संस्कृतिकला एक नज़र रामचंद्र मांझी, ‘नाच’ और उनके कलाकारों की सामाजिक स्थिति पर

एक नज़र रामचंद्र मांझी, ‘नाच’ और उनके कलाकारों की सामाजिक स्थिति पर

जैनेंद्र दोस्त एक बड़ी रोचक बात कहते हैं, "महिलाओं को मांझी जी से बड़ा प्रेम था। बाबा-बाबा कहती। अपने मन की बात साझा करतीं।" उनके गांव के कुछ तथाकथित उच्च जाति के लोग भी उनसे स्नेह रखते थे।

रामचंद्र मांझी को जेएनयू के मंच पर बुलाते हुए लोक कला ‘नाच’ पर काम कर रहे शोधार्थी जैनेंद्र कुमार दोस्त कहते हैं, “अब जो आपके सामने आनेवाले हैं वह अपने ज़माने के श्री देवी, ना, ना, ना, अमिताभ बच्चन, ना ना, वह रामचन्द्र मांझी स्वयं हैं।” उस वक़्त रामचन्द्र मांझी 92 साल के थे। जब से मैंने ‘लौंडा नाच’ और भिखारी ठाकुर के बारे में समझा, जाना है तभी से मेरी स्मृति में रामचंद्र मांझी भी दर्ज़ हैं।

स्नातक की पढ़ाई के दौरान जैनेंद्र दोस्त और शिल्पी गुलाटी द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म ‘नाच भिखारी नाच’ के बारे में जाना। साल 2018 में ‘शब्दिता’, हिंदी साहित्यिक संस्था मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय के मंच के ज़रिये मिरांडा हाउस के इतिहास में पहली बार किसी भोजपुरी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की स्क्रीनिंग संभव हुई। व्यक्तिगत तौर पर मुझे हमेशा लगता था/है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों ख़ासकर विद्यार्थियों तक ‘नाच’, भिखारी ठाकुर और इस आर्ट फॉर्म को करने वाले लोगों की जानकारी पहुंचे। मेरे मन में यह भावना बचपन से 19 साल की उम्र तक बिहार में रहते हुए रामचन्द्र मांझी के बारे में पता न होने की टीस से पैदा हुई। 

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‘नाच’ के बारे में बात करते हुए रामचंद्र मांझी ने एक बार कहा था कि मेरा जीवन ‘नाच’ है, मेरे लिए ये साधना की तरह है। ‘लौंडा’ एक बुरा शब्द है, गाली है।” उनके अनुसार तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इस शब्द को लैंगिक और जातिगत भेदभाव की मानसिकता के कारण एक गाली बना दी।

‘लौंडा नाच’, भिखारी ठाकुर और रामचंद्र मांझी

साल 1971 में भिखारी ठाकुर की मृत्यु के बाद से उनके शिष्य, उनकी टोली का हिस्सा, उनके नाटकों में काम करनेवाले रामचंद्र मांझी ‘नाच’ की परंपरा को आगे बढ़ाते रहे। ‘नाच’ या ‘लौंडा नाच’ बिहार की लोक संस्कृति का प्रमुख हिस्सा है। गाने, नृत्य, व्यंग्य, हास्य के माध्यम से भिखारी ठाकुर समाज की कुरीतियों पर वार और कटाक्ष करते थे। जातिगत पहचान, लैंगिक पहचान, आर्थिक पहचान के कारण समाज में जो भेदभाव होता है, वह ग्रामीण परिदृश्य में किस तरह काम करता है इसी को आधार बनाकर भिखारी ठाकुर ‘नाच’ करवाते थे।

साल 1925 में जन्मे रामचंद्र मांझी बारह साल की उम्र से भिखारी ठाकुर के साथ काम कर रहे हैं। ‘नाच’ के बारे में बात करते हुए रामचंद्र मांझी ने एक बार कहा था कि मेरा जीवन ‘नाच’ है, मेरे लिए यह साधना की तरह है। ‘लौंडा’ एक बुरा शब्द है, गाली है।” उनके अनुसार तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इस शब्द को लैंगिक और जातिगत भेदभाव की मानसिकता के कारण एक गाली बना दी।

