स्वास्थ्य “दर्द को दिमाग से निकाल दो” गैसलाइटिंग के चलते इलाज में लापरवाही और स्थापित होते लैंगिक पूर्वाग्रह

“दर्द को दिमाग से निकाल दो” गैसलाइटिंग के चलते इलाज में लापरवाही और स्थापित होते लैंगिक पूर्वाग्रह

गैसलाइटिंग किसी को अमान्य या खारिज करते हुए उसकी वास्तविकता को बार-बार नकारना है। यह एक भावनात्मक दुर्व्यवहार है। जब मेडिकल प्रोफेशनल्स इस तरह के व्यवहार करते हुए किसी व्यक्ति की सहनशीलता पर सवाल उठाते हैं तो यह बहुत ही दुखदायी और अपमानजनक होता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर जिले की रहने वाली 30 वर्षीय वर्षा (बदला हुआ नाम) बीते कुछ वर्षों में शरीर मे दर्द, कमजोरी का सामना कर रही हैं। आज से लगभग छह साल पहले जब उन्हें यह शिकायत हुई तो वह डॉक्टर के पास गई। तमाम मेडिकल जांच होने के बाद रिपोर्ट को देखते हुए डॉक्टर ने उन्हें हंसते हुए कहा था, “इन रिपोर्ट को कूड़े में डाल दो और बस हंसो और खेलो। इस उम्र में चिंता मत करो।” बाद में अन्य जगह इलाज के बाद उन्हें पता चला कि वह सर्वाइकल पेन का सामना कर रही थी। लेकिन इससे पहले उस डॉक्टर के ये शब्द वर्षा के लिए उनकी शारीरिक और मानसिक पीड़ा को और बढ़ाने वाले साबित हुए।

दरअसल डॉक्टर के द्वारा किया गया यह व्यवहार मेडिकल गैसलाइटिंग कहा जाता है। मेडिकल गैसलाइटिंग एक तरह से डॉक्टर द्वारा किया गया दुर्व्यवहार है जिसमें एक डॉक्टर मरीज की समस्या को ध्यान से सुनते नहीं है, उनकी पीड़ा को फिजूल बताकर टाल देते हैं। डॉक्टर द्वारा बीमारी और लक्षणों के लिए मनोवैज्ञानिक वजह को जिम्मेदार बताना या फिर उनकी बीमारी को सिरे से खारिज कर देना है। इस तरह का व्यवहार महिलाओं के साथ कुछ ज्यादा ही होते हैं। अध्ययनों के अनुसार डॉक्टर और मरीज के बीच हर सात में से एक मुलाकात में गलतियां होती है। इनमें से बहुत सी गलतियां मनोवैज्ञानिक ज्ञान की कमी की वजह से संभव है। मेडिकल न्यूज़ टुडे में प्रकाशित लेख के अनुसार गैसलाइटिंग शब्द 1944 में ‘गैसलाइट’ नामक फिल्म से निकला है जो एक पति द्वारा अपनी पत्नी को मानसिक रूप से दिवालिया घोषित करने के प्रयास के बारे में है। 

गैसलाइटिंग क्या है?

तस्वीर साभारः medtigo.com

गैसलाइटिंग किसी को अमान्य या खारिज करते हुए उसकी वास्तविकता को बार-बार नकारना है। यह एक भावनात्मक दुर्व्यवहार है। जब मेडिकल प्रोफेशनल्स इस तरह के व्यवहार करते हुए किसी व्यक्ति की सहनशीलता पर सवाल उठाते हैं तो यह बहुत ही दुखदायी और अपमानजनक होता है। हेल्थलाइन.कॉम में प्रकाशित जानकारी के अनुसार जब डॉक्टर गैसलाइटिंग वाला बर्ताव करते हैं तो यह अनिश्चितता और खुद पर संदेह को बढ़ावा देता है जो अक्सर मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। बेशक कोई भी गैसलाइटिंग का अनुभव कर सकता है लेकिन शोध के अनुसार स्त्री द्वेष और रूढ़िवाद के चलते महिलाएं और अन्य हाशिये पर रहने वाले समूह, एलजीबीटीक्यू+ लोगों के लक्षