इंटरसेक्शनलजेंडर मेडिसिन के क्षेत्र में हो रहे पुरुष-केंद्रित अध्ययन कर रहे हैं महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित

मेडिसिन के क्षेत्र में हो रहे पुरुष-केंद्रित अध्ययन कर रहे हैं महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित

पुरुष-केंद्रित चिकित्सा अनुसंधान सदियों से चलन में है। दुनियाभर में महिलाएं आज भी इसके प्रभावों को महसूस कर रही हैं। पुरुष-केंद्रित चिकित्सा अनुसंधान के कारण जब दवाइयां बनाई जाती हैं तो वे भी लिंग विशिष्ट दवा होती हैं। लेकिन उनका उपयोग महिलाओं और पुरुषों दोनों पर किया जाता है।

ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉरेन अल्परट मेडिकल स्कूल में आपातकालीन चिकित्सा की एसोसिएट प्रोफेसर, एलिसन मैकग्रेगर , एमडी को जब पहली बार पता चला कि महिलाओं को मेडिकल अध्ययन से बाहर रखा गया है, तो वह चौंक गईं। एलिसन के मुताबिक, “ऐसी धारणा है कि शोध निष्पक्ष और संतुलित तरीके से किया जाता है। मेडिकल स्कूल में हम यही सीखते हैं। लेकिन उन्होंने हमें कभी नहीं बताया कि शोध किस पर किया गया था। यह तथ्य अनजाने में एक ऐसी प्रणाली को कायम रखता है जो पुरुष शरीर विज्ञान और अनुभव पर केंद्रित है।”

परिणामस्वरूप चिकित्सा निदान के समय महिलाओं को बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर अस्पष्ट सीने में दर्द, थकान और मतली वाली महिला को भावनात्मक रूप से तनाग्रस्त /नर्वस माना जा सकता है और संभावित दिल के दौरे के रोगी के बजाय चिंता-विरोधी (एंटी-एंग्जायटी) दवा दी जा सकती है क्योंकि महिलाओं को दिल के दौरे के दौरान सीने में दर्द और बाएं हाथ में दर्द का अनुभव नहीं होता है जो पुरुषों को होता है।

मैकग्रेगर ने इसी पर एक किताब ‘सेक्स मैटर्स: हाउ मेल-सेंट्रिक मेडिसिन एंडेंजरस विमेंस हेल्थ एंड व्हाट वी कैन डु अबाउट इट’ लिखी। इस किताब में मैकग्रेगर ने उन सभी बीमारियों और उनसे संबंधित लक्षणों और दवाओं पर पर बात की है जो पुरुष और महिलाओं में अलग-अलग होते हैं लेकिन पुरुष केंद्रित मेडिकल शोध होने के कारण इसके दुष्परिणाम महिलाओं पर दिखाई देते हैं। उनके अनुसार महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कुछ सबसे बड़े मुद्दे, जिनमें हृदय रोग, चिकित्सकीय दवाओं का उपयोग, दर्द विकार और प्रबंधन, और महिला जैव रसायन और हार्मोन शामिल हैं। वह यह भी बताती हैं कि नस्ल, लिंग, जातीयता और धर्म संबंधित चिकित्सा उपचार और परिणामों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।

यह कहना कि पिछले 100 वर्षों में लैंगिक समानता ने एक लंबा सफर तय किया है, गलत नहीं होगा। फिर भी, आज भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि हम अभी भी ‘पुरुषों की दुनिया” में रह रहे हैं। जब भी मेडिकल रिसर्च की बात आती है तो अक्सर पुरुष शरीर को ही ‘डिफ़ॉल्ट’ के रूप में देखा जाता है। यह एक पूर्वाग्रह है जो महिलाओं के लिए अवसरों को सीमित करता है और उनके जीवन को खतरे में डालता है। बात जब चिकित्सा की आती है, तो हम सब यह सोचते हैं कि इस क्षेत्र में चीजें थोड़ी अलग होंगी, लेकिन दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है।

चिकित्सा जगत में महिलाओं की बीमारियों का नियमित रूप से गलत इलाज किया जाता है और उन्हें कम सेवा दी जाती है। उदाहरण के लिए जिस तरह से डॉक्टर हृदय रोगों का इलाज करते हैं उससे पता चलता है कि पक्षपातपूर्ण प्रणाली महिलाओं के लिए कितनी हानिकारक हो सकती है।

पुरुष केंद्रित मेडिकल रिसर्च सदियों से चलन में है। दुनियाभर में महिलाएं आज भी इसके प्रभावों को महसूस कर रही हैं। पुरुष-केंद्रित मेडिकल रिसर्च के कारण जब दवाइयां बनाई जाती हैं तो वे भी लिंग विशिष्ट दवा होती हैं। लेकिन उनका उपयोग महिलाओं और पुरुषों दोनों पर किया जाता है। चिकित्सा क्षेत्र इतना पुरुष-केंद्रित था/है कि इसका एक नज़रिया यह है कि एक महिला एक ‘छोटी पुरुष’ होती है। चिकित्सा के शुरुआती दिनों से ही महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता रहा है। ‘ऑन द जेनरेशन ऑफ एनिमल्स’ में, ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने एक महिला को एक कटे-फटे पुरुष के रूप में चित्रित किया है। यह धारणा पश्चिमी चिकित्सा संस्कृति में भी कायम रही। नतीजतन, अधिकांश बीमारियों का इलाज केंद्र में पुरुषों को रखकर किया गया। दुर्भाग्य से, इस पूर्वाग्रह के कारण आधुनिक चिकित्सा का विकास हुआ जिसमें लैंगिक भेदभाव पर विचार नहीं किया गया, जिसके परिणामस्वरूप दुखद मामले सामने आने लगे।

आज महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल के सामने आनेवाले सबसे ज़रूरी, फिर भी अनकहे मुद्दों में से एक मुद्दा लिंग विशिष्ट दवाओं (जेंडर स्पेसिफिक मेडिसिन) का है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मेडिकल रिसर्च एंड प्रैक्टिस के लगभग सभी मॉडल पुरुष-केंद्रित मॉडल पर आधारित हैं जो कि मेडिसिन के क्षेत्र में एक चूक है जो महिलाओं के जीवन को खतरे में डालती है। पुरुष-केंद्रित दवा महिलाओं के स्वास्थ्य पर हर दिन कैसे प्रभाव डालती है, इसके बारे में तथ्य चौंकाने वाले हैं।

इमरजेंसी रूम में, महिलाएं अपने दर्द के बारे में जितनी अधिक मुखर होंगी, उतनी ही अधिक संभावना होगी कि उनका इलाज करने वाले डॉक्टर अपर्याप्त या अनुपयुक्त दर्द निवारक दवाएं लिखेंगे। महिलाओं में अक्सर स्ट्रोक के गैर-पारंपरिक लक्षण मौजूद होते हैं, जिससे उन्हें और उनके स्वास्थ्य पेशेवरों दोनों को पहचानने में देरी होती है और एक अध्ययन में पाया गया है कि दवा कंपनियों द्वारा बाजार से 80% दवाएं वापस सिर्फ इसलिए ली गई क्योंकि उनके दुष्प्रभाव महिलाओं पर अधिक होते हैं।

लैंगिक पूर्वाग्रह ने न केवल मेडिकल रिसर्च को संक्रमित किया हुआ है, बल्कि महिलाओं को व्यवस्थित रूप से मेडिकल अध्ययनों से बाहर कर दिया गया है।

डॉक्टर अपने मरीज़ों के सर्वोत्तम हित में काम करने का वादा करते हैं। फिर भी, कुछ मामलों में, वे अनजाने में आधी आबादी (महिलाओं) को नुकसान पहुंचा रहे हैं क्योंकि आधुनिक चिकित्सा एक पुराने मॉडल पर आधारित है जो पुरुषों और महिलाओं के बीच जैविक अंतर को खारिज कर देती है। चिकित्सा जगत में महिलाओं की बीमारियों का नियमित रूप से गलत इलाज किया जाता है और उन्हें कम सेवा दी जाती है।

उदाहरण के लिए जिस तरह से डॉक्टर हृदय रोगों का इलाज करते हैं उससे पता चलता है कि पक्षपातपूर्ण प्रणाली महिलाओं के लिए कितनी हानिकारक हो सकती है। महिलाओं में स्ट्रोक अनोखे तरीकों से दिखाई देता है। स्ट्रोक का अनुभव होने पर महिलाओं के शरीर के एक तरफ की कार्यप्रणाली अचानक खत्म होने (जैसा कि पुरुषों में आम है) के बजाय उनमें माइग्रेन जैसा सिरदर्द हो सकता है या उनकी मानसिक या भावनात्मक स्थिति में अचानक बदलाव हो सकता है। इन गैर-पारंपरिक लक्षणों का मतलब यह हो सकता है कि महिलाओं और उनके स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को यह महसूस करने में अधिक समय लग सकता है कि कुछ गलत है, और इससे उनकी देखभाल में देरी हो जाती है। ऐसे में जब महिलाओं का इलाज किया जाता है, तो लक्षणों को समझने में और उन्हें समय पर उचित इलाज या दवा मिलने की संभावना कम होती है।