तस्वीर साभार: PatnaBeats

उन्नीसवीं सदी में जब मंच पर महिलाओं को परफॉर्म करने की आज़ादी नहीं थी, तब पुरुष, ख़ासकर, वे पुरुष जो तथाकथित निचली जाति से आते थे, उन्होंने इस लोक कला में महिलाओं की भूमिका निभाने लगे। जहां तथाकथित बड़ी जाति के लोग जमींदार ‘बाजी’ (नाचने वाली महिलाएं) से अपना मनोरंजन करते थे, वहीं जो उस आर्थिक तबके से नहीं आते थे, जो आम, साधारण लोग थे वे मनोरंजन के लिए ‘लौंडा नाच’ देखते थे। भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ जैसे नाटकों में कमाने के लिए दूर-दराज़ जाने वाले अप्रवासी मज़दूरों के संघर्ष के बारे में लिखा। नशे की लत, समाज में महिलाओं की स्थिति, दहेज़ प्रथा, यौनिकता इत्यादि पर उनके कई नाटक आधारित हैं।

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बिहार के छपरा निवासी पत्रकार भूपेंद्र कुमार खुद भोजपुरी भाषी क्षेत्र से आते हैं। छपरा में भिखारी ठाकुर के नाम पर एक चौक भी है। भूपेंद्र कुमार ने साल 2021 में रामचंद्र मांझी का वेबसाइट दलित दस्तक के लिए एक वीडियो इंटरव्यू किया था। उनसे बातचीत के दौरान मांझी जी और उनके परिवार के आर्थिक, सामाजिक हालात के बारे में पता चला। भूपेंद्र कुमार कहते हैं, “रामचन्द्र मांझी की आर्थिक हालात उन्हें 2021 में पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद भी बहुत बेहतर नहीं हुई थी। जिस गांव में वह रहते थे वहां उनके घर तक गांव की मुख्य सड़क भी नहीं आती थी। पगडंडी थी एक, बस। डीएम फंड से उनके घर में कुछ दिन पहले ही शौचालय बना था। बिहार के किसी अन्य ग्रामीण दलित मोहल्ले की तरह उनका मोहल्ला था। उन्हें कई तरह के सरकारी आश्वासन मिले थे पर सब कुछ हवाई हस्ताक्षर की तरह ही था।”

तस्वीर साभार: News18

यह पूछने पर कि पद्मश्री सम्मान को लेकर रामचंद्र मांझी क्या सोचते थे या उनके आसपास के लोगों की क्या राय थी ‘नाच’ में उनके लौंडा के रोल को निभाने लेकर, तब भूपेंद्र कुमार ने बताया कि जब वह मांझी जी से मिलने गए थे उन्होंने उन्हें पीपल के पेड़ के नीचे बैठे खैनी बनाते पाया। वहां से वे लोग मांझी जी के घर गए थे। करकट की छत से पटा हुआ था उनका घर। इंटरव्यू के बीच-बीच में मक्खियां उन पर बैठ रहीं थीं। वह उन्हें एक हाथ से हल्के-हल्के उड़ाते हुए बात कर रहे थे।

“उनके गांव में उच्च जातियों के साथ कुछ ओबीसी जातियां भी रहती हैं। उनका व्यवहार मांझी जी को लेकर सम्मानजनक नहीं है। मैंने जब इस गांव में रहने वाले एक ओबीसी व्यक्ति से बात की तो उसने कहा, “चमरवा राजा हो गया है” यानी वह मांझी जी की जाति का ज़िक्र करते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान मिलने पर व्यंग्य कर रहा था।”

“वह इस बात से खुश थे कि उन्हें सम्मान मिलने के कारण ‘नाच’ और भिखारी ठाकुर का जीवन, काम, संघर्ष ज्यादा लोगों तक पहुंचेगा। वह आने वाली पीढ़ी तक इस परंपरा को पहुंचाने को लेकर हमेशा चिंतित रहते थे, उन्हें भोजपुरी भाषा और स्टेज़ परफॉर्मेंस में ऑरकेस्ट्रा और बढ़ती अश्लीलता परेशान करती थी। जब वह कह रहे थे कि शायद अब सरकार ‘नाच’ सिखाने-पढ़ाने के लिए कोई काम करेगी, लोग सही तरह से इसे सीख पाएंगे, यह लोक कला मरेगी नहीं, तब उनकी आंखों में आंसू आ रहे थे। शायद यह लंबी निराशा के बाद मिली थोड़ी उम्मीद को प्रमाणित करते हुए आंसू थे। उनके गांव में तथाकथित उच्च जातियों के साथ कुछ ओबीसी जातियां भी रहती हैं। उनका व्यवहार मांझी जी को लेकर सम्मानजनक नहीं है। मैंने जब इस गांव में रहने वाले एक ओबीसी व्यक्ति से बात की तो उसने कहा, “चमरवा राजा हो गया है” यानी वह मांझी जी की जाति का ज़िक्र करते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान मिलने पर व्यंग्य कर रहा था।”

भूपेंद्र कुमार का मानना यह भी है कि अगर इस लोक कला के जनक और इसे परफॉर्म करनेवाले लोग तथाकथित उच्च जातियों के लोग होते तो इसे अब तक एक स्तर की पहचान मिल चुकी होती, शायद इसपर फेलोशिप मिल रही होती, ज़्यादा से ज़्यादा शोध का काम हो रहा होता। लेकिन जैनेंद्र दोस्त के अलावा भूपेंद्र कुमार के जहन में इस पर ठोस काम करने वाले किसी व्यक्ति का नाम नहीं आता। भूपेंद्र कुमार का मानना है कि रामचंद्र मांझी एक समर्पित कलाकार के रूप में कम से कम अपने वक़्त के आख़री पड़ाव में और बेहतर जीवन के हक़दार थे। यह न केवल कलाकार बल्कि बिहार की लोक कला के साथ हुई एक त्रासदी ही है।

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‘नाच’ के कई पहलू हैं जिन पर बात होनी चाहिए

‘नाच’ पर पहले जो भी काम हुआ था उस में उसे केवल ‘बिदेसिया’ या भिखारी ठाकुर का नाटक कहकर ‘नाच’ के जितने सम्भव व्याख्यान हो सकते हैं उसे सीमित कर दिया गया। इस विषय पर पहली बार विस्तृत रिसर्च आर्ट एंड एस्थेटिक विभाग, जेएनयू से जैनेंद्र दोस्त ने की। वह बताते हैं, “मेरे काम से पहले इसी सब्जेक्ट को भिखारी ठाकुर का नाटक बोल के या ‘बिदेसिया’ बोलकर अकादमिक दुनिया में ऐसे लिखा-पढ़ा गया है। लेकिन कभी इस आर्ट फॉर्म के ऊपर बात नहीं की गई थी कि आख़िर यह है क्या। एक आर्ट फॉर्म की एथनोग्राफिक लेवल पर स्टडी करना, गांव में जाकर, इंटरव्यू कर के नहीं हुआ था। पहली बार इस फॉर्म के ऊपर मैंने यह काम शुरू किया और इसके हर एक पहलू पर काम करने की मैंने कोशिश की। पहला ‘नाच’ का जो सबसे महत्वपूर्ण पार्ट है, जिस पर सबकी नज़र जाती है, वह है क्रॉस ड्रेस।” क्रॉस ड्रेस शब्द जाने बिना कई लोग रोज़गार की तलाश में इस कला से जुड़ते हैं। 

‘नाच’ के कई ऐसे पहलू हैं जिन पर काम किया जाना चाहिए। कई लोग जो ‘नाच’ में औरतों के रोल निभाते हैं, वे जेंडर आधारित पहचान और सेक्सुअल आइडेंटिटी के हिसाब से भी खुद को हर वक़्त/किसी भी वक़्त ‘पुरुष’ नहीं महसूस रहे होते, वहीं कई लोग क्रॉस ड्रेस करने को केवल कलात्मक रूप में ले रहे होते हैं। इस पर और विस्तृत रिसर्च प्रोजेक्ट्स करने की जरूरत है।

रामचंद्र माझी के पहले से ही ‘नाच’ था, और भी लोग थे। रामचंद्र माझी के माध्यम ये तो हम बात कर ही रहे हैं, लेकिन इस फील्ड में आने का जो मुख्य कारण है, क्यों आते हैं इसमें?” सबसे पहली बात कि आर्ट आपके अंदर आ जाता है तो आप उसके लिए कुछ भी करते हैं। जैसे लौंडा नाच में कई ऐसे कलाकार हैं जो मेल कैरक्टर करते हैं पर जरूरत पड़ने पर फीमेल कैरेक्टर को भी शामिल किया जाता है। दूसरा है रोज़ी-रोटी चलाने के लिए। गांव में अनपढ़ लोगों का समाज है, कोई पढ़ा-लिखा नहीं है उस तरीक़े से, कुछ रोज़गार नहीं है। वहां पर दिखता है कि एक आर्ट फॉर्म है, यहां जाने से काम मिल जाएगा। ‘क्रॉस ड्रेस’ शब्द कभी दिमाग़ में ही नहीं आता है। अभी बस उसको मंडली में जाना है, वहां जाने से काम मिलने लगता था, रोज़ी-रोटी मिलती थी, ‘नेम-फेम’ भी मिलता था लोगों को। लेकिन गालियां भी मिलती थीं। कुछ लोग कहते हैं नाच-बाजा वाला है लेकिन एक इज़्ज़त भी होती है। मतलब यह समाज बंटा हुआ है। लेकिन वही है कि कोई भी ‘लड़कियों वाली चीजें’ कोई लड़का करता है तो उसपर व्यंग किया जाता है, जैनेंद्र दोस्त कहते हैं।”

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जैनेंद्र दोस्त बताते हैं, “रामचंद्र मांझी ने जब काम शुरू किया उस समय उनका परिवार बहुत गरीब था। बगल में उनके चाचा नाच मंडी चलाते थे, वहां जाकर बैठते थे यह। तो एक दिन चाचा ने पूछा कि गाएगा, इन्होंने हां कर दी। चाचा ने इनको सिखाया, इनके बापू जी से बात की, बापू सोचे क्या करेगा रोज़ी-रोटी के लिए और हां कर दी, फिर गए यह ‘नाच’ में। इनको कहा गया कि तुम अच्छा गाते हो लेकिन तुमको साड़ी पहननी पड़ेगी। उनको लगा कि उस्ताद ने कह दिया तुम अच्छा करते हो तो मुझे साड़ी पहनने में दिक़्क़त नहीं है। लेकिन समाज कैसा है देखिए कि साड़ी पहनना तो दूर की बात है आप जरा हाथ मटका दें तो आपकी शिकायत हो जाती है। आज भी है ऐसा। समाज बहुत बदला नहीं है। हर नाच मंडली में साड़ी पहनने वाले को लेकर समाज का यही नज़रिया था। जेंडर की जो परिभाषा समाज ने गढ़ी है उससे अलग कुछ हो तो दिक़्क़त है। ‘लौंडा’ शब्द गाली के रूप में, नीचा दिखाने के लिए जोड़ा गया। कुछ भी ऐसा जो ‘मेल’ ‘फीमेल’ की बाउंड्री को तोड़ता है उससे दिक़्क़त है समाज को। उसके लिए तमाम किस्से कहानियां गढ़े जाएंगे। एक भोजपुरी कहावत है कि ‘नाचल से बाचल’ कहां मतलब जो नाच में है वह ‘बच’ नहीं सकता। कहां से, किस चीज़ से नहीं बच सकता है, ये आप समझिए। लॉयल नहीं है, बहुत चीजें, सब गंदे सेंस में। कहानियां बनती हैं, कहावतें बनती हैं, गालियां बनती हैं।”

डीएम के कहने पर जब मांझी जी के घर शौचालय बनाया जा रहा था तब किसी स्थानीय सरकारी विभाग के प्रतिनिधि से मांझी जी के बेटे ने टॉयलेट सीट की गुणवत्ता को लेकर जब पूछा तो उन्हें जवाब मिला कि बाहर शौच करने वालों के घर शौचालय बन रहा है यही बड़ी बात है।

हालांकि बात यह भी है कि समाज जो करता है और जो दिखाता है उसमें उसका दोहरापन झलकता है। गांव में कई लोग छिपकर आपसी सहमति से समलैंगिक रिश्तों में रहते हैं, लेकिन सवाल यह है कि उन्हें इस बारे में चुप रहने की जरूरत क्यों महसूस होती है? जब उनके आसपास रामचंद्र मांझी जैसे कलाकार मंच पर ‘क्रॉस ड्रेस’ कर रहे हैं? किस तरह के नाम/गालियां/तिरस्कार/हिंसा से वे डरते हैं? जाति और आर्थिक पहचान के साथ ही जेंडर, सेक्सुअलिटी की नज़र से ‘नाच’ के कई व्याख्यान सम्भव हैं। ‘नाच’ के कई ऐसे पहलू हैं जिन पर काम किया जाना चाहिए। कई लोग जो ‘नाच’ में औरतों के रोल निभाते हैं, वे जेंडर आधारित पहचान और सेक्सुअल आइडेंटिटी के हिसाब से भी खुद को हर वक़्त/किसी भी वक़्त ‘पुरुष’ नहीं महसूस रहे होते। वहीं कई लोग क्रॉस ड्रेस करने को केवल कलात्मक रूप में ले रहे होते हैं। इस पर और विस्तृत रिसर्च प्रोजेक्ट्स करने की ज़रूरत है।

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‘नाच’ की कला और कलाकारों का उचित सम्मान उनके हिस्से कब आएगा?

रिपोर्टर भूपेंद्र कुमार ने जो शौचालय वाली बात बताई थी, उस पर जैनेंद्र दोस्त ने जो अन्य बातें मुझे बताई वे काफ़ी निराशाजनक थीं। डीएम के कहने पर जब मांझी जी के घर शौचालय बनाया जा रहा था तब किसी स्थानीय सरकारी विभाग के प्रतिनिधि से मांझी जी के बेटे ने टॉयलेट सीट की गुणवत्ता को लेकर जब पूछा तो उन्हें जवाब मिला कि बाहर शौच करने वालों के घर शौचालय बन रहा है यही बड़ी बात है। यहां प्रतिनिधि का ऐसा कहना समाज की जाति और आर्थिक पहचान की भेदभाव वाली मानसिकता के आगे कलाकार (इंसान) की इज़्ज़त नहीं करने का नमूना है। प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजनाएं कोरोना काल में ठीक से नहीं चल रहीं थीं इसलिए उनका घर अच्छे से नहीं बन पाया। 

‘नाच’ जैसी कला को अगर सरकार की तरफ से संरक्षण मिलता, कलाकारों को कम से कम बुनियादी सुविधाएं मिलतीं तो शायद मांझी जी अपनी कला को अपने परिवार में आगे विरासत के रूप में दे पाते, या उनके घर के सदस्य खुद इस कला को अपनाते।

रामचंद्र मांझी के चार बेटे, दो बेटियां हैं। एक बेटा गांव में खेती करता है, अन्य बेटे दिल्ली में कारखाने में छोटे-मोटे काम करते हैं। उनकी पत्नी नहीं हैं, उनकी देखभाल के लिए पोती पिंकी या पोते विपिन में से कोई हमेशा उनके साथ होता था। इसके अलावा दिल्ली में काम कर रहे बड़े बेटे की पत्नी भी समय-समय पर मिलने जाते थे। ‘नाच’ जैसी कला को अगर सरकार की तरफ से संरक्षण मिलता, कलाकारों को कम से कम बुनियादी सुविधाएं मिलतीं तो शायद मांझी जी अपनी कला को अपने परिवार में आगे विरासत के रूप में दे पाते, या उनके घर के सदस्य खुद इस कला को अपनाते। इस लोक कला को आप किसी सांस्कृतिक कला विधा की तुलना में देखिए। आप पाएंगे कि जहां सांस्कृतिक कला के घराने होते हैं, पीढ़ी दर पीढ़ी उसे आगे बढ़ने का मौका होता है, ‘नाच’ और रामचन्द्र मांझी के केस में ऐसा सम्भव नहीं हुआ। बिहार की इस कला और संस्कृति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इलाक़े के एमपी भी कभी मांझी जी से मिलने नहीं गए।

जैनेंद्र दोस्त का मानना है कि समाज बंटा हुआ है। जहां कुछ लोग ‘नाच’ और उसमें फीमेल रोल करने वालों को गालियां देते हैं वहीं कई लोग उनका सम्मान भी करते हैं। जैनेंद्र दोस्त एक बड़ी रोचक बात कहते हैं, “महिलाओं को मांझी जी से बड़ा प्रेम था। बाबा-बाबा कहती थीं। अपने मन की बात साझा करतीं।” उनके गांव के कुछ तथाकथित उच्च जाति के लोग भी उनसे स्नेह रखते थे। 2021 में पद्मश्री मिलने के अलावा 2017 में रामचंद्र मांझी को संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला था। बीते 7 सितंबर को लंबी बीमारी के चलते उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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तस्वीर साभार: iChowk

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