इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत गाँव में बिजली का ज्यादातर खराब रहना गंवई और श्रमशील स्त्रियों पर सामाजिक व्यवस्था की दोहरी मार है

गाँव में बिजली का ज्यादातर खराब रहना गंवई और श्रमशील स्त्रियों पर सामाजिक व्यवस्था की दोहरी मार है

विकास के नाम पर यहां कितना कुछ कहा-सुना जाता है लेकिन सब कागजी ज्यादातर होता है। यहां के तमाम संकटों में बिजली का संकट बहुत बड़ा संकट है जिससे स्वास्थ्य भी काफी हद तक प्रभावित होता है। यहां के सारे संकटों को स्त्रियां सबसे ज्यादा झेलती हैं क्यों कि सत्ता की प्राथमिक इकाई परिवार है और परिवार की सत्ता में उनकी भागीदारी हमेशा से दोयम दर्जे की रही है।

गाँव में बिजली का संकट एक ऐसी समस्या है जिससे गाँव की स्त्रियों का जीवन बहुत कठिन हो जाता है। कभी-कभी इस संकट के चलते उनका जीवन दुर्घटनापूर्ण भी हो जाता है। विशेषकर गर्मी और बरसात के मौसमों में उन्हें सबसे ज्यादा दिक्कत होती है। इन मौसमों में सांझ से गाँव में घुप्प अंधेरा हो जाता है और इन्हीं मौसमों में गाँव में बिजली अक्सर नहीं आती। खूब गर्मी पड़ने के कारण और बरसात हो जाने के कारण घरों से लेकर खेत-खलिहान तक साँप बिच्छू निकलते रहते हैं। गाँव में अधिकतर पुरुष बेरोज़गारी के कारण नौकरी करने शहरों में चले जाते हैं स्त्रियां घर से लेकर खेती तक का काम करती हैं। पशुपालन की ज़िम्मेदारी भी उन पर होती है। पुरुष अगर शहर नहीं गया है रोज़गार के लिए तब भी ज्यादातर काम महिलाओं के जिम्मे ही पड़ता है।

गांवों में हर साल गर्मी और बरसात में सांप काटने से कितनी महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। अखबार के आंकड़ों को उठाकर देखा जाए तो गांवों में हर साल साँप काटने से सबसे ज्यादा मौत महिलाओं की ही होती है। इसका कारण हमारे भारतीय समाज की संरचना है।  गाँव में घर की रसोई बनाने से लेकर परिवार में सबको खाना परोसने का काम महिलाओं का होता है। पशुओं की हेल उठाने से लेकर चारा देना, उनका दूध निकालना सब गाँव में स्त्रियों के जिम्मे का काम है। वैसे भी पशुओं के रखने की जगह पर अँधेरा होता है। बिजली न रहने से वे अंधेरे में कैसे भी कर के खाना बनाती हैं और सबको खिलातीं हैं। एकदम घुप्प अंधेर में काम करते हुए हुए उनको बेहद असुविधा होती है लेकिन यही जीवन सदियों से औरतों के हिस्से में है और गाँव में इसमें कोई बदलाव अभी नजर नहीं आता है।

आज राज्य और समाज विकास और सांस्कृतिकरण के नाम जो भी कदम उठाता है हाशिये के समाज का उससे कहीं न कहीं दोहन ही हो रहा है। आज के कुछ साल पहले तक गाँव में मिट्टी का तेल मिलता था। मिट्टी का तेल निम्नमध्यवर्ग या निम्नवर्ग के घरों में चूल्हे में आग जलाने से लेकर प्रकाश का भी एक साधन होता था। आज सिलेंडर की मंहगाई और बिजली का नदारद रहना दोनों की मार स्त्रियां ही सबसे अधिक झेल रही हैं क्योंकि परिवार में रसोई की ज़िम्मेदारी उनपर ही रहती है। पहले जब मिट्टी का तेल मिलता था तब ढिबरी और लालटेन की रोशनी में औरतें बिजली न रहने पर भी अपना काम कर लेती थीं,  फिर राज्य-व्यवस्था ने मिट्टी का तेल बंद कर दिया अब उनका जीवन एकदम अंधेरे में है। कुछ लोग इमरजेंसी लाइट वैगरह खरीद कर लाते हैं लेकिन बिजली जब कई दिन तक नहीं आती तो इमरजेंसी लाइट वगैरह चार्ज कैसे हो क्योंकि चार्ज होने पर उसका उपयोग आप एक दिन तक ही कर सकते हैं।

घर और बच्चों की जिम्मेदारी महिलाओं के ऊपर होती है और उस श्रम को समाज में कोई अलग श्रम माना ही नहीं जाता। वहां जैसे ये सब काम स्त्रियों के लिए ही बने हैं और स्त्रियां इसे बिना किसी श्रम के कर लेती हैं। सामाजिक कंडीशनिंग ऐसी कि स्त्रियों को भी लगता है कि बच्चे की देखभाल और रसोई तो स्त्रियों का ही काम है उसे भला पुरुष कैसे कर सकता है।

गाँव में बिजली का ये हाल रहता है कि एक दिन ठीक रहती है तो एक हफ्ते खराब रहती है। गाँव में जो लोग आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं उनके घरों में इनवर्टर या सोलर पावर आदि की सुविधाएं हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या मुश्किल से दो चार लोगों की होगी। गाँव में बस चंद लोगों का जीवन है इन सुविधाओं में पलता है बाकी गाँव में ज्यादातर लोगों का जीवन इन सुविधाओं से कोसों दूर है। गाँव में अधिकतर लोगों का जीवन निम्नमध्यवर्गीय व निम्नवर्गीय है। उनके यहां बिजली कनेक्शन का होना ही बड़ी बात है। ये वर्ग मूलभूत सुविधाओं से अभी बहुत दूर है और जिस तरह की पूंजीवादी व्यवस्था है राज्य की उससे हाशिये के लोग और पीछे ही धकेले जा रहे हैं।

धान की रोपाई करके लौटीं अशर्फी देवी और उनकी बहू कुसुम देवी से बिजली के संकट पर बातचीत करने पर दोनों बताने लगीं कि कितनी कठिनाई से इन दिनों वे शाम को घर का काम करती हैं। कुसुम देवी के दो बच्चे हैं। शाम को उनकी सास असर्फी देवी उन्हें लेकर खटिया पर बैठती हैं तो कुसुम खाना बनाती हैं। इनके अधबने एक दो कमरे के ईंट के घर या तो पहले के बने कच्चे घर हैं जहां गर्मी बरसात में जहरीले जीव-जंतुओं निकलते रहते हैं। बच्चे गर्मी और अंधेरे से घबराकर रोते-बिलखते रहते हैं लेकिन उनके यहां न कोई रोशनी की व्यवस्था है न गर्मी से बचने की। कभी-कभी बच्चे रोते रोते माँ के पास चूल्हे तक चले जाते हैं तो उन्हें दुर्घटना का डर सताता है।  चूल्हा जलाकर वह खाना बनाती हैं तो अक्सर बच्चे धुंवे से परेशान हो जाते हैं और कभी-कभी आग के पास चले ही जाते हैं। कुसुम बताती हैं पिछले दिनों उनका छोटा बेटा आग से जल गया था।

गाँव कितने आधुनिक हो पाए हैं इसे ऐसे देख सकते हैं कि आज गांवों का हाल ये हो गया है कि विकास तो वहां नहीं पहुंच पाया लेकिन बाज़ार छलांग लगाकर पहुंच गया है। गाँव का समाज पहले से ही अधिक सामंती था अब कुछ सालों से बाजारवादी भी हो गया। उसका खामियाजा यहां दिख रहा है। विकास के नाम पर यहां कितना कुछ कहा-सुना जाता है लेकिन सब कागजी ज्यादातर होता है।

गाँव के घरों में आज ढिबरी और लालटेन नहीं उपलब्ध होने के कारण उनकी समस्या पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है। पहले कम से कम एक मध्यम उजाला हर घरों में रहता था। सरकार ने बिजली का वायदा करके मिट्टी का तेल बंद कर दिया और बिजली का कहीं कोई अता-पता ही नहीं रहता। गरीब मजदूर औरतों का जीवन इससे काफी हद तक प्रभावित हुआ है इस समय रोपनी के ही काम में लगी हुई रेखा देवी कहती है कि पहले दो लीटर मट्टी के तेल से काम चल जाता था और अब हर महीने बिजली का बिल भरना होता है। और बिजली खराब रहने से उससे हमें कोई सुविधा भी नहीं मिलती बल्कि आर्थिक कठिनाई ही बढ़ गयी है। रेखा पाँचवी तक पढ़ी हैं उनके बच्चे गाँव के प्राइमरी स्कूल में जाते हैं। दिन भर मेहनत-मजदूरी के बाद रात को रेखा बच्चों को थोड़ी देर पढ़ाना चहतीं हैं पर बिजली के नहीं रहने से बच्चों को जो पढ़ाती-लिखाती थीं वो भी छूट जाता है। अंधेरे में किसी तरह खाना बनाकर सब बच्चों खिला-पिला कर सुलाना ही गर्मी में बहुत कठिन काम होता है।

ये बात सच है कि समाज में हाशिये के वर्ग के स्त्री-पुरुष दोनों व्यवस्था की मार झेलते हैं लेकिन स्त्रियों का जीवन वहां पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा कठिन है। घर और बच्चों की जिम्मेदारी महिलाओं के ऊपर होती है और उस श्रम को समाज में कोई अलग श्रम माना ही नहीं जाता। वहां जैसे ये सब काम स्त्रियों के लिए ही बने हैं और स्त्रियां इसे बिना किसी श्रम के कर लेती हैं। सामाजिक कंडीशनिंग ऐसी कि स्त्रियों को भी लगता है कि बच्चे की देखभाल और रसोई तो स्त्रियों का ही काम है उसे भला पुरुष कैसे कर सकता है। हमारे गाँव की सीमा से सटा गाँव है बोधिपट्टी गाँव वहाँ की कुछ खेत मजदूर स्त्रियों से बिजली के संकट पर बात करते हुए देखा वे घर जाने के लिए बहुत जल्दी में दिखीं। मैंने कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि घर पहुंचकर जल्दी से खाना बनाने और पशुओं को चारा खिलाने दूध दुहने आदि का काम करना है। मैंने घर के पुरुषों के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि काम से लौटकर सीधे घर आते ही नहीं बाजार जाते हैं या रास्ते में दोस्तों के साथ बैठकर गप-शप करते है । तब तक स्त्रियां घर पहुंचकर रसोई को शुरू करती हैं। पशुओं का काम करती हैं और बच्चों की देखभाल करती हैं।

आज राज्य और समाज विकास और सांस्कृतिकरण के नाम जो भी कदम उठाता है हाशिये के समाज का उससे कहीं न कहीं दोहन ही हो रहा है। आज के कुछ साल पहले तक गाँव में मिट्टी का तेल मिलता था। मिट्टी का तेल निम्नमध्यवर्ग या निम्नवर्ग के घरों में चूल्हे में आग जलाने से लेकर प्रकाश का भी एक साधन होता था। आज सिलेंडर की मंहगाई और बिजली का नदारद रहना दोनों की मार स्त्रियां ही सबसे अधिक झेल रही हैं क्योंकि परिवार में रसोई की ज़िम्मेदारी उनपर ही रहती है।

ये गाँव में ज़्यादातर घरों का हाल है। अब अगर कोई कहे कि हाशिये का समाज है वहां स्त्री-पुरुष दोनों का जीवन श्रम के कारण चलता है तो इसमें देखना होगा कि फिर भी पुरुष समाज की सत्ता व्यवस्था में भागीदार है और ये सत्ता की भागीदारी में उसे स्त्रियों से कहीं अधिक कुछ विशेषाधिकार मिले होते हैं। जिसका लाभ उसे परिवार में भी मिलता रहता है। देखा जाता है कि पुरुषों से ज्यादा श्रम करती स्त्रियां भी इस बात को बस एक सामाजिक कंडीशनिंग की तरह देखती हैं। वहां कोई प्रतिरोध या रंज नहीं दिखता इस भेदभाव के लिए। बाहर से खटकर लौटने पर घर का काम करना वो अपने ही हिस्से का काम समझ कर करती हैं। उन्हें लगता है कि समाज में कुछ काम निर्धारित हैं जिन्हें स्त्री ही कर सकती है और इसी प्रकार कुछ काम पुरुषों के लिए भी निर्धारित होते हैं। बिजली नहीं रहने पर वे किसी भी तरह बच्चे संभालती और खाना बनाने का काम करके घर के पुरुषों को खाना परोसना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं।

गाँव कितने आधुनिक हो पाए हैं इसे ऐसे देख सकते हैं कि आज गांवों का हाल ये हो गया है कि विकास तो वहां नहीं पहुंच पाया लेकिन बाज़ार छलांग लगाकर पहुंच गया है। गाँव का समाज पहले से ही अधिक सामंती था अब कुछ सालों से बाजारवादी भी हो गया। उसका खामियाजा यहां दिख रहा है। विकास के नाम पर यहां कितना कुछ कहा-सुना जाता है लेकिन सब कागजी ज्यादातर होता है। यहां के तमाम संकटों में बिजली का संकट बहुत बड़ा संकट है जिससे स्वास्थ्य भी काफी हद तक प्रभावित होता है। यहां के सारे संकटों को स्त्रियां सबसे ज्यादा झेलती हैं क्यों कि सत्ता की प्राथमिक इकाई परिवार है और परिवार की सत्ता में उनकी भागीदारी हमेशा से दोयम दर्जे की रही है।


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