समाजराजनीति युद्ध और महिलाएं: महिलाओं को शांति प्रक्रियाओं में शामिल करना क्यों है जरूरी?

युद्ध और महिलाएं: महिलाओं को शांति प्रक्रियाओं में शामिल करना क्यों है जरूरी?

न्यूयॉर्क स्थित गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल पीस इंस्टिट्यूट ने साल 1989 से 2011 के बीच हुए 182 शांति समझौतों पर एक अध्ययन जारी किया था। इसमें पाया गया कि महिलाओं को शांति प्रक्रियाओं में शामिल करने से शांति समझौते की 15 साल या उससे अधिक समय तक चलने की संभावना 35 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

आज मौजूदा राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक पावर डायनामिक्स में युद्ध के बिना दुनिया की कल्पना करना शायद अवास्तविक होगा। आए दिन हम नए मुद्दे या पुराने संघर्षों, बढ़ते तनाव और हिंसा की खबरें सुनते हैं। किसी भी देश में होने वाले युद्ध कई मुश्किल और जटिल समस्याएं पैदा करते हैं। युद्ध में शामिल किसी भी देश के पुरुष जहां सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं, वहीं महिलाएं भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में युद्ध से प्रभावित होती हैं। युद्ध के दौरान या उसके बाद होने वाली यौन हिंसा, तनाव, गरीबी, परिवार के देखभाल की एकल ज़िम्मेदारी, बेरोज़गारी, भुखमरी या बेघर होने जैसी कई समस्याओं से वे लगातार जूझती रहती हैं। युद्ध के दौरान, उसे खत्म करने या समझौता के लिए होनेवाली शांति बातचीत बहुत अहम होती है। इतिहास में जाएं, तो यह पाया गया है कि शांति वार्ता दल में नेतृत्व करन वाली महिलाएं शांति का पक्ष अधिक रखती हैं। साथ ही, ऐसे शांति समझौते ज्यादा कामयाब रहे जिनमें महिलाएं शामिल हुई।

न्यूयॉर्क स्थित गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल पीस इंस्टिट्यूट ने साल 1989 से 2011 के बीच हुए 182 शांति समझौतों पर एक अध्ययन जारी किया था। इसमें पाया गया कि महिलाओं को शांति प्रक्रियाओं में शामिल करने से शांति समझौते की 15 साल या उससे अधिक समय तक चलने की संभावना 35 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। दुनियाभर में संघर्ष का समाधान और रोकथाम को बढ़ावा देने का काम कर रही अमेरिकी संस्था यूनाइटेड स्टेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ पीस के अनुसार शांति प्रक्रियाओं में भागीदारी निभाने वाली महिलाएं आमतौर पर युद्ध में हुई लूटपाट पर कम और सुलह, आर्थिक विकास, शिक्षा और ट्रांज़िशनल न्याय पर अधिक ध्यान देती हैं जो हमेशा के लिए या लंबे समय तक शांति बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण पहलू है।

युद्ध में पुरुषों के शामिल होने, मारे जाने या उनकी अनुपस्थिति में महिलाओं को ऐसे किरदारों में देखा गया है जिसे समाज ने हमेशा से मर्दों के लिए तय किए थे। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लाखों पुरुष युद्ध में लड़ने और घायल होने के कारण श्रम बाजार में श्रमिकों की भारी कमी होने लगी थी। ऐसे में महिलाओं ने ग्रामीण या कृषि के काम से लेकर शहरी नौकरियों तक हर जगह अपनी भागीदारी दर्ज की। यह एक ऐसा दौर साबित हुआ जब महिलाओं के आगे आने से उन्हें वे अधिकार और स्वतंत्रता मिली जो आम तौर पर उन्हें नहीं मिलती थी।

तत्कालीन समय में कई नारीवादी महिलाएं न सिर्फ युद्ध के खिलाफ अपनी आवाज़ दर्ज करने में सफल रहीं, बल्कि महिलाओं के मतदान करने के अधिकार पाने में भी कामयाब हुई। मसलन, पहले विश्व युद्ध के दौरान नारीवादी कार्यकर्ता एस्टेले सिल्विया पंकहर्स्ट ने खुलकर युद्ध का विरोध किया जिसकी वजह से उनपर सार्वजनिक रूप से हमला भी किया गया। वह न केवल युद्ध के खिलाफ बनी रहीं, बल्कि महिलाओं के मतदान के अधिकार के लिए भी महत्वपूर्ण काम किया। युद्ध के दौरान विधवा हो चुकी या घर पर रह रही महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा और बच्चों के लिए भी उन्होंने काम किया।

न्यूयॉर्क स्थित गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल पीस इंस्टिट्यूट ने साल 1989 से 2011 के बीच हुए 182 शांति समझौतों पर एक अध्ययन जारी किया था। इसमें पाया गया कि महिलाओं को शांति प्रक्रियाओं में शामिल करने से शांति समझौते की 15 साल या उससे अधिक समय तक चलने की संभावना 35 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

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युद्ध से किस तरह महिलाएं प्रभावित होती है  

किसी देश के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या धार्मिक नीतियां, जनादेश या निर्णयों से महिलाओं का जीवन समान रूप से प्रभावित होता है। जो देश युद्ध ग्रस्त होते हैं वहां महिला या बच्चों का मुखिया के रूप में परिवार की कमान संभालने वाले परिवारों में एकाएक बढ़ोतरी होती है। शरणार्थी शिविरों और युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में विस्थापित लोगों में अधिकांश महिलाएं और बच्चे होते हैं। महिलाओं पर सशस्त्र संघर्ष के प्रभाव और शांति निर्माण में महिलाओं की भूमिका पर स्वतंत्र विशेषज्ञों का एक आंकलन बताता है कि विस्थापित पुरुष अक्सर अपनी पत्नियों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाले परिवारों को छोड़कर शहरों में नए घर बसा लेते हैं।

ऐसी स्थिति में, महिलाएं एक ऐसे समाज में न्यूनतम स्तर पर आर्थिक सुरक्षा और सामाजिक रूप से स्वीकार की जाने वाली हैसियत तलाशती हैं; जो अकेली महिलाओं के लिए अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कहीं अधिक मुश्किल और जोखिम भरा होता है। लगभग हर समाज में महिलाएं प्राथमिक देखभाल प्रदान करने वाली होती हैं। आम तौर पर संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में न सिर्फ वह बच्चों और परिवार की ज़िम्मेदारी अकेले उठाने को मजबूर हो जाती है, बल्कि यौन हिंसा, मानव तस्करी, बंधुआ मजदूरी जैसे अन्य शोषण से लगातार जूझती हैं।

शांति प्रक्रियाओं में महिला नेताओं की भागीदारी

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, साल 1992 से 2019 तक दुनिया भर में प्रमुख शांति प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी की बात करें तो, वे औसतन केवल 13 प्रतिशत वार्ताकार (नेगोशिएटर्स), 6 प्रतिशत मध्यस्थ (मेडिएटर्स) और 6 प्रतिशत हस्ताक्षरकर्ता (सिग्नेटरिस) थीं। हर दस शांति प्रक्रियाओं में से लगभग सात में कोई भी महिला मध्यस्थ या महिला हस्ताक्षरकर्ता शामिल नहीं हुई। साल 2020 में संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व या सह-नेतृत्व वाले चार शांति प्रक्रियाओं में से दो का नेतृत्व महिला मध्यस्थों ने किया था। इन चार प्रक्रियाओं ने नागरिक समाज के साथ परामर्श किया और उन्हें जेंडर विशेषज्ञ भी प्रदान किए गए। आज महिलाओं के शांति या समझौता बातचीत में शामिल होने के प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन उनके शांति प्रक्रियाओं में शामिल होने के सकारात्मक परिणाम साबित होने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद संकल्प (यूएनएससीआर) 1325 को अपनाने के दो दशक बाद आज भी उन्हें औपचारिक शांति प्रक्रियाओं और वार्ताओं में दरकिनार कर दिया जाता है।

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शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से 40 शांति प्रक्रियाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे मामलों में जहां महिलाएं बातचीत की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव डालने में सक्षम थीं, वहां समझौता होने की संभावना बहुत अधिक पाई गई। वहीं, जहां महिला समूहों का कोई प्रभाव नहीं था या कमजोर प्रभाव रहा, वहां इसके उलट प्रवृति दिखाई दी।

क्या है यूएनएससीआर संकल्प 1325

साल 2000 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से महिलाओं और शांति और सुरक्षा पर इस संकल्प को अपनाया था। संकल्प ने महिलाओं और लड़कियों पर सशस्त्र संघर्ष के असमान और विशिष्ट प्रभाव को स्वीकार किया। संकल्प संघर्षों (कॉन्फ्लिक्ट) की रोकथाम और समाधान, शांति वार्ता, शांति-निर्माण, शांति को बरक़रार रखने, मानवीय प्रतिक्रिया और संघर्ष के बाद पुनर्निर्माण में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका की पुष्टि करता है। साथ ही, यह युद्ध के समय और उसके बाद देश में वापसी, पुनर्वास और पुनर्निर्माण के दौरान महिलाओं और लड़कियों की विशेष जरूरतों पर विचार करने के लिए लैंगिक परिप्रेक्ष्य को अपनाने का मांग करता है।

संकल्प 1325 सभी पार्टियों से महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने और संयुक्त राष्ट्र के सभी शांति और सुरक्षा प्रयासों में लैंगिक दृष्टिकोण को शामिल करने का आग्रह करता है। यह सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में, सभी पक्षों से, महिलाओं और बच्चियों को लिंग आधारित हिंसा, विशेष रूप से बलात्कार या किसी भी प्रकार के यौन शोषण से बचाने के लिए विशेष उपाय करने का मांग करता है। संकल्प 1325 सुरक्षा परिषद का पहला औपचारिक और कानूनी दस्तावेज था जिसमें महिलाओं के अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए सभी पार्टियों को शांति वार्ता में महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने पर ज़ोर देता है। यह संकल्प इसके सदस्य राज्यों के परिचालन के लिए कई महत्वपूर्ण जनादेश भी देता है।

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शांति प्रक्रियाओं में महिलाओं को शामिल करने के सफल नतीजे

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संकल्प 1325 के लागु करने के वैश्विक स्तर पर इसके नतीजों पर एक अध्ययन जारी किया गया। इस अध्ययन के अनुसार महिलाओं की भागीदारी कम से कम दो साल तक चलने वाले शांति समझौते की संभावना को 20 प्रतिशत और 15 साल तक चलने की संभावना को 35 प्रतिशत तक बढ़ा देती है। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से 40 शांति प्रक्रियाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे मामलों में जहां महिलाएं बातचीत की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव डालने में सक्षम थीं, वहां समझौता होने की संभावना बहुत अधिक पाई गई। वहीं, जहां महिला समूहों का कोई प्रभाव नहीं था या कमजोर प्रभाव रहा, वहां इसके उलट प्रवृति दिखाई दी। महिलाओं के गहरे प्रभाव के मामलों में लगभग हमेशा ही एक समझौता होता हुआ दिखा। नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के भाग लेने पर शांति समझौतों के विफल होने की संभावना 64 प्रतिशत कम होती है।

महिलाएं दुनिया की आधी आबादी का हिस्सा हैं। इसलिए किसी भी देश के मसलों में उनका भागीदारी होना अहम है। शांति प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी से अधिक टिकाऊ और लम्बे समय तक के लिए शांति हासिल की जा सकती है। लेकिन चूंकि महिलाओं की राजनीती में भागीदारी बहुत कम है, इसलिए वे ऐसे प्रक्रियाओं से भी बाहर हो जाती हैं। तथ्य बताते हैं कि कई बार युद्ध प्रभावित देशों में महिलाएं अपने विरोधी के विरुद्ध लड़ने पर उतर आती हैं। अक्सर, सैन्य बल को खाने-पीने का सामान मुहैया कराने, चिकित्सकीय जरूरतों या आम लोगों और अपने परिवार को मानवीय सहायता देने में वह अपनी भूमिका निभाती हैं।

ऐसे में, वह अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भागीदारी निभाने के बावजूद भी प्रत्यक्ष रूप से अपनी भागीदारी दर्ज नहीं कर पाती। अपने पुरुष समकक्षों के तुलना में शिक्षा या प्रशिक्षण की कमी भी उन्हें औपचारिक रूप से राजनीतिक मुद्दों से दूर कर देती है। इसके अलावा, युद्ध और संघर्ष जैसे मुद्दे को लेकर मुखर होने वाली महिलाओं को यौन हिंसा और प्रताड़ित होने का खतरा कहीं अधिक होता है। कई बार धार्मिक या सामाजिक कारणों से भी वे खुलकर अपनी भागीदारी नहीं निभा पाती। आज पहले की तुलना में महिलाओं का राजनीति में भागीदारी बढ़ने से यह उम्मीद की जा सकती है कि शांति प्रक्रियाओं जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों में उनकी उपस्थिति से समाज को एक सकारात्मक दिशा मिलेगी। 

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तस्वीर साभार: az central

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