यह कहना कि पिछले 100 वर्षों में लैंगिक समानता ने एक लंबा सफर तय किया है, गलत नहीं होगा। फिर भी, आज भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि हम अभी भी ‘पुरुषों की दुनिया” में रह रहे हैं। जब भी डिजाइन और अनुसंधान की बात आती है तो अक्सर पुरुष शरीर को ही ‘डिफ़ॉल्ट’ के रूप में देखा जाता है। यह एक पूर्वाग्रह है जो महिलाओं के लिए अवसरों को सीमित करता है और उनके जीवन को खतरे में डालता है।

यह तथ्य कोई रहस्य नहीं है कि अधिकांश वैज्ञानिक शोध पुरुषों पर किए जाते हैं। फिर वैज्ञानिक अनुसंधान सिर्फ अकादमिक पत्रिकाओं में ही नहीं रहता। ये निष्कर्ष चिकित्सकों द्वारा वास्तविक लोगों के इलाज के लिए उपयोग की जाने वाली क्लिनिकल ​​​​योजनाओं को रेखांकित करते हैं। एलिसन मैकग्रेगर के अनुसार “संपूर्ण चिकित्सा देखभाल प्रणाली को बीमारी के पैटर्न को देखने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। लेकिन क्योंकि ये पैटर्न पुरुषों पर वर्षों के शोध पर आधारित हैं, जब आप अपने डॉक्टर के पास जाते हैं या आपातकालीन विभाग में आते हैं, तो कई बार महिलाओं में रोग की स्थिति की पहचान नहीं हो पाती है।”

महिलाओं को शोध से क्यों हटाया गया?

साल 1974 के राष्ट्रीय अनुसंधान अधिनियम ने अमेरिका में मेडिकल रिसर्च में शामिल ‘ह्यूमन सब्जेक्ट्स’ की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नैतिक सिद्धांतों और दिशानिर्देशों की स्थापना की। इसने गर्भवती महिलाओं को ‘असुरक्षित’ आबादी के रूप में वर्गीकृत किया और उन्हें महिला और भ्रूण के स्वास्थ्य और सुरक्षा की रक्षा के लिए अध्ययनों में भाग लेने से बाहर रखा। इसके अलावा कुछ अन्य कारक भी हैं जिनके कारण महिलाओं का वैज्ञानिक अध्ययन में शामिल होना अधिक जटिल भी है।

एलिसन मैकग्रेगर के अनुसार, “संपूर्ण चिकित्सा देखभाल प्रणाली को बीमारी के पैटर्न को देखने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। लेकिन क्योंकि ये पैटर्न पुरुषों पर वर्षों के शोध पर आधारित हैं, जब आप अपने डॉक्टर के पास जाते हैं या आपातकालीन विभाग में आते हैं, तो कई बार महिलाओं में रोग की स्थिति की पहचान नहीं हो पाती है।”

जैसे पीरियड्स के दौरान हार्मोन में उतार-चढ़ाव कई तरह के बदलाव पैदा करते हैं। शोध के दौरान इन बदलावों को ध्यान में रखने के लिए, शोधकर्ताओं को यह निर्धारित करने के लिए महिलाओं का परीक्षण करना होगा कि वे अनुसंधान समयरेखा के हर स्तर पर अपने चक्र में कहां हैं। इससे अध्ययन आयोजित करने की लागत बढ़ जाती है। मैकग्रेगर के अनुसार “अनुसंधान पद्धति को आसान बनाने और सभी भ्रमित करने वाले कारकों को हटाने की ज़रूरत है। महिलाओं को जटिल माना जाता था और इसलिए उन्हें हटा दिया गया।

