दुनियाभर में सरकारें अलग-अलग कारणों से इंटरनेट शटडाउन करती हैं। इसमें अस्थिर परिस्थितियों के दौरान अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए एहतियाती और निवारक उपायों से लेकर, राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करना और कानून और व्यवस्था बनाए रखना शामिल है। इंटरनेट पर रोक अलग-अलग से लगाए जा सकते हैं। पूर्ण राष्ट्रीय इंटरनेट शटडाउन, क्षेत्रीय इंटरनेट शटडाउन, सोशल मीडिया शटडाउन और यहां तक कि इंटरनेट एक्सेस कर्फ्यू भी। इस प्रकार की रोक आमतौर पर चुनाव के समय, सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन और राष्ट्रीय परीक्षाओं के दौरान भी लगाए जाते हैं। लेकिन आज इंटरनेट शटडाउन का इस्तेमाल दुनियाभर में अलग-अलग देशों की सरकारें इसका इस्तेमाल जनता की आवाज़ें दबाने के लिए कर रही हैं।
इंटरनेट शटडाउन क्या है?
एक सोशल राइट एक्टिविस्ट के अनुसार इंटरनेट शटडाउन का मतलब ‘दुनिया से कट जाने जैसा है।’ इंटरनेट शटडाउन या ‘ब्लैकआउट’, ‘डिजिटल कर्फ्यू’, ‘किल स्विच’ जैसे शब्द किसी क्षेत्र के सभी इंटरनेट और प्रासंगिक सेवाओं को जानबूझकर रोकने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं। इसका उद्देश्य स्थान या अन्य विशेषता के आधार पर लोगों के समूह द्वारा प्राप्त और भेजी गई जानकारी को नियंत्रित करना है। डिजिटल अधिकार समूह एक्सेस नाउ के अनुसार “इंटरनेट शटडाउन तब होता है जब कोई आमतौर पर सरकार, लोग क्या कहते हैं या करते हैं उसे नियंत्रित करने के लिए जानबूझकर इंटरनेट या मोबाइल ऐप को बाधित करते हैं।
एक्सेस नाउ के ग्लोबल आंकड़ों के अनुसार साल 2022 में भारत में सबसे अधिक 84 इंटरनेट शटडाउन हुए। भारत में 2021 में 106 बार इंटरनेट शटडाउन हुआ। अधिकांश शटडाउन कश्मीर के संवेदनशील इलाकों में थे, लेकिन उन्हें पूरे देश में लागू किया गया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के 2020 के फैसले का उल्लंघन करते हुए ये शटडाउन लोगों पर थोपे। इसमें विरोध प्रदर्शन, चुनाव और परीक्षाओं के दौरान का समय भी शामिल है। भारत में कुछ शटडाउन अक्सर अनिश्चित काल के लिए और शटडाउन बिना किसी पूर्व सूचना के लगाए गए हैं। जैसे- कश्मीर और मणिपुर में लगाया गया इंटरनेट शटडाउन।
दुनियाभर की सरकारों ने विरोध-प्रदर्शनों, सक्रिय संघर्षों, स्कूल परीक्षाओं, चुनावों, राजनीतिक अस्थिरता के दौरान, धार्मिक छुट्टियों या सरकारी अधिकारियों के दौरों जैसे हाई-प्रोफाइल आयोजनों के दौरान नियंत्रण स्थापित करने और आवाज़ों को दबाने के मकसद के साथ शटडाउन लगाया है। इनमें से अधिकांश शटडाउन ने मानवाधिकार उल्लंघनों पर पर्दा डालने के लिए भी लगाए गए। इंटरनेट शटडाउन मानवाधिकारों का उल्लंघन है। यह लोगों की स्वतंत्रता को कम करता है। ऐसे क्षेत्रों में जहां मानवाधिकार हनन चरमसीमा पर हो वहां ये शटडाउन हिंसक घटनाओं की खबरों को बाहन आने से रोकता है।
इंटरनेट शटडाउन के नकारात्मक प्रभाव
रिसर्च और रिपोर्ट्स से पता चलता है कि जिस इलाक़े में इंटरनेट शटडाउन होता है, वहां के समुदायों को अलग-अलग स्तरों पर नुकसान पहुंचाता है। इंटरनेट शटडाउन आर्थिक विकास को प्रभावित करता है और मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें सूचना तक पहुंच को प्रतिबंधित करना, शिक्षा और स्वास्थ्य और बैंकिंग जैसी अन्य सेवाओं तक पहुंच को रोकना, साथ ही सामाजिकताओं के लिए संभावना को प्रतिबंधित करना शामिल है। शटडाउन से लोगों की काम करने की क्षमता भी बाधित होती है। इंटरनेट पर रोक पत्रकारों के काम में गंभीर रूप से बाधा डालते हैं, और नागरिकों को सूचना तक पहुंच से वंचित करके चुनावी पारदर्शिता को कमजोर करते हैं। शटडाउन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है और साथ ही लोक कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
इंटरनेट शटडाउन का लैंगिक प्रभाव
भारत के सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर को लगभग तीन महीने के लिए दुनिया से काट दिया था। वहां पर इंटरनेट शटडाउन मई के महीने की शुरुआत से ही लगा हुआ था। वहां पर क्या चल रहा है किसी को नहीं पता था । कुछ दिनों पहले ट्विटर पर एक वीडियो लीक हो गया जिसमें मणिपुर में एक भीड़ द्वारा दो महिलाओं को नग्न घुमाने, यौन हिंसा और उनके साथ मारपीट करते हुए दिखाया गया था। इन महिलाओं पर यह हमला 4 मई को हुआ था, लेकिन महिलाओं को हथियारबंद लोगों द्वारा घसीटे जाने और उनके साथ हिंसा करने का वीडियो लगभग 3 महीने बाद सामने आया। यह वीडियो कैसे लीक हुआ और शटडाउन में बाहर कैसे आया किसी को पता नहीं चल पाया है लेकिन इस वीडियो ने देश के साथ-साथ दुनियाभर को झकझोर कर रख दिया।
मणिपुर में अधिकारियों ने 3 मई को राज्यव्यापी इंटरनेट शटडाउन लगाया, यह कहते हुए कि अफवाहों और पर रोक लगाने और हिंसक जातीय हिंसा को रोकने के लिए इसकी ज़रूरत थी, जिसमें कम से कम 180 लोग मारे गए और हजारों लोग विस्थापित हुए। इस शटडाउन ने अफवाहों और दुष्प्रचार पर अंकुश तो नहीं लगाया लेकिन मणिपुर में होने वाली हत्या, बलात्कार और आगजनी को कवर ज़रूर कर दिया। अब वीडियो के सामने आने के बाद देश भर में मणिपुर के हालात पर खूब चर्चा हो रही है और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग भी जारी है। द वायर में छपी रिपोर्ट के मुताबिक शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक पेट्रीसिया मुखिम ने कहा कि अगर इंटरनेट शटडाउन नहीं हुआ होता, तो ये वीडियो दो महीने पहले सामने आ गए होते और भयावहता को तेजी से संबोधित किया जा सकता था, और इसी तरह के अन्य अपराधों पर रोक लगाई जा सकती थी।
एक्सेस नाउ ने मई में एक रिपोर्ट में कहा कि अधिकारियों ने इंटरनेट बंद करने के पीछे तर्क में हिंसा का हवाला दिया है। हालाँकि, यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं है कि इंटरनेट शटडाउन से हिंसा में कमी आई है। मणिपुर में इंटरनेट बंद हो जाने और इस क्षेत्र को काट देने का प्रभाव यह हुआ कि वहां पर हो रही हिंसा की भयावह तस्वीरें बाहर नहीं आ पाईं। हम सभी जानते हैं कि हिंसा कहीं भी हो उस में सबसे अधिक नुकसान महिलाओं और अल्पसंख्यक लोगों का ही होता है। ऐसी स्थितियों में महिलाओं के साथ शारीरिक हिंसा आम हो जाती है। ऐसे में अगर आवाज़ उठाने का साधन ही ख़त्म कर दिया जाए तो हिंसा करने वाले और क्रूर हो जाते हैं क्योंकि उन्हें रोकने और टोकने वाला कोई नहीं होता।
मई के महीने में ही मणिपुर में, सरकार ने कहा था कि इंटरनेट ब्लैकआउट राष्ट्र-विरोधी और असामाजिक तत्वों की योजनाओं और गतिविधियों को विफल करने और विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के माध्यम से गलत सूचना और झूठी अफवाहों के प्रसार को रोककर शांति और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए था। जैसे कि व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि। लेकिन हकीकत में हुआ उलट। शटडाउन के बाद वहां के लोग बाहर से कट गए तो बहुसंख्यक लोगों ने अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म ढाने शुरू कर दिए।
इंटरनेट ब्लैकआउट के पहले दिन, मैतेई भीड़ ने इंफाल में कुकियों पर हमला करने के लिए उत्पात मचाया। जैसे-जैसे हिंसा फैलती गई, बीस साल की दो युवा कुकी महिलाएं कारवॉश के ऊपर अपने कमरे में छिप गईं, जहां वे पार्ट टाइम काम करती थीं। लेकिन भीड़ ने उन्हें ढूंढ लिया। प्रत्यक्षदर्शियों ने महिलाओं के परिवारों को बताया कि सात मैतेई पुरुष उनके कमरे में घुस आए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। दो घंटे तक दरवाज़ा बंद रहा। बाहर के लोगों को महिलाओं की चीखें सुनाई दीं, जो समय के साथ धीमी हो गईं। जब दरवाजा खोला गया तो दोनों महिलाएं मर चुकी थीं। परिवारों को यकीन है कि हत्या से पहले उनकी बेटियों के साथ बलात्कार किया गया था। यह सिर्फ एक घटना है इस जैसी न जाने और कितनी घटनाएं हैं। चूंकि उन घटनाओं के वीडियो बाहर नहीं आए हैं तो किसी को नहीं पता कि क्या और कैसे हुआ है।
डिजिटल युग बनाम शटडाउन युग
यह कहना गलत नहीं होगा कि हम इंटरनेट शटडाउन युग में जी रहे हैं। सरकारों द्वारा मनमाने रूप से लगाए जाने वाले शटडाउन मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, शैक्षिक हर रूप से प्रभावित करता है। ह्यूमन राइट्स वॉच और इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत के मनमाने ढंग से इंटरनेट शटडाउन से गरीबी से जूझ रहे उन समुदायों को बहुत नुकसान हुआ है जो भोजन और आजीविका के लिए सरकार के सामाजिक सुरक्षा उपायों पर निर्भर हैं। 2018 के बाद से, भारत ने दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में सबसे अधिक इंटरनेट बंद किया है, जिससे सरकार का प्रमुख ‘डिजिटल इंडिया’ कार्यक्रम कमजोर हो गया है, जिसने प्रमुख सार्वजनिक सेवाओं को वितरित करने के लिए नियमित इंटरनेट पहुंच को महत्वपूर्ण बना दिया है।
‘डिजिटल इंडिया’ के युग में, जहां सरकार ने इंटरनेट को जीवन के हर पहलू के लिए मौलिक बनाने पर जोर दिया है, अधिकारी इसके बजाय इंटरनेट शटडाउन को एक डिफ़ॉल्ट पुलिसिंग उपाय के रूप में उपयोग करते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) ग्रामीण क्षेत्रों में 100 मिलियन से अधिक परिवारों को महत्वपूर्ण आय सुरक्षा प्रदान करता है। सरकार अपनी उपस्थिति जांच और वेतन भुगतान सहित इस लाभ को डिजिटल बनाने के लिए आगे बढ़ी है, जिसके लिए पर्याप्त इंटरनेट पहुंच की ज़रूरत है। दूरदराज के इलाकों में नेटवर्क कवरेज पहले से ही खराब है, लेकिन इंटरनेट बंद होने से स्थिति और खराब हो गई है। राजस्थान में, जहां कश्मीर के बाद सबसे अधिक इंटरनेट शटडाउन हुआ है, सरकार के ग्रामीण रोज़गार गारंटी कार्यक्रम में अधिकांश कर्मचारी महिलाएं हैं। चूंकि श्रमिकों की उपस्थिति जांच और वेतन भुगतान को डिजिटल कर दिया गया है, राज्य में बार-बार इंटरनेट बंद होने का मतलब है कि कई महिलाओं को काम नहीं मिलता है, या उन्हें भुगतान नहीं मिलता है।
इंटरनेट शटडाउन एक प्रमुख सामाजिक सुरक्षा नीति को भी प्रभावित करता है जो लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सब्सिडी वाले खाद्यान्न प्रदान करता है। 2017 में, सरकारी सामाजिक सुरक्षा को डिजिटल बनाने की योजनाओं के हिस्से के रूप में, सब्सिडी वाले खाद्य राशन के लिए पात्र सभी लोगों को अपने राशन कार्ड को देश की बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली आधार से जोड़ना अनिवार्य था। परिणामस्वरूप, खाद्यान्न वितरण दुकानों को अब आधार प्रमाणीकरण के लिए इंटरनेट की आवश्यकता होती है।
इंटरनेट शटडाउन से ग्रामीण समुदायों के लिए बुनियादी बैंकिंग करना, उपयोगिता बिलों का भुगतान करना और आधिकारिक दस्तावेजों के लिए आवेदन करना और उन तक पहुंच बनाना बहुत कठिन हो गया है। कोविड के बाद से स्कूल के अधिकतर कार्य मोबाइल पर होते हैं। बच्चों की पढ़ाई से ले कर उनकी फीस भरने तक सब कुछ डिजिटल हो गया है। ऐसे में इंटरनेट शटडाउन बच्चों की पढ़ाई को भी प्रभावित करता है, खासकर लड़कियों की। वे महिलाएं जो ‘वर्क फ्रॉम होम’ करके अपनी आजीविका का प्रबंध करती हैं वे इस इंटरनेट शटडाउन से बेबस और लाचार हो जाती हैं।
इंटरनेट शटडाउन के माध्यम से ‘अपनी बात कहने की स्वतंत्रता’ के अधिकार को छीन लिया जाता है। दिसंबर 2019 में, प्रस्तावित नागरिकता कानून पर विरोध प्रदर्शन के बाद दिल्ली, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, असम और मेघालय के कुछ हिस्सों में इंटरनेट शटडाउन लगाया गया था, जिससे सैकड़ों मुस्लिम लोगों की आवाज़ें दबा दी गयीं। जनवरी और फरवरी 2021 में, दिल्ली के आसपास इंटरनेट बाधित कर दिया गया, जहां किसान कृषि सुधारों का विरोध कर रहे थे।