं। पेशेवर तौर पर वह केवल ज़रीना नाम का ही इस्तेमाल करती थीं। उन्होंने कला के माध्यम से प्रवास, विस्थापन, घर और नारीवाद के विषयों पर भी बात की।
जन्म और परिवार
ज़रीना राशिद का जन्म 16 जुलाई 1937 में अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम शेख अब्दुल राशिद था। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। उनकी माता का नाम फ़हमीदा बेगम था। वह एक गृहणी थी। उनके दो भाई और एक बहन थी। उनके एक भाई की बहुत कम उम्र में ही मुत्यु हो गई थी। उनकी बहन का नाम रानी था। वह अपनी बहन के बहुत करीब थी। इतना ही नहीं दोनों ने मिलकर कई प्रोजेक्ट पर साथ भी काम किया था। बंटवारे के कुछ समय बाद उनके पिता और भाई-बहन पाकिस्तान चले गए थे। उनके बचपन में एक अनोखी घटना हुई थी जिससे वह कला की ओर पहली बार आकर्षित हुई थी। पांच साल की उम्र में उनके पिता उन्हें हवाई जहाज में घुमाने ले गए थे। इतनी ऊंचाई से अलीगढ़ देखकर वे टोपोलॉजी और वास्तुकला के प्रति मंत्रमुग्ध हो गई। इतना ही नहीं बीस साल की उम्र में दिल्ली फ्लाइंग क्लब में शामिल हुई और उन्होंने ग्लाइड करना भी सीखा था।
साल 1958 में ज़रीना ने एमयू से गणित में बीएस ऑनर्स की स्नातक की डिग्री पूरी कीं। स्नातक की पढ़ाई पूरी होने के साथ ही इनका विवाह साद हाशमी के साथ हो गया था। उनके पति विदेश सेवा में काम करते थे और दुनिया के अलग-अलग देशों में रहे। विवाह के बाद ज़रीना ने अपनी कला में रूचि बरकरार रखी और अलग-अलग देशों में जाकर विस्तृत प्रिंटमेकिंग सीखीं। उन्होंने थाईलैंड, टोक्यो और पेरिस में एटेलियर 17 स्टूडियो में अध्ययन किया। 1960 के मध्य में वह पेरिस में स्टेनली विलियम हेटर के साथ अध्ययन किया था। उस समय वहां रहने वाले और काम करने वाले कई भारतीयों में से एक थीं।
कलाकार के रूप में सफ़र
ज़रीना एक महानगरीय कलाकार थीं। वह शहर दर शहर अपनी कला के साथ आगे बढ़ती रही। साल 1968 में वह भारत वापस लौटने के बाद जगुआर चली गईं और अकेले छह साल वहां रही। उसके बाद दिल्ली में कुछ वक्त गुजारने के बाद साल 1974 में वह टोक्यो गई। वहां उन्होंने तोशी योहिदो के साथ उनके स्टूडियो में काम किया। इसके एक साल बाद वह सयुंक्त राज्य अमेरिका चली गई वहां उन्होंने अपना घर बनाया। दोस्तों और समुदाय के साथ उन्होंने शहर के उभरते फेमिनिस्ट आर्ट मूवमेंट में हिस्सा लिया। इस दौरान उन्होंने बहुत से विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य किया।
तीन दशक तक उन्होंने संयुक्त राज्य में शिक्षण और अपनी कला का अभ्यास जारी रखा। इसी दौरान साल 1970 और 80 के बीच उन्होंने दिल्ली, बॉम्बे (मुबंई) और कराची में लगातार अपने सोलो आर्ट शो किए। उन्होंने इन शहरों में दोस्तों, कलाकारों और गैलरी ऑनर के साथ काम किया। इतना ही नहीं वेनिस बिएननेल में उन्होंने अपने पवेलियन से भारत का प्रतिनिधित्व किया। ज़रीना ने दक्षिण एशिया और मिडिल ईस्ट के कलाकारों के आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
ज़रीना अपने नाम के पीछे उपनाम लगाना पसंद नहीं करती थीं। वह न्यूयॉर्क में 1970 के समय नारीवादी समूहों का प्रमुख चेहरा थीं। 1980 के दशक के समय उन्होंने न्यूयॉर्क फेमिनिस्ट आर्ट इंस्टीट्यूट के बोर्ड सदस्य और वीमंस सेंटर फॉर लर्निंग में इंस्ट्रक्टर के तौर पर भी काम किया। फेमिनिस्ट ऑर्ट जर्नल ‘हेरेसीज’ के संपादकीय बोर्ड में रहते हुए उन्होंने ‘थर्ड वर्ल्ड वीमंस’ अंक में योगदान दिया। उनके काम की प्रमुख प्रदर्शनी और महत्वपूर्ण सार्वजनिक संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है जिसमें हेमर म्यूजियम, द म्यूजियम ऑफ मॉर्डन ऑर्ट और न्यूयॉर्क में गुगेनहेम म्यूजियम और लदंन में विक्टोरिया और अल्बर्ट म्यूजियम शामिल हैं।
परिवार उनकी प्रेरणा की हमेशा आधारशिला रहा है। उनके बहुत ही निजी और प्रसिद्ध आर्टवर्क का शीर्षक ‘लेटर्स फ्रॉम होम’ है। यह आर्टवर्क उनकी बहन रानी के लिखे छह बिना भेजे खतों का कम्पोजिशन है। उनकी बहन से बाद में यह उनसे ये साझा किए थे। इन पत्रों में इनके माता-पिता की मृत्यु, घर की ब्रिकी, बच्चों से बिछड़ने का दुख और ज़रीना की उपस्थिति को याद करके उस समय का वर्णन किया गया। ज़रीना ने अपने काम में घर की अवधारणा को एक अमूर्त स्थान की तरह खोजा भौतिकता और जगह से परे हैं। उन्होंने अपने काम में आंदोलन, प्रवासी, विस्थापन, बंटावारा और निर्वासन जैसे विचारों को प्रदर्शित किया। उनका प्रसिद्ध आर्टवर्क डिवाडिंग लाइन, भारत-पाक बंटवारे को प्रदर्शित करता है। इस तरह अलगीढ़ के घर की याद के तौर पर उनकी कलाकृति ए फॉरन प्लेस में उतारी हैं।
सम्मान और उपाधि
ज़रीना अपने जीवन में कला के माध्यम से दुनिया के विभिन्न देशों में रही और उन्होंने अलग-अलग उपाधि भी अपने नाम की। साल 1969 में उन्हें प्रेसिंडेंट अवॉर्ड फॉर प्रिंटमेकिंग का सम्मान भारत में दिया गया। 1974 में टोक्यो में जापान फाउंडेशन फेलोशिप मिलीं। 1984 में वह न्यूयॉर्क में प्रिंटमेकिंग वर्कशॉप फेलोशिप का हिस्सा बनीं। 1989 में इंटरनैशनल द्विवार्षिक पुरस्कार, ग्रांड प्राइज़ से सम्मानित किया गया था। 1990 में एडोल्फ और एस्तेर गोटलिब फाउंडेशन ग्रांट और न्यूयॉर्क फाउंडेशन फॉर द आर्ट फेलोशिप दी गई। साल 1991 में न्यूयॉर्क के रोसेन्डोल में वीमंस स्टूडियो वर्कशॉप में काम रेजीडेंसी मिली। उन्हें दुनिया के अलग-अलग कई देशों के म्यूजियम में रेजीडेंसी मिली।
1968 में दिल्ली में उन्होंने सोलो आर्ट शो किया था उसके बाद साल 2020 तक उन्हें दुनिया के अलग-अलग देशों में आर्ट शो हुए। उनके काम पर बहुत सी किताबों का लेखन भी किया हैं। उन्होंने खुद भी किताबें लिखी हैं। पेपर हाउस (2017), ज़रीनाः डॉयरेक्शन टू माई हाउ, (2018), ज़रीना वेविंग डार्कनेस एंड साइलेंस (2017), ज़रीना पेपर लाइक स्किन (2012) आदि शामिल हैं।
खराब स्वास्थ्य के चलते 25 अप्रैल 2020 में ज़रीना ने लंदन में हमेशा के लिए इस दुनिया से अलविदा कह दिया था। वह अपने समय के कई महान भारतीय कलाकारों के समक्ष रही जिनमें एम.एफ. हुसैन, वी.एस. गायतोंडे, तैयब मेहता और नसरीन मोहम्मदी जैसे नाम शामिल हैं। उन्होंने हमेशा अपनी कला के माध्यम से सामाजिक मुद्दों और आंदोलनों को केंद्रित रखते हुए पारंपरिकता को भी जोड़े रखा। वास्तुकला में उनका बहुत आकर्षण बढ़ा जो उनके कामों में ज्यामिति के इस्तेमाल के रूप में भी झलकता है। एक भारतीय मुस्लिम महिला की पहचान को रखते हुए, वह इस्लामी धार्मिक सजावट के विजुअल एलीमेंट का इस्तेमाल करती थी। विशेष तौर पर इस्लामी वास्तुकला में पाई जाने वाली नियमित ज्योमेट्री उनमें से एक है।
स्रोतः