इंटरसेक्शनलजेंडर स्त्रियों की देह पर हिंसा के ज़रिये ‘गौरव’ हासिल करने की युद्धभूमि की रणनीति

स्त्रियों की देह पर हिंसा के ज़रिये ‘गौरव’ हासिल करने की युद्धभूमि की रणनीति

युद्ध कही भी हो दो देशों, समुदाय और लोगों के बीच मारी जाती हैं स्त्रियां। उनकी देह को जाति, धर्म, समुदाय, राष्ट्र और नस्ल की युद्धभूमि बना दिया जाता है और हथियार बनाकर बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, यौन-हिंसा की जाती है।

‘जंग’ का एक रूप है ताकत, रूतबा, सत्ता और ये सब मर्दानगी से जुड़ा हुआ है। इसे साबित करने के लिए युद्ध, जातीय हिंसा में दोंनो पक्ष अपनी जोर आज़माइश करते है। नफ़रत और सत्ता की इस लड़ाई में जघन्य हिंसा होती है और आक्रोश का सामना करती हैं स्त्रियां। उनके शरीर को बदले और सत्ता की जमीन बना दिया जाता है। युद्ध कही भी हो दो देशों, समुदाय और लोगों के बीच मारी जाती हैं स्त्रियां। उनकी देह को जाति, धर्म, समुदाय, राष्ट्र और नस्ल की युद्धभूमि बना दिया जाता है और हथियार बनाकर बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, यौन-हिंसा की जाती है। स्त्रियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा कर एक पक्ष खुद को ताकतवर और विजेता मानता है और दूसरे पक्ष की हार तय कर दी जाती है। 

युद्ध, जातीय हिंसा, नरसंहार में स्त्रियों के शरीर को किस तरह निशाना बनाया जाता है इसको वर्तमान में मणिपुर में चल रही हिंसा से समझा जा सकता है। भारत के उत्तर पूर्व राज्य मणिपुर में मई के महीने से बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा, आगजनी, हत्या और अविश्वास की ख़बरे शुरू से सामने आ रही हैं। बीते जुलाई माह की 19 तारीख को मणिपुर में औरतों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा से जुड़ा एक वीडियो इंटरनेट पर वायरल होने के बाद जातीय हिंसा और युद्ध का वह रूप सामने आया है जिसमें हमेशा से स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है।

तस्वीर साभारः REUTERS

वायरल वीडियों में एक औरत के साथ सामूहिक बलात्कार की बात सामने आई। मीडिया में आई ख़बरों के अनुसार मणिपुर में औरतों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा, बलात्कार की कई मामले हुए हैं। खुद राज्य के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने दो महिलाओं के वीडियो वायरल होने के बाद बयान दिया, “ऐसे सैकड़ों मामले हैं इसलिए हमने इंटरनेट बंद किया है।” हिंसा, सत्ता का हथियार है और यही वजह है कि भारत के प्रधान सेवक इस विषय़ पर चुप्पी साधे हुए हैं और इंटरनेट को बंद कर दिया गया है। द हिंदू की ख़बर के अनुसार मई से जुलाई के बीच महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के दर्ज 11 एफआईआर को राज्य द्वारा सीबीआई को जांच के लिए ट्रांसफर करने के लिए तैयार है। 

भारतीय समाज में हिंसा, युद्ध और यौन हिंसा का इतिहास राष्ट्र के नक्शे के उभरने के साथ से है। भारत-पाक बंटवारे के वक्त बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए। कत्लेआम हुआ और 75,000 से एक लाख स्त्रियों ने यौन शोषण, बलात्कार और ज़बरदस्ती का सामना किया था।

युद्ध-संघर्षों में यौन हिंसा

ऐसा पहली बार नहीं है जब बलात्कार और यौन हिंसा को युद्ध में इस्तेमाल किया गया हो। दुनिया के युद्ध के इतिहास के हर पन्ने पर यौन हिंसा की घटनाएं हैं। फैब्रिस वर्जिली का लेख ‘सेक्सुअल वायलेंस इन टाइम्स ऑफ वार‘ इतिहास में किस तरह से युद्ध में स्त्रियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के बारे में जानकारी देता है। फ्रेंच क्रांति के साथ संघर्षों की प्रकृति बदल गई और नागरिकों और सेना के बीच मौजूद लाइन धुंधली हो गई। 1793-1794 में वेंडी में युद्ध में लोगों को डर और वंश में करने के लिए नरसंहार, विनाश और यौन हिंसा का इस्तेमाल किया गया। इसका मकसद सैनिकों द्वारा लूट करना नहीं था बल्कि शत्रु क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करना था। ठीक इसी तरह स्पेन में हुआ जहां नेपोलियन की सेनाओं को अंग्रेजों द्वारा समर्थन विद्रोह का सामना करना पड़ा था। सभी शहरों में स्त्रियों के बलात्कार की घटनाएं घटित हुईं। फ्रांसीसी द्वारा कॉर्डोबा (1808) और सलामंका (1818) में, जेन (1808) में स्विस सहयोगियों द्वारा, मलागा (1810) में पोलिस सहयोगियों द्वारा, क्रास्त्रो उरडियालेस (1813) में इटैलियन सहयोगियों द्वारा और बादाजोर (1812) और सैन सेबेस्टियन (1813) में कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज और पुर्तगालियों द्वारा स्त्रियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की घटनाएं हुईं। 

