‘शूद्र द राइजिंग’ जैसी बेहतरीन और अंदर तक झकझोर देने वाली फिल्म के निर्माता निर्देशक संदीप जायसवाल की फिल्म ‘कोटा: द रिजर्वेशन’ उन तमाम दलित, आदिवासी छात्रों के संघर्ष का डॉक्यूमेंट है जिनकी इस जातिवादी सिस्टम ने सांस्थानिक हत्या कर दी। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे कैंपस में जातिवादी मानसिकता के स्टूडेंट और प्रोफेसर रोहित वेमूला और पायल तड़वी जैसे होनहार छात्रों की हिम्मत तोड़ते हैं और उन्हें आत्महत्या करने पर मजबूर कर देते हैं। यही स्थिति आज के समय में भी लगभग हर कॉलेज, यूनिवर्सिटी कैंपस की है जहां यह कहकर कि कोटा से आने वाले स्टूडेंट्स को तो सबकुछ खैरात में मिल जाता है या वे बाकी स्टूडेंट्स का हक खा रहे हैं। उनका मनोबल गिराया जाता है और उन्हें अपमानित किया जाता है।
फिल्म की कहानी आरक्षण विषय से ज्यादा दलित, आदिवासी स्टूडेंट्स के कैंपस में संघर्ष को बखूबी बयां करती है। निर्माताओं ने फिल्म बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर को समर्पित की है। फिल्म उन तमाम जातिवादी शैक्षणिक संस्थानों को भी सवालों के घेरों में खड़ा करती है जो दलित, वंचित छात्रों का उनकी जाति देखकर शोषण करते हैं। कहानी हमें यह भी बताती है कि इस दमघोंटू सिस्टम के बीच जिन्हें कदम कदम पर अपने से छोटा समझकर नीचा दिखाया जाता है वही छात्र कैसे इन मेंटल और फिजिकल टॉर्चर को झेलते हुए अपने मकसद तक पहुंचते हैं।
फिल्म शुरू होती है कड़कती बिजली और बारिश के दृश्य के साथ। एक युवक गाड़ी चला रहा है और गंभीर मुद्रा में है। बैकग्राउंड में एफएम सुनाई दे रहा है जिस पर शुद्र फिल्म का एक सॉन्ग शुरू करने की फरमाइश की जा रही है। इसके बाद वह एक कमरे में पहुंचता हैजिसके बाहर दलित चेतना मंच कार्यालय का बोर्ड लगा है। इस युवक का नाम राज शेखर है। यह कैरेक्टर भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर रावण के जीवन से प्रेरित लगता है। गले में हमेशा एक नीला गमछा डाले, दाढ़ी मूंछों से भरा चेहरा, जोशीली आंखें, अन्याय के विरुद्ध किसी से भी भिड़ जाना और अभिवादन में जय भीम कहना यही राज शेखर है।
वापस सीन पर लौटते हैं, खराब मौसम के चलते अचानक से लाइट चली जाती है। वह मोमबत्ती जलाता है तो दीवार पर लगी डॉ.आंबेडकर की तस्वीर दिखती है। टेबल पर बुद्ध भी विराजमान हैं। वह एक किताब को गंभीरता से निहारता है और उसे देखते ही रहता है। किताब का टाइटल है सौरभ रावत: एक क्रांतिकारी। किताब का पोस्टर ही बयां कर देता है कि इस शख्स के पीछे की कहानी काफी संघर्ष से भरी रही होगी। दरअसल. सौरभ रावत राज शेखर के समय ही एक ब्रिलियंट मेडिकल स्टूडेंट था जिसे अपनी पढ़ाई के दौरान कैंपस में सवर्ण समाज के विद्यार्थियों और प्रोफेसर्स ने बेतहाशा टॉर्चर किया।
वहीं, एक मेडिकल स्टूडेंट रिचा वाल्मीकि हैं। सौरभ और रिचा क्लासमेट्स हैं और दोस्त भी। कैंपस के पहले सीन में सौरभ, रिचा और एक अन्य स्टूडेंट अपने क्लासरूम की ओर जाते दिखते हैं तो सामने खड़े सवर्ण समाज के कुछ विद्यार्थी आपस में बात कर रहे होते हैं। उनमें से ही एक पंकज शुक्ला कहता है कि अब सीट मिलना कितना मुश्किल हो गया है। एक तो ज्यादातर सीट ये कोटा वाले ही ले जाते हैं। तभी आगे से ये तीनों आते दिखते हैं तो पंकद कहता है, “लो आ गए। इनकी अलग से ही पहचान है। मैं पक्का कह सकता हूं कि ये कोटा वाले ही हैं।” तभी पास आने पर उन्हें टोकता है और नाम पूछता है और कहता है कि तुम छोटी जाति से हो और मैं ब्राह्मण। इस दौरान वह जबरदस्ती सौरभ को सिगरेट पीने को कहता है।ज बरदस्ती करने पर सौरभ साथियों के साथ वहां से चला जाता है।
