इतिहास भारतीय न होकर भी भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाली एनी बेसेंट की कहानी| #IndianWomenInHistory

भारतीय न होकर भी भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाली एनी बेसेंट की कहानी| #IndianWomenInHistory

साल 1893 में एनी बेसेंट ने भारत में कदम रखा। यहां आकर उन्होंने ब्रिटिश शासकों की क्रूरता और दमनकारी नीतियों को ध्यान से देखा और पाया कि भारतीयों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों से भी दूर रखा जा रहा था।

एनी बेसेंट कहने को भारतीय मूल की नहीं थी लेकिन भारत में रहकर उनके द्वारा किए गए काम और बड़े-बड़े योगदान को देखकर कभी ये लगा ही नहीं कि उनका संबंध किसी और देश से है। एनी बेसेंट की गिनती उन महिलाओं में की जाती हैं, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक सक्रिय भूमिका निभाई थी। उन्होंने भारत में रहकर बाल विवाह, विधवा विवाह और जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने की दिशा में काम किया था। एनी बेसेंट एक समाज सुधारक, महिला कार्यकर्ता, सुप्रसिद्ध लेखिका, थियोसोफिस्ट और राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष और एक प्रभावी प्रवक्ता थी।

महिला अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाली एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847, में लंदन के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उस समय उन्हें एनी वुड के नाम से पुकारा जाता था। एनी आयरिश मूल की थी। उनके पिता पेशे से डॉक्टर थे, लेकिन 5 साल की उम्र में ही एनी के पिता की मौत हो गई थी, जिसके बाद उनकी मां एमिली मोरिस ने उनकी परवरिश की थी। एनी के पिता की मृत्यु के बाद मां और बेटी हैरो चले गए। हैरो में उनकी मुलाकात मिस मेरियट से हुई। मिस मेरियट के साथ एनी ने फ्रांसीसी और जर्मन भाषा सीखी। उनकी मां एक बेहद मेहनती महिला थी, जो अपनी आजीविका चलाने के लिए स्कूल के बच्चों के लिए बोर्डिंग हाउस भी चलाती थीं। घर की आर्थिक हालत बेहद खराब होने के बावजूद उनकी मां ने अपने दोस्त ऐलन मैरियट की देख-रेख में एनी की शिक्षा जारी रखी। अपनी मां को देखकर ही एनी में आत्मनिर्भर बनने की भावना जगी। एनी पर अपने माता-पिता के धार्मिक विचारों का भी काफी प्रभाव पड़ा था। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में एनी ने यूरोप की यात्रा भी की थी, जिससे उन्हें काफी कुछ सीखने को मिला था जिसका प्रयोग उन्होंने अपनी सामाजिक लड़ाइयों में भी किया।

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युवावस्था में एनी की मुलाक़ात एक युवा पादरी रेवरेंड फ्रैंक से हुई और दोनों 1867 में शादी के बंधन में बंध गए लेकिन पति फ्रैंक के विचारों से मेल न खाने के कारण एनी का दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहा। एनी का ईसाई धर्म से विश्वास डिगने लगा, इसके बाद एनी विख्यात पत्रकार विलियम स्टीड से संपर्क में आई और लेखन-प्रकाशन में रूचि लेने लगी। एनी ने अपना ज्यादातर समय असहाय लोगों, अकाल पीड़ितों तथा गरीबों की मदद करने में बिताया, वह कई सालों तक इंग्लैंड की शक्तिशाली महिला ट्रेड यूनियन की सेक्रेटरी भी रही।

साल 1893 में एनी बेसेंट ने भारत में कदम रखा। यहां आकर उन्होंने ब्रिटिश शासकों की क्रूरता और दमनकारी नीतियों को ध्यान से देखा और पाया कि भारतीयों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों से भी दूर रखा जा रहा था।