उन्नीसवीं सदी के दौरान सेनाओं के आधुनिकीकरण, पुरुषों की भर्ती से हुआ जो पुरुषत्व की परीक्षा थी और जिसका परिणाम महिलाओं का बहिष्कार था। कुछ अध्ययनों में यूरोपियन क्षेत्रों में होने संघर्षों के दौरान यौन हिंसा के बारे में खोजा गया। तेजी से बढ़ती औपनिवेशिक कल्पना वाले क्षेत्रों को स्त्री की तरह देखा गया और उन पर शासन के लिए बलात्कार, नियंत्रण का हथियार बना। अल्जीरिया में शेल्टर कॉलोनी बनाने के लिए मूल आबादी को उनकी जमीन से बाहर कर दिया गया। 1839-1847 में हुए नरसंहार और बलात्कार की हिंसा ने स्थानीय अर्थव्यवस्था और पारंपरिक सामाजिक ताने-बाने को खत्म किया गया। 

प्रथम विश्व युद्ध को नियमित शत्रुओं के बीच सेनाओं का टकराव माना जाता है, इस यूरोपीय युद्ध में यौन हिंसा भी मौजूद थी। 1914 में जर्मन ‘अत्याचार शब्द’ का इस्तेमाल बेल्जियम और उत्तरी फ्रांस में आम नागरिकों की हत्या, महिलाओं के बलात्कार, लूटपाट और आगजनी की निंदा के लिए किया गया था। 1941 में यूएसएसआर पर आक्रमण के दौरान यहूदी और स्लाव महिलाओं दोंनो के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर बलात्कार किया था। जर्मन, अमेरिकन, जापान, अंग्रेज हर सेना ने युद्ध में यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया।

संयुक्तु राष्ट्र के दिए आंकड़ों के अनुसार बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान दो लाख से चार लाख तक बंंगाली महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा हुई। साल 1991-2000 के बीच सिएरा लियोन में गृहयुद्ध के दौरान 60,000 से अधिक स्त्रियों का यौन उत्पीड़न किया गया। 1989 से 2003 के बीच 14 साल तक चले गृह युद्ध के दौरान लाइबेरिया के लगभग 40,000 महिलाओं ने लैंगिक हिंसा का सामना किया। वहीं रवांडा नरसंहार के दौरान ढ़ाई लाख से अधिक महिलाओं को यौन हिंसा और उत्पीडन किया गया। कैंम्पों में रहने वाली शरणार्थी रोहिग्या महिलाओं के ख़िलाफ यौन हिंसा और उत्पीड़न की ख़बरें भी सामने आ चुकी हैं और यूक्रेन और रूस में चल रहे युद्ध में भी महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की घटनाएं हुई हैं। 

तस्वीर साभारः Malla Reddy Engineering College for women

भारतीय समाज में हिंसा, युद्ध और यौन हिंसा का इतिहास राष्ट्र के नक्शे के उभरने के साथ से है। भारत-पाक बंटवारे के वक्त बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए। कत्लेआम हुआ और 75,000 से एक लाख स्त्रियों ने यौन शोषण, बलात्कार और ज़बरदस्ती का सामना किया था। दो नये राष्ट्र निर्माण पर भी स्त्री के शरीर को निशाना बनाया गया। कश्मीर में सेना तलाशी के नाम पर लड़कियों और औरतों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार करती है। साल 2002 में गुजरात में हुए नरसंहार में गर्भवती औरतों के साथ हिंसा हुई, मुज़फ़्फ़रनगर में हुए 2013 के दो समुदायों के दंगों के समय भी औरतों के साथ न केवल बलात्कार हुआ बल्कि बहुत सी सर्वाइवर को डराया और धमकाया गया जिस वजह से उन्होंने केस तक वापस लिये थे। 

इतना ही नहीं भारतीय समाज में बीते कुछ वर्षों में यौन हिंसा के किस मामले पर बोलना है, किसका विरोध करना और किसे समर्थन करना है यह तक हुआ है। कठुआ रेप केस के बाद आरोपियों के समर्थन में रैली, बिलकिस बानो के केस के आरोपियों को माला पहनाकर स्वागत करना इसके कुछ उदाहरण है। इतिहास और वर्तमान तक यही युद्ध की हकीकत है। समुदाय की ताकत कितनी है यह एक पक्ष दूसरे पक्ष की महिलाओं के ख़िलाफ़ शारीरिक और यौन हिंसा करके तय कर रहा है। 

अवर बॉडीज, देयर बैटलफील्डः वाह्ट वार डज टू वीमन किताब की लेखिका और पत्रकार क्रिस्टीना लैम्ब ने युद्ध में औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा की कहानियां एकत्र की हैं। उनके अनुसार, “1919 में बलात्कार को एक अंतरराष्ट्रीय युद्ध अपराध घोषित कर दिया था फिर भी तब से अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट ने किसी पर केस नहीं चलाया है। यह दुखद और स्पष्ट है कैसे बच्चियों और महिलाओं के साथ जानबूझकर युद्ध की रणनीति में बलात्कार किया जाता है। रवाड़ा और कोसोबो के हत्या के क्षेत्रों से लेकर बर्लिन और साउथ ईस्ट एशिया तक अर्जेंटीना और वर्तमान में नाइजीरिया में हिंसा के सर्वाइवर, ग्वाहों के पास इससे जुड़ी यादें है।”

खुद राज्य के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने दो महिलाओं के वीडियो वायरल होने के बाद बयान दिया, “ऐसे सैकड़ों मामले हैं इसलिए हमने इंटरनेट बंद किया है।” हिंसा, सत्ता का हथियार है और यही वजह है कि भारत के प्रधान सेवक इस विषय़ पर चुप्पी साधे हुए हैं और इंटरनेट को बंद कर दिया गया है।

 कार्रवाई के नाम पर अंतरराष्ट्रीय युद्ध कानून भी है 

ह्यूमन राइट वॉच मे प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय कानून युद्ध में मानवाधिकारों उल्लंघन पर रोक लगाते हैं और साथ ही दंड देने का भी प्रावधान है। अंतरराष्ट्रीय और आंतरिक दोंनो संघर्षों को नियंत्रित करने वाले अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत बलात्कार स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित है। साल 1949 का चौथा जेनेवा कन्वेंशन अनुच्छेद-27 महिलाओं को उनके सम्मान के ख़िलाफ़ व्यवहार और हिंसा से संरक्षित करता है। विशेष रूप से जबरन सेक्सवर्क, बलात्कार, किसी भी तरह का अभद्र व्यवहार आदि। इसी के साथ उसी कन्वेंशन का अनुच्छेद-147 जानबूझकर शरीर या स्वास्थ्य को भारी पीड़ा, यातना और अमानवीय व्यवहार को युद्ध अपराध और कन्वेंशन के उल्लंघन की बताता है। इसी तरह अंतरराष्ट्रीय कमेटी ऑफ रेड क्रॉस ने भी माना है कि बलात्कार, जानबूझकर शरीर को नुकसान पहुंचाना कन्वेंशन का उल्लंघन है। 

जिनेवा कन्वेंशन पर गंभीर उल्लंघनों पर सार्वभौमिक क्षेत्राधिकार लागू होता है इसलिए उन पर इंटरनैशनल ट्रिबूनल या घरेलू अदालतों द्वारा मुकदमा चला चलाया जा सकता है। हालांकि युद्ध अपराधियों को जवाबदेह ठहराने की यह व्यवस्था केवल अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में किए गए अपराधों के लिए ही उपलब्ध है। इससे अलग आंतरिक संघर्षों में बलात्कार और अन्य उत्पीड़न के ख़िलाफ़ इंटरनैशनल इफोर्समेंट समर्थित नहीं है। वर्तमान मानवीय कानून अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आंतरिक संघर्ष के दौरान किसी राज्य को उसके आचरण के लिए बाध्य करने के लिए बहुत कम अधिकार देता है। 

वैश्विक चुप्पी, व्यापार और सरोकार

तस्वीर साभारः U.S. Army War College

युद्ध, ताकत और सत्ता से जुड़ा है और सत्ता का केंद्र पुरुष है इस वजह से महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाली युद्धों में होने वाली हिंसा पर चुप्पी भी लगातार बनी रहती है। यौन हिंसा को अपनी सुविधा के अनुसार देखा जाता है। ओआरएफ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार संघर्षों में लैंगिक हिंसा के मुद्दे पर लैंगिक समानता की बहस और सतत विकास को लेकर होने वाली चर्चाओं में पूरा ध्यान नहीं दिया जाता है। युद्ध और हिंसा वाली जगहों को अक्सर युद्ध के कारक के रूप में माना जाता है और हिंसा के अपराधियों को शायद ही कभी दंडित किया जाता है। इथियोपाई संदर्भ में अधिकार समूह और संयुक्त राष्ट्र के प्रयास अधिकतर विफल रहे हैं। यूएई के समर्थक देशों से इथियोपियाई सरकारों को हथियारों की मदद मिलती है। 

संघर्षों के क्षेत्र में स्त्रियों के ख़िलाफ़ हिंसा पर के स्वरूप सत्ता, राजनीति और विश्व संगठनों के रवैये हमेशा उनके खुद के हितकारी रहे है इसलिए आजतक दो देशों, समुदाय की हिंसा में औरतों की देह को निशाना बनाया जा रहा है। सरकारी आंकड़ें और पुस्तकें कभी भी पूरा सच बयान करने में सक्षम नहीं होती जिसके बहुत से राजनैतिक-सांस्कृतिक कारण होते हैं।


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