“मैंनूं बी.ए. पढ़ना माँ ए
मैंनूं सरलादेवी बनना माँ ए”
पंजाब की औरतें जिनके लिए ये गीत गाती थीं कि उन्हें सरला देवी बनना है, उनकी पहचान आपके मन में किस तरह उभरती है? क्या यह सच नहीं कि सरला देवी के परिचय के साथ सबसे पहले यह बताया जाता है कि वह रवींद्रनाथ टैगोर की भांजी थीं और महात्मा गाँधी उन्हें अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ मानते थे। सरलादेवी जैसी सशक्त नारीवादी और राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए यह परिचय खटकता है।
सरलादेवी का जन्म 9 सितंबर 1872 को बंगाल में हुआ। उनकी माँ स्वर्णकुमारी देवी बांग्ला की पहली उपन्यास लेखिका थीं। सरला एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी दिखाई। बंगाल से निकलने वाली पत्रिका ‘भारती’ में वह लेखन और संपादन कार्य करती रहीं। फ्रेंच, फ़ारसी, संस्कृत आदि भाषाओं में उनकी मजबूत पकड़ थी। इतना ही नहीं बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय लिखित राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ को उन्होंने कंपोज़ किया। सरला बहुत अच्छा गाती थीं। उनके मामा उनसे इस गीत को गाने के लिए कहते। बाद में गाँधी को भी सरला की आवाज़ में ‘वंदे मातरम्’ सुनना भाने लगा। साल 1910 में ही सरला ने ‘भारतीय स्त्री महामंडल‘ की स्थापना कर बहनापने की बात की। उनके आह्वान पर स्त्रियां जुलूस में शामिल होने लगीं थीं।
सरला ऐसे परिवार में बढ़ीं जहां स्त्रियों को ‘असूर्यम्पश्या’ कहा जाता है यानी जिन पर सूरज की धूप न पड़ी हो। ज़ाहिर है ऐसे माहौल में सरला को घुटन होने लगती थी। वह बाहर निकलना चाहती थीं। सरला ने अपनी माँ से कहा, “मुझे मैसूर में महारानी गर्ल्स स्कूल में नौकरी मिल गई है। मुझे जाने दो।” इस पर उनकी माँ भड़क गईं कि अब हमारे परिवार की लड़की कमाने के लिए अकेले बाहर जाएगी।
सरला ने कभी विवाह न करने की ठानी थी। उनके नाना ने इस बाबत कहा कि यदि सरला ने कभी विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर ली है, तो वह अपने जाने से पहले सरला का विवाह एक तलवार से कर देंगे। सरला इस खंडित आज़ादी को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थीं। उन्होंने तलवार से शादी करने से मना कर दिया। बाद ने उनकी माँ ने बीमारी के समय में आखिरी इच्छा जताई कि सरला विवाह कर ले। आखिरकार विवश होकर सरला ने 33 वर्ष की उम्र में रामभज दत्त चौधरी से विवाह कर लिया। रामभज पंजाब में स्वतंत्रता आंदोलन में बेहद सक्रिय थे और पत्रकारिता के साथ-साथ वकालत भी करते थे।
हिंदी में सरलादेवी पर बात उस तरह नहीं हुई है जिसकी वह हकदार हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के पितृसत्तात्मक रवैये ने उनको भुला दिया। उन पर कोई मुकम्मल किताब हिंदी में नहीं मिलती है। कथाकार अलका सरावगी ने इस कमी को पूरा करते हुए एक उपन्यास लिखा। उनका नया उपन्यास ‘गाँधी और सरलादेवी चौधरानी : बारह अध्याय‘ 2023 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास न सिर्फ़ गाँधी और सरला के संबंधों के बारे में प्रकाश डालता है बल्कि राष्ट्रीय आंदोलनों के पितृसत्तात्मक चरित्र को भी उभारता है।