रिसर्च की कमी और दवाओं का महिलाओं का दुष्प्रभाव

महिलाएं पुरुषों की तुलना में प्रिस्क्रिप्शन दवाओं का सेवन भी अलग तरीके से करती हैं। चूंकि क्लिनिकल परीक्षण बड़े पैमाने पर पुरुष सब्जेक्ट्स पर किए जाते हैं और खुराक संबंधी दिशानिर्देश पुरुषों और महिलाओं के लिए समान होते हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाएं ऐसे दुष्प्रभावों का अनुभव कर सकती हैं जिनका शोध में उल्लेख नहीं किया गया होता है। ज़ोलपिडेम के साथ भी यही हुआ, जिसे अक्सर ब्रांड-नाम दवा ‘एंबियन’ के रूप में निर्धारित किया जाता है। साल 2013 में, जब हजारों महिलाओं ने मानसिक भ्रम, नींद में चलने और यहां तक ​​कि नींद में गाड़ी चलाने जैसे प्रतिकूल लक्षणों की सूचना दी, तो अमेरिका की खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने दवा के लिए लिंग-विशिष्ट नुस्खे दिशानिर्देश जारी किए। यह इस दवा के पहली बार जारी होने के लगभग 20 साल बाद हुआ।  

थैलिडोमाइड नामक दवा, जिसे मॉर्निंग सिकनेस का चमत्कारिक इलाज कहा जाता था, इसने लिंग विशिष्ट दवा के क्षेत्र में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया। थैलिडोमाइड को पहली बार साल 1953 में विकसित किया गया था और 1957 में इसे बाज़ार में लाया गया। इस दवा का क्लिनिकल ​​​​परीक्षण ठीक से नहीं किया गया था। प्रेग्नेंसी के दौरान इस दवा के सेवन ने करीब दस हज़ार से अधिक लोगों को प्रभावित किया। इसमें से 40 फीसदी लोगों की मौत प्रसव के तुरंत बाद या उस दौरान ही हो गई थी।

इस दवा को ‘बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव वाली एक चमत्कारी दवा’ के रूप में विज्ञापित किया गया था। इसे सेडेटिव और नींद की गोली के रूप में बेचा गया था जिसे दुनिया भर के लगभग 50 देशों में डॉक्टर के पर्चे के बिना खरीदा जा सकता था। कई गर्भवती महिलाएं इसका उपयोग करती थीं, विशेष रूप से सुबह की मतली से राहत पाने के लिए। हालाँकि, इसके खतरे का पता तब चला जब 1960 से 1961 के बीच इस दवा का सेवन करने वाली गर्भवती महिलाओं ने जन्मजात विकलांग बच्चों को जन्म दिया। इस दवा के प्रभाव के कारण 1962 में बिक्री पूरी तरह से निलंबित होने तक, 10,000 से अधिक बच्चे पैदा हुए थे । दवा पर शोध से पता चला कि गर्भावस्था के 42वें दिन से पहले इसे लेने से एक बच्चे का जन्म हुआ, जिसके अंग गायब थे, अंग बहुत छोटे थे, उंगलियों या पैर की उंगलियों का पूरी तरह से अभाव था या उनकी कुछ उंगलियां गायब थीं।

चूंकि क्लिनिकल परीक्षण बड़े पैमाने पर पुरुष सब्जेक्ट्स पर किए जाते हैं और खुराक संबंधी दिशानिर्देश पुरुषों और महिलाओं के लिए समान होते हैं। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाएं ऐसे दुष्प्रभावों का अनुभव कर सकती हैं जिनका शोध में उल्लेख नहीं किया गया होता है।

यह एक तथ्य है कि हृदय रोग, अवसाद, एड्स जैसी बीमारियां महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करती हैं। साथ ही यह भी एक तथ्य है कि बीमारियों, इलाज और परिणामों पर कई चिकित्सा अध्ययन, चाहे कम या अधिक लागत वाले, अल्पकालिक या दीर्घकालिक, सभी का उपयोग पुरुषों को लेकर करके किए गए हैं। यहां तक कि स्तन कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी की दवाओं  सुरक्षा और प्रभावकारिता का परीक्षण भी केवल पुरुषों पर किया जा रहा है, लेकिन इन्हें महिलाओं को भी दिया जाता है। लैंगिक पूर्वाग्रह ने न केवल मेडिकल रिसर्च को संक्रमित किया हुआ है, बल्कि महिलाओं को व्यवस्थित रूप से मेडिकल अध्ययनों से बाहर कर दिया गया है। आज के समय में लिंग/जेंडर-विशिष्ट चिकित्सा महत्वपूर्ण है क्योंकि एक ही बीमारी के लिए भी, पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर होता है, और कारणों की पहचान करने और उपचार प्रदान करने के लिए एक अलग दृष्टिकोण आवश्यक है।


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