इतिहास बंटवारा और महिला हिंसा: धरती पर खींची लकीरों ने किस तरह स्त्री देह को बनाया रणभूमि

बंटवारा और महिला हिंसा: धरती पर खींची लकीरों ने किस तरह स्त्री देह को बनाया रणभूमि

इस क्रम में 6 दिसंबर 1947 को दोंनो सरकारों ने इंटर डोमिनियन समझौता कर लिया। इसका मुख्य उद्देश्य ऐसी औरतों की घर वापसी थी जो विभाजन के दौरान अपने देश और अपने परिवार वालों से बिछड़ गई थी। इसे सेंट्रल रिकवरी ऑपरेशन के रूप में भी जाना जाता है।

भारत को अंग्रेज़ों से लगभग दो सौ साल बाद मिलनेवाली आज़ादी अपने साथ केवल जश्न नहीं लाई, बल्कि धर्म आधारित बंटवारे का ज़ख्म भी लाई थी। अंग्रेजों द्वारा अपनाया गया ‘बांटो और शासन करो की नीति’ और भारतीय उपमहाद्वीप के नेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए धार्मिक उन्माद को हवा दिया जाना इस बंटवारे का प्रमुख कारण था। भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से मुख्य रुप से बंटवारे के केन्द्र थे, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वहां के जख़्म अधिक गहरे हैं। इस त्रासदी ने हजारों-लाखों जिंदगियां अचानक बदल दीं और अपने साथ कई अनिश्चितताएं लेकर आई। सांप्रदायिकता और अविश्वास पर आधारित हिंसा, दर्द, संकट, उथल-पुथल, अव्यवस्था और तबाही का खौफ़नाक मंजर ही एकमात्र निश्चितता थी। यह सब कुछ आज भी उन दिनों हुए दंगों, विस्थापन के शिकार परिवारों के ज़हन में भयावह यादों के रूप जिंदा है। 

विभाजन सभी के लिए गहरा सदमा लेकर आया था, लेकिन हम यहां विशेषतौर पर विभाजन के दौरान महिलाओं की स्थिति पर बात करेंगे। इस तरह के संघर्षों में जैसा होता है उसी तरह बंटवारे के दिनों में भी महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक असुरक्षित थे। विभाजन पर बहुत कुछ पढ़ा और लिखा जा चुका है। इस बंटवारे के दौरान महिलाओं के साथ सबसे अधिक हिंसा हुई। अपहरण, बलात्कार, हत्या और इन सबके साथ इज्ज़त के नाम पर अपनो द्वारा ही की गई उनकी हत्या या उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाना भी शामिल था। महिलाओं साथ हुई इस हिंसा के लिए केवल धार्मिक उन्माद नहीं ज़िम्मेदार था बल्कि धर्म से इतर तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था का पितृसत्तात्मक रवैया ज़िम्मेदार था।

धर्म के आधार पर दो देशों के रूप में बांटने वाली लकीर न जाने कितनी ही औरतों के देह से होकर गुजरी थी। द वायर में प्रकाशित लेख के अनुसार कमला भसीन और रितु मेनन ने अपनी किताब ‘बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज़: वूमेन इन इंडियाज पार्टिशन‘ में बताया है कि आधिकारिक तौर पर पाकिस्तान जाते समय 50,000 महिलाओं का अपहरण हुआ था जबकि भारत आते समय 33,000 महिलाओं का अपहरण किया गया था। 

विभाजन पर बहुत कुछ पढ़ा और लिखा जा चुका है। इस बंटवारे के दौरान महिलाओं के साथ सबसे अधिक हिंसा हुई। अपहरण, बलात्कार, हत्या और इन सबके साथ इज्ज़त के नाम पर अपनो द्वारा ही की गई उनकी हत्या या उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाना भी शामिल था। महिलाओं साथ हुई इस हिंसा के लिए केवल धार्मिक उन्माद नहीं ज़िम्मेदार था बल्कि धर्म से इतर तत्कालीन धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था का पितृसत्तात्मक रवैया ज़िम्मेदार था।

उर्वशी बुटालिया ने भी अपनी किताब ‘द अदर साइड ऑफ साइलेंस‘ में इसी तरह के आंकड़े दिए हैं और दावा किया कि सीमा के दोनों ओर से 75,000 महिलाओं का अपहरण किया गया था। हालांकि, बहुत संभावना है कि वास्तविक संख्या किताब और अभिलेखागार में पाए गए संख्याओं के मुकाबले कहीं अधिक हो। महिलाओं के साथ होन वाली हिंसा स्पष्ट तौर पर पितृसत्तात्मक संघर्षों का परिणाम थी क्योंकि किसी महिला का अपहरण, बलात्कार, या हत्या कहीं ना कहीं उस परिवार और समुदाय के पुरुषों के मर्दानगी पर एक सवाल उठाता था क्योंकि जनानी (स्त्री) और जमीन पर अधिकार और उनकी सुरक्षा मर्दानगी का सबब थी।