अलका सरावगी ने इस उपन्यास को उन पत्रों के आधार पर लिखा है जो गाँधी और सरलादेवी ने एक-दूसरे को लिखे थे। सरला देवी के लिखे ज्यादातर पत्र तो नष्ट हो गए थे। गाँधी के सरला को लिखे पत्रों के आधार पर इस उपन्यास की संवेदना बुनी गई है। इन पत्रों में गाँधी अलग व्यक्ति नज़र आते हैं। एक पत्र में वह सरला को ‘प्यारी बहन सरला’ कहकर संबोधित करते हैं तो दूसरे में ‘माई डियर सरला’ तो तीसरे में यह ‘माई डियरेस्ट सरला’ हो जाता है। एक ही पत्र में गाँधी सरला को डांटते भी हैं। उन्हें ‘आत्मकेंद्रित’ तक कह देते हैं और उसी पत्र में दुलार भी लेते हैं। सरला इसका कुछ प्रतिवाद कर ही नहीं पाती हैं। जीवन में उनका भावनात्मक पक्ष कमजोर रहा है। उन्हें स्नेह मिला ही नहीं। हर जगह बौद्धिक बातें ही रहीं। जब गाँधी उनको थोड़ा-सा दुलार देते हैं तो जैसे वह सब कुछ भूल जाती हैं।
एक पत्र में गाँधी सरला को लिखते हैं, “तुम महान हो, नेक हो, लेकिन जब तक तुममें घरेलू कामकाज करने की क्षमता नहीं आती, तब तक तुम एक पूर्ण स्त्री नहीं हो सकती।” दूसरे पत्रों में भी गाँधी पूर्ण स्त्री होने की बात करते हैं। क्या एक स्त्री की पूर्णता इसी में है कि वह घरेलू कामकाज करे? गाँधी क्या यह नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं कि एक स्त्री चूल्हे-चौके से बाहर निकलकर भी कुछ काम करे। लेखिका सरला के मन को भांपते हुए कहती हैं, “क्या गाँधी की सोच उन पुरुषों से अलग है जो स्त्रियों को मूर्ख मानकर उन्हें अपने पैरों की जूती समझते हैं? जो गाँधी अखबार और पत्रिका में सरला की शिक्षा-दीक्षा-ज्ञान का बखान करते नहीं थकते थे, वे हर पत्र में उसे अपरिपक्व और तुनुकमिजाज बताने लगे हैं। सच ही है, कोई पुरुष स्त्री को अपने बराबर खड़ा हुआ नहीं देख सकता। गाँधी कोई अपवाद नहीं हैं। सरला ने उन्हें समझने में भूल की थी।”
लाहौर में स्वदेशी के लिए आयोजित तीन सभा में सरला ने भाषण दिया। वह भारत की गरीबी को स्वदेशी से ख़त्म करने की बात करती हैं। इस बाबत गाँधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा कि मेरी समझ में श्रोताओं पर सरलादेवी के भाषणों से अधिक असर उनकी खद्दर की साड़ी ने डाला; फिर उसके बाद उनके गायन ने। खद्दर की साड़ी स्वदेशी के लिए प्रतीक मात्र थी। गायन से बौद्धिकता की बजाय कला की झलक मिलती है। भाषण जिसमें एक व्यक्ति का विचार है, बौद्धिकता है, गाँधी उसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। क्या ये सरला के महत्व को कम करके आंकना नहीं है?
रामभज दत्त चौधरी को लिखे पत्र में गाँधी कहते हैं, “मेरी ज़िन्दगी में उसके आने के बाद से सुबह की मेरी प्रार्थना में कोई ईश्वर न होकर एक देवी होती है। इसलिए उसे सतर्क रहना होगा कि वह मेरी भक्ति के लायक बनी रहे।” ये विरोधाभास ही है जहां आप किसी को देवी बता रहे हैं और भक्ति के लायक होने का नैतिक भार भी उसी पर है। ये कैसा श्रेष्ठताबोध है जहां सामने वाले का वजूद आप निर्धारित कर रहे हैं। ये भारतीय समाज की उस रूढ़िवादिता से बिल्कुल अलग नहीं है जहाँ एक तरफ़ स्त्री को देवी कह दिया जाता है, दूसरी तरफ़ उसे इंसान तक नहीं समझा जाता है।
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गाँधी ने सरला के साथ अपने संबंधों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। जबकि यह बहुत ईमानदार आत्मकथा मानी जाती है। इस उपन्यास की संवेदना सरलादेवी के पक्ष में है। गाँधी पर सवाल खड़ा करने के बावज़ूद उनको ‘विलेन’ की तरह प्रस्तुत नहीं किया गया है। सरलादेवी और गाँधी को समझने के लिए यह उपन्यास एक नयी दृष्टि प्रदान करेगा।
बहुत सुंदर लिखा है, आयुष्मान। मुझे पहली बेर सरलादेवी के बारे में आपके लेख से पता चला। धन्यवाद! ऐसे ही लिखते रहिये।
… तुम स्वतंत्र आलोचक हो आयुष्मान , जो संतुलित सोच के साथ विचारों को व्यक्त करता है। ऐसे ही रहना…🌼
बहुत सुंदर… आलोचनात्मक विश्लेषण और उपन्यास को पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला..
बधाई..