इतिहास ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में महिलाओं की हिस्सेदारी

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में महिलाओं की हिस्सेदारी

भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं का योगदान बलिदान और देशभक्ति की कहानी है जो स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण रूप में दर्ज है। महिला क्रांतिकारियों ने बहुत ही योजनापूर्ण तरीके से विभिन्न स्तर पर सक्रिय भूमिका निभाईं। हजारों की संख्या में जुलूस निकालकर सभाएं और प्रदर्शन करके ब्रिटश जुल्मों के ख़िलाफ़ सक्रिय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

स्वतंत्र भारत की नींव रखने में इस देश के हर धर्म, जाति, वर्ग, लिंग और समुदाय के लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह में हिस्सा लिया। आजादी के आंदोलनों की गाथा बिना महिलाओं की भागीदारी के अधूरी है। पितृसत्तात्मक समाज में जहां महिलाओं की भूमिका को घरों की दीवारों तक माना जाता है उस दौर में देश की आम से लेकर ख़ास महिलाओं ने आजादी की क्रांति में हिस्सा लिया बल्कि नेतृत्व भी किया। ये महिलाएं कई स्तर पर आंदोलनों में शामिल हुईं। न केवल अपने घर के पुरुषों को आगे बढ़ने का हौसला दिया बल्कि हाथों में मशाल लेकर खुद अंग्रेजों के ख़िलाफ़ नारे लगाती देश की आजादी के सपने को पूरा करने में शामिल हुई। तमाम यातनाओं को सहते हुए अपने प्राणों की परवाह किए बगैर आजादी की लिए हर संभव प्रयास के लिए प्रयत्नशील थी। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ आजादी के संघर्षों में सबसे सफलतम आंदोलन में से एक है जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आम भारतीयों ने विद्रोह किया। इसी आंदोलन में देश के अलग-अलग कोने से महिला ने हिस्सा लिया और अंग्रेजी शासन की जड़ कमजोर करने का काम किया।

भारत छोड़ो आंदोलन

भारत में ब्रिटिश हुकूमत को खत्म करने के लिए 9 अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की गई। द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होते ही भारत को उसमें शामिल कर लिया गया था जिसके बारे में भारत के नेताओं से कोई बात नहीं की गई थी। कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया। इसके विरोध में कांग्रेस ने 7-8 अगस्त 1942 को मुंबई के ग्वालिया टैंक मैदान में सभा आयोजित की गई जिसमें “करो या मरो” का नारा दिया था। कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था और जेल में बंद कर दिया गया। इन स्थितियों में आंदोलन के नेतृत्व संभालने का काम महिलाओं ने किया। स्थानीय स्तर पर महिलाएं आगे बढ़कर आई और आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में लिया।

पंजाब, महाराष्ट्र, ग्वालियर, बंगाल, असम में देश के हर कोने-कोने की महिलाओं ने भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनीं। महिलाएं सड़कों पर उतर आईं, नारे लगाए, सार्वजनिक भाषण दिए और प्रदर्शन किया।

अंग्रेजी शासन के समय महिलाओं ने अंग्रेजों से अनेक यानताओं का भी सामना किया। महिलाओं के ख़िलाफ़ बहुत क्रूर व्यवहार किया करते थे। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटिश पुलिस, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और शोषण किया करती थी। ब्रिटिश अधिकारियों का जबरन घरों में घुसना, महिलाओं को पीटना, थप्पड़ मारना और बलात्कार करना आम बात थी। छोटी बच्चियों और गर्भवती महिलाओं तक को भी पुलिस तंग किया करती थी। पुलिस की क्रूरता से बचने के लिए महिलाएं अक्सर जंगलों में रात बिताया करती थी।

भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाएं

भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं का योगदान बलिदान और देशभक्ति की कहानी है जो स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण रूप में दर्ज है। महिला क्रांतिकारियों ने बहुत ही योजनापूर्ण तरीके से विभिन्न स्तर पर सक्रिय भूमिका निभाईं। हजारों की संख्या में जुलूस निकालकर सभाएं और प्रदर्शन किए और ब्रिटिश जुल्मों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। महिला स्वयंसेवकों ने गाँव-गाँव जाकर सभाएं की और गांधी के संदेश ‘करो या मरो’ से जोड़ा।

तस्वीर साभारः rediff.com

बहुत सी महिला नेता जैसे सरोजिनी नायडू, मीराबेन, सुशीला नायर 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया गया था। राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं की गिरफ्तारी से जनता में उथल-पुथल मच गई थी। इस आंदोलन में अहिंसा की नीति से अलग ब्रिटिश के विरोध के लिए सार्वजनिक रूप भीषण विरोध हुआ और तोड़-फोड़ की गई। शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी के बाद अन्य नेताओं ने अलग नीतियों को अपनाया। आखिर में इस असंगठित ऊर्जा को एक जगह करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने पूरे देश में इसे संगठित करने का काम किया। 

सुचेता कृपलानी, ऊषा मेहता, कमला देवी चट्टोपाध्याय, पूर्णिमा बैनर्जी, अरूणा आसफ अली आदि महिला कार्यकर्ताओं ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। इन नेताओं ने ग्रामीण और शहरी दोनों जगह पर आंदोलन का विस्तार किया। उन्होंने देशवासियों से स्थानीय सरकार चलाने की मांग और ब्रिटिश मशीनरी को छिन्न-भिन्न करने की मांग की। इतना ही नहीं इन्हें भारतीय उद्योगपतियों से भी समर्थन मिला था।

असम के गोलाघाट जिले में महिलाओं द्वारा प्रदर्शित उत्साह और आंदोलन में उनकी उल्लेखनीय भागीदारी रही। महिलाएं बहुत उत्साह के साथ भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं। उन्होंने ‘मृत्यु वाहिनी’ और ‘मृत्यु की ताकत’ के नाम से जाने वाला एक समूह बनाया और गांवों में सक्रिय रूप से विभिन्न गतिविधियों में लोगों को शामिल किया।

शुरुआत में केवल कुछ विशेष घरों और जाति की महिलाएं आजादी के आंदोलन में शामिल रही थी लेकिन उसके बाद हर जाति और समुदाय की औरतों ने देश को बचाने के लिए आंदोलन में हिस्सा लिया। पंजाब, महाराष्ट्र, ग्वालियर, बंगाल, असम में देश के हर कोने-कोने की महिलाएं भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुईं। महिलाएं सड़कों पर उतर आईं, नारे लगाए, सार्वजनिक भाषण दिए और प्रदर्शन किया। असम के लखीमपुर जिले में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने स्वंय-रक्षा और स्व-पर्याप्त के विचार को विस्तारित किया। अंग्रेजो से लोहा लेने के लिए ‘शांति सेना शिविर’ की स्थापना की गई और ग्रामीणों और एकल स्तर पर लोगों को ट्रेनिंग दी गई। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उत्तरी लखीमपुर में बड़ी संख्या में हर उम्र की महिलाओं ने हिस्सा लिया। महिलाओं ने स्कूल, कचहरी परिसरों में झंडा फहराया और लोगों को अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ लामबंद किया।

गोलाघाट में महिलाओं की आंदोलन में भागीदारी

असम के गोलाघाट जिले में महिलाओं द्वारा प्रदर्शित उत्साह और आंदोलन में उनकी उल्लेखनीय भागीदारी रही। महिलाएं बहुत उत्साह के साथ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में शामिल हुईं। उन्होंने ‘मृत्यु वाहिनी’ और ‘मृत्यु की ताकत’ के नाम से जाने वाला एक समूह बनाया और गांवों में सक्रिय रूप से विभिन्न गतिविधियों में लोगों को शामिल किया। अन्नप्रवा बरुआ, असम की अग्रणी शख्सियत के रूप में उभरीं जिन्होंने कई अन्य लोगों को इस मुहिम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था। उनके नेतृत्व में डेरागांव जैसे गांवों में सौ से भी अधिक पुरुष और महिलाओं ने मार्च निकाला। क्रांतिकारियों ने थाने पर कांग्रेस का झंडा फहराने की कोशिश की। उनका यह कदम ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ उनकी अवज्ञा का प्रतीक था। गोलाघाट जिले की बहादुर महिलाओं ने स्वतंत्रता संग्राम के रास्ते पर चलते हुए अपने जीवन का बलिदान तक दिया। 

कनकलता बरुआ और असम की अन्य क्रांतिकारी

कनकलता बरुआ, तस्वीर साभारः Officers Pulse

स्कूली छात्रा कनकलता बरूआ ने असम के ब्रह्मपुत्रा वैली में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का नेतृत्व किया। वह एक सक्रिय आयोजक और मृत्यु वाहिनी की सदस्य थीं। कनकलता की 20 सितंबर, 1942 को ब्रिटिश पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, जब वह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय ध्वज थामे एक जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। वह सिर्फ 18 साल की थी। इसके अलावा असम के अलग-अलग जगहों में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने वाली प्रमुख महिलाओं के नाम गोलापी चुटियानी (ढेकियाजुली), लीला नियोगोनी (लखीमपुर), थुनुकी दास (ढेकियाजुली), जलुकी कचारियानी ( ढेकियाजुली) कोन चुटियानी (ढेकियाजुली) आदि हैं।

आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए घर त्याग दिए

असम की रेबती लाहोन का जन्म टेओक में हुआ था। भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने वाली वह एक सक्रिय सदस्य थीं। 1942 में उन्हें आंदोलन में जेल में डाल दिया गया था। जेल में रहने के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और उन्हें निमोनिया हो गया था। जेल से लौटने के कुछ ही दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। मद्रास प्रेसीडेंसी में भारत छोड़ो आंदोलन को प्रभावशाली करने में महिलाओं के नाम की लंबी सूची है। ए.वी. कुट्टीमालु अम्मा, अंबुजम्मल, पद्मजा नायडू, रुक्मिमई लक्ष्मीपति, माया थॉमस और बहन सुब्बालक्ष्मी जैसे कुछ नाम हैं। मद्रास में रानी झांसी रेजीमेंट की सहयोगी और कमांडर कैप्टन लक्ष्मी सहगल थीं। उस समय महिलाओं ने राष्ट्र को खुद को समर्पित करते हुए अपने घर तक त्याग दिए थे। 

भारत छोड़ो आंदोलन का एक दृश्य, तस्वीर साभारः BBC

कई प्रमुख महिला नेताओं जैसे सरोजिनी नायडू और अरूणा आसफ अली ने छिपकर आंदोलन को संगठित करना भी जारी रखा था। उषा मेहता ने “करेंगे या मरेंगे” के विचार को प्रचार करने के लिए वॉयस ऑफ फ्रीडम के नाम से रेडियो ट्रांसमीटर की स्थापना की थी। अलग-अलग क्षेत्रों की महिला नेताओं ने आंदोलन में हिस्सा लिया। जिनमें कमला दासगुप्ता, मातंगिनी हाजरा, कनकलता बरुआ जैसे नाम शामिल है। 

मद्रास प्रेसीडेंसी में भारत छोड़ो आंदोलन को प्रभावशाली करने में महिलाओं के नाम की लंबी सूची है। ए.वी. कुट्टीमालु अम्मा, अंबुजम्मल, पद्मजा नायडू, रुक्मिमई लक्ष्मीपति, माया थॉमस और बहन सुब्बालक्ष्मी जैसे कुछ नाम हैं।

73 साल की मातंगिनी हाजरा ने सीने पर खाई गोली

बंगाल के मिदनापुर की मातंगिनी हाजरा ने भारत छोड़ो आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम किया। कांग्रेस समर्थकों ने नेताओं की रिहाई और अंग्रेज़ भारत छोड़ो की मांग के लिए बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया। 73 वर्षीय मातंगिनी हाजरा छह हजार प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व करते हुए तामलुक पुलिस स्टेशन की ओर मार्च किया। मातंगिनी हाजरा ने ‘भगिनी सेना’ की स्थापना की। वह प्रदर्शन करते समय जब तामलुक में लालबाड़ी पर कब्जा करने गईं तो पुलिस गोलीबारी में शहीद हो गई थी। आंदोलन के दौरान तामलुक सब-डिविजनल पुलिस ने 73 विद्रोही महिलाओं का अपहरण कर लिया था। महिला आत्मरक्षा समिति ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।  

हालांकि यह आंदोलन ब्रिटिशों की ताकत के सामने सफल नहीं हुआ था लेकिन इसने निश्चित तौर पर यह स्पष्ट कर दिया था कि अब भारतीय रूकने वाले नहीं है। आंदोलन में भारतीय महिलाओं के बढ़ती हिस्सेदारी को देखते हुए ब्रिटिश उपनिवेशों को यह भी एहसास हो गया था कि भारत में शासन करने की लागत बढ़ती जा रही है। यह वजह है कि आंदोलन के पांच साल बाद भारतीय सरजमीं से अंग्रेजी शासन खत्म हो गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिला क्रांतिकारियों के योगदान भारत की आजादी की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

स्रोतः

  1. Quit India Movement: Rethinking The Role of Women
  2. Wikipedia

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