विभाजन के दौरान परिजनों द्वारा महिलाओं पर की गई हिंसा

महिलाओं के साथ मुख्य रूप से दो तरह की हिंसा हुई। पहली, किसी दूसरे समुदाय के पुरुषों के द्वारा। दूसरी, अपने ही परिजन, अपने ही परिवार के पुरुषों के द्वारा हुई थी लेकिन इस पर बेहद कम लिखा गया है। ज्यादातर इसे हिंसा की तरह देखा भी नहीं जाता है। यहां हम विभाजन के दौरान वह उसके बाद महिलाओं पर उनके परिजनों द्वारा की गई इसी हिंसा के विषय में बात करेंगे।

विभाजन के दौरान महिलाओं के साथ, अपने ही रिश्तेदारों द्वारा की गई हिंसा का एक मुख्य रूप, इज्ज़त के नाम पर उनकी हत्या और उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाना था। इन महिलाओं की मृत्यु के बाद, इनके परिवार के जो पुरुष बच गए, उनका दावा था कि इन महिलाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए आत्महत्या की। लेकिन ऐसे दावा में कितनी सच्चाई है  इसकी कोई पुष्टि नहीं की गई है। आगे चलकर इन महिलाओं शहीदों की तरह पेश किया गया।

महिलाओं के साथ मुख्य रूप से दो तरह की हिंसा हुई। पहली, किसी दूसरे समुदाय के पुरुषों के द्वारा। दूसरी, अपने ही परिजन, अपने ही परिवार के पुरुषों के द्वारा हुई थी लेकिन इस पर बेहद कम लिखा गया है। ज्यादातर इसे हिंसा की तरह देखा भी नहीं जाता है। यहां हम विभाजन के दौरान वह उसके बाद महिलाओं पर उनके परिजनों द्वारा की गई इसी हिंसा के विषय में बात करेंगे।

उन्हीं दिनों रावलपिंडी के थुआ खालसा गांव की एक घटना के विषय में उर्वशी बुटालिया ने अपनी किताब में ज़िक्र किया है। वह बताती हैं कि सिखों के इस गांव की 90 औरतों ने दुश्मनों के हाथ आने के डर से अपनी मर्जी से कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी। इस गांव के विस्थापित लोग आज भी समुदाय की उन औरतों की शहादत को याद करते हुए, दिल्ली के गुरुद्वारे में हर साल तेरह मार्च को शहादत दिवस मनाते हैं। इन सब में उन औरतों को याद नहीं किया जाता जो मरना नहीं चाहती थीं और उन्हें अपनी मर्जी के ख़िलाफ़ मजबूर होकर ऐसा करना पड़ा। इस घटना की सती परंपरा के साथ तुलना की गई और कहीं न कहीं इसे पारंपरिक स्वीकृति दिलाई गई।

उर्वशी ऐसी ही एक अन्य घटना का जिक्र करतीं हैं जो गुरदासपुर बॉर्डर की है। बॉर्डर के पास का एक आदमी मंगल सिंह अपने दो भाइयों के साथ मिलकर अपने परिवार के 18 सदस्यों को गुरुद्वारा में इकट्ठा करता है और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर करने के बाद, उन्हें मार देता है। ऐसी ही एक अन्य घटना है जिसमें वीर बहादुर सिंह जो मात्र किशोर था, उसने अपने आंखों के सामने देखी थी। उसने अपने पिता को अपनी बहन और अन्य परिवार के सदस्यों को मारते हुए देखा था जिसकी यादें उसे सालों तक परेशान करती रही।

विभाजन के बाद अपनों से अलग हुई महिलाओं के साथ हुई हिंसा

बंटवारे के दौरान बहुत सी ऐसी औरतें जो अपने परिवारों से बिछड़ गई थी, उन्होंने नये परिवारिक संबंध स्थापित किए। धीरे-धीरे वे अपने सदमें को भुलाकर, नये जीवन की तरफ बढ़ने लगी थीं। लेकिन भारतीय और पाकिस्तानी सरकार ने इंसानी रिश्तों और मानवीय संवेदनाओं के प्रति मशीनी रवैया अपनाते हुए यह मान लिया था कि बहुत सी औरतों को जबरदस्ती घरों में बैठाकर रखा गया है और उन्हें उनके मूल परिवारों तक पहुंचाया जाना चाहिए। इन सभी मामलों में किसी ने भी उन औरतों के जिंदगी का फैसला करने से पहले, उनकी राय जानने की कोई जरूरत नहीं समझी।

बंटवारे के समय महिलाओं के साथ हुई हिंसा केवल सामुदायिक घृणा से प्रेरित नहीं थी बल्कि यह उससे कही अधिक पितृसत्तात्मक संरचनाओं की देन थी। समुदायों और परिवारों ने अपहरण के बाद वापस लौटीं औरतों को अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि यह औरतें उस व्यवस्था को खत्म कर देंगी जिसके अनुसार समुदाय की ‘इज्ज़त’ उसकी औरतों की पवित्रता से जुड़ी हुई है।

इस क्रम में सरकार ने रिकवरी ऐक्ट 1949 की शुरुआत की। इसका मुख्य उद्देश्य ऐसी औरतों की घर वापसी थी जो विभाजन के दौरान अपने देश और अपने परिवार वालों से बिछड़ गई थी। 1949 के अपहृत व्यक्ति (बरामदी व बहाली) अधिनियम के द्वारा इन अपहृत महिलाओं की वापसी का अंतिम कानून बना दिया गया। अपहरण के बाद, अन्य धर्म के अपहरणकर्ता के साथ रहकर जो महिलाएं अपने पुराने परिवारों में वापस आई, कई परिवारों ने उनका स्वागत नहीं किया। ऐसी औरतें जो गर्भवती थीं या जिनके पास अपहरणकर्ता और उनका बच्चा था, उन्हें और अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

प्रकाश टंडन ने अपनी पुस्तक ‘पंजाबी सेंचुरी‘ में ऐसे ही कहानी का उल्लेख किया है जिसमें एक लड़का जो दंगों में शामिल था, दंगाई भीड़ को मनाकर, एक मुस्लिम लड़की से शादी करता है। उन दोंनो का एक बेटा भी पैदा होता है और वह महिला दूसरी बार गर्भवती रहती है। ऐक्ट आने के बाद पुलिस उस लड़की को उसके पुराने परिवार में भेजना चाहती है, लेकिन यह जोड़ा नहीं चाहता। अपनी इस खूबसूरत जिंदगी को छोड़कर एक-दूसरे से अलग नहीं होना चाहता था। उसका पति अपने बेटे को अपनी मां के पास छोड़, पुलिस से बचने के लिए अपनी पत्नी के साथ कही भाग जाता है और आखिर में एक गन्ने के खेत में छिप जाते हैं। इस दौरान वह अपने हाथों से अपनी बीवी की डिलीवरी कराता है, डिलीवरी के बाद औरत को बुखार आता है लेकिन वह इस डर से कि कहीं सामाजिक कार्यकर्ता और पुलिस वाले उन दोंनो को अलग न कर दें, वे अस्पताल में नहीं जाते और तीन दिन बाद वह औरत दम तोड़ देती है। 

महिलाओं को केवल विरोधी समुदाय की पुरुषों के आत्मसम्मान पर वार करने का ज़रिया बनाया गया। समुदाय की इज्ज़त को मिटाने के लिए औरतों पर लैंगिक हिंसा की गई। महिलाओं पर हुए हमले धार्मिक उन्माद पर आधारित होते हुए भी उससे कहीं ज्यादा विरोधी समुदाय के पुरुषों को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ने से प्रेरित थे।

बंटवारे के समय महिलाओं के साथ हुई हिंसा केवल सामुदायिक घृणा से प्रेरित नहीं थी बल्कि यह उससे कही अधिक पितृसत्तात्मक संरचनाओं की देन थी। समुदायों और परिवारों ने अपहरण के बाद वापस लौटीं औरतों को अस्वीकार कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि यह औरतें उस व्यवस्था को खत्म कर देंगी जिसके अनुसार समुदाय की ‘इज्ज़त’ उसकी औरतों की पवित्रता से जुड़ी हुई है। समाज के पितृसत्तात्मक नियमों के अनुसार स्त्री शरीर पुरुषों द्वारा संरक्षित है और अगर वह अपने कौम की महिलाओं की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं तो वे कमजोर हैं। 

इस तरह महिलाओं को केवल विरोधी समुदाय की पुरुषों के आत्मसम्मान पर वार करने का ज़रिया बनाया गया। समुदाय की इज्ज़त को मिटाने के लिए औरतों पर लैंगिक हिंसा की गई। महिलाओं पर हुए हमले धार्मिक उन्माद पर आधारित होते हुए भी उससे कहीं ज्यादा विरोधी समुदाय के पुरुषों को मनोवैज्ञानिक रूप से तोड़ने से प्रेरित थे। अस्तित्व में आए दोंनो ही नये देशों में महिलाओं को शेष बचे अल्पसंख्यकों की तरह ही अलग-थलग महसूस करवाया गया।


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