एनी के भारत से जुड़े विचार साल 1878 में निकलकर सामने आए, उनके लेखों ने भारतीयों के मन में एनी के प्रति एक सम्मान और प्रेम उत्पन्न किया। 1883 में समाजवादी विचारधारा ने उन्हें अधिक आकर्षित किया जिसके परिणामस्वरूप एनी ने सोशलिस्ट डिफेन्स संगठन नामक संस्था का निर्माण किया। इस संस्था के माध्यम से एनी ने उन मजदूरों को सज़ा मिलने से सुरक्षा दिलाई जो लंदन की सड़कों पर निकलने वाले जुलूस में शामिल होते थे। एनी बेसेंट 1889 में थियोसोफी के विचारों से बेहद प्रभावित हुई और 1889 में वह थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ गईं। अपनी भाषण देने की अद्वितीय कला के कारण शीघ्र ही उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी की वक्ता के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। वर्ष 1907 में वह थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष निर्वाचित हुईं। उन्होंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिंदू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया।

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साल 1893 में एनी बेसेंट ने भारत में कदम रखा। यहां आकर उन्होंने ब्रिटिश शासकों की क्रूरता और दमनकारी नीतियों को ध्यान से देखा और पाया कि भारतीयों को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों से भी दूर रखा जा रहा था। ये सब देखते ही एनी के मन में भारतीयों के अधिकारों की लड़ाई के लिए खड़े होने भावना पैदा हुई।

तस्वीर साभार: BBC

भारत के प्रशासन में ब्रिटिश नियंत्रण को कम करने के लिये होमरूल को एक आंदोलन के रूप में चलाया गया था। ऐनी बेसेंट तथा तिलक के नेतृत्व में चलाया गया यह भारतीय होमरूल आंदोलन आयरिश होमरूल आंदोलन से प्रभावित था। भारत में दो होमरूल लीगों की स्थापना की गई जिनमें से एक की स्थापना बाल गंगाधर तिलक ने अप्रैल 1916 में पूना में की थी और दूसरी की स्थापना एनी बेसेंट ने सितम्बर 1916 में मद्रास में की थी| उन्होंने ‘होम रूल लीग’ में शामिल होकर भारतीय स्वराज की मांग का समर्थन किया। होम रूल आंदोलन में उन्होंने अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई इसके कारण उन्हें जून 1917 में जेल भी जाना पड़ा फिर बेसेंट की रिहाई के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने सयुंक्त रूप से प्रदर्शन करना शुरू कर दिया इसी के फलस्वरूप सितम्बर 1917 में उन्हें रिहा कर दिया। इसी वर्ष दिसंबर महीने में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गईं। वे पहली महिला थी, जिन्होंने यह पद ग्रहण किया था।

हालांकि, कई रिसर्च और लेखों में ऐनी बेसेंट के बारे में यह भी लिखा गया है कि वह जाति व्यवस्था की समर्थक थी। सेज जर्नल में छपे लेख- एनी बेसेंट डिफेंस ऑफ इंडियन कास्ट सिस्टम में हमें इसका ज़िक्र मिलता है। इस लेख के मुताबिक वह जाति व्यवस्था को यह कहकर उचित ठहराती थी कि हर दुनिया के हर समाज में एक अंतर्निहित पदानुक्रम है जो इसके अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

बात अगर उनके लेखन की करें तो, लेखन में तो उन्हें पहले से ही रूचि और अपनी इस रूचि का फायदा उठाकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार की आलोचना करने के लिए अखबार का सहारा लिया। उन्होंने ‘न्यू इंडिया’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया और ब्रिटिश शासन की नीतियों का विरोध किया। सरकार की कड़ी आलोचना और विरोध के कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। उन्होंने ‘लूसिफेर’ और ‘द कामनवील’ जैसे अखबारों का भी संपादन किया। बेसेंट एक समाज सुधारक होने के साथ साथ एक बेहतरीन लेखिका भी थी। एक विचारक होने के नाते बेसेंट ने थियोसोफी पर कई पुस्तकें और लेख लिखे। उनका भारतीय संस्कृति से लगाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एनी ने भगवद्गीता का अंग्रेजी में अनुवाद किया और भारतीय राजनीति पर भी किताबें लिखी थी।

एनी बेसेंट के जीवन के अंतिम दिनों की बात करें तो 20 सितंबर, 1933 को चेन्नई में रहते हुए दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी मृत्यु के बाद 1 अक्टूबर 1963 को, भारतीय डाक विभाग ने उनके जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक डाक टिकट जारी किया। चेन्नई के अडयार में थियोसोफिकल सोसाइटी मुख्यालय की सीमा के एक पड़ोस का नाम बदलकर बेसेंट नगर रखा गया।

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तस्वीर : फेमिनिज़म इन इंडिया

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