इसके बाद हॉस्टल में भी सवर्ण विद्यार्थियों का यह समूह सौरभ के साथ हिंसा करता है। दरअसल यह दो छात्रों या दो गुटों का मामूली झगड़ा नहीं था। यह एक खाई है जो दो अलग विचारधाराओं के बीच है। यहीं से एक शुरुआत होती है अत्याचारों की, नफरत की, भेदभाव के घिनौने खेल की। इन सबसे परेशान होकर जब सौरभ प्रोफेसर त्रिवेदी के पास शिकायत लेकर जाता है तो प्रोफेसर कहते हैं, “तुम कोटा वालों की यही समस्या है। तुम कैंपस का नाम बदनाम करना चाहते हो।” सौरभ को बात-बात पर परेशान किया जाता है। लेकिन उसकी शिकायत कोई मानने को तैयार नहीं। राज शेखर उसे लेकर अपने समाज के आईएएस के पास भी जाते हैं लेकिन वह कुछ मदद करने से आनाकानी करते हैं। यहां बाबा साहेब की वे लाइनें याद आती हैं जब उन्होंने आगरा में एक भाषण में कहा था कि मुझे मेरे समाज के पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया है।
एक सीन में सौरभ और रिचा कैंपस की कैंटीन में बैठे हैं और सौरभ का ध्यान रिचा के झुलसे हुए हाथ पर जाता है। वह इस बारे पूछता है तो रिचा बताती है कि वो हॉस्टल में नहाने के लिए वाशरूम गई थी तो कुछ सीनियर्स आई और पूछने लगी कि यहां कौन है। वह जल्दबाजी में बाहर आई तो उन्होंने कहा, “तुम तो रिचा वाल्मीकि हो न फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट। तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम हमारा वाशरूम यूज कर रही हो और देखते ही देखते सिगरेट से हाथ जला दिया।” मैं फिल्म देखते हुए सोच रहा था कि हाथ का निशान तो हफ्ते दो हफ्ते में मिट जाएगा लेकिन इनके व्यवहार के निशान उम्र भर मन मस्तिष्क को कुरेदते रहेंगे।
रिचा सौरभ से कहती है कि जब तुम्हारे शिकायत करने से कुछ नहीं बदला तो मेरा शिकायत करने का क्या मतलब रह जाता है। इसी बीच सेमेस्टर का रिज़ल्ट आता है और सौरभ को प्रोफेसर त्रिवेदी अपने विषय में फेल कर देता है। यह घटना उसे सिर्फ तोड़ती ही नहीं है बल्कि यह अहसास भी करवाती है कि यह लड़ाई किसी एक स्टूडेंट की नहीं है। यह लड़ाई भेदभाव और जातिवाद के विरोध के बीच है। वह भगत सिंह को याद करता है और सिस्टम तक आवाज पहुंचने का उनका तरीका अपना लेता है। आवाज बुलंद करने पर शहीद भगत सिंह को अंग्रेजों द्वारा फांसी दे दी गई और सौरभ को ऐसा करने पर सिस्टम द्वारा मजबूर कर दिया गया। यह कहानी सिर्फ सौरभ रावत की नहीं है। रोहित वेमुला, पायल तड़वी, बालमुकुंद भारती मनीष कुमार जी, अनिल मीणा, जसप्रीत सिंह, सेंथिल कुमार, अनिकेत अंभोरे, शनमुगम अनि था, रेजनी एस आनंद, टी अभिनाथ, मुटुथ कृष्णन, लिनेश मोहन जी, मेलेपुल्ला श्रीकांत, अजय श्री चन्द्र और इन्हीं की तरह देश भर में न जाने कितने ही दलित आदिवासी छात्र इस जातिवादी मानिसकता ने लील लिए हैं।
ये व्यवस्था आज से नहीं बल्कि तब से है जब डॉ.आंबेडकर को क्लास के बाहर चप्पल जूतों के पास बैठाया जाता था। यह व्यवस्था तब से है जब सावित्री बाई फूले को पढ़ने जाते देख कुंठित मानसिकता के लोग उन पर गंदगी और कीचड़ फेंकते थे।जब ओमप्रकाश वाल्मीकि को क्लास में बैठकर क ख ग सिखाने की बजाय उनके हाथ में झाड़ू थमाकर यह कहा गया कि यह पूरा स्कूल शीशे की तरह चमकाना है। रोहित वेमुला, पायल तड़वी जैसे क्रांतिकारी हमेशा हम जैसे करोड़ों नौजवानों के प्रेरणाश्रोत रहेंगे। यह फिल्म उनके ही संघर्ष को दर्ज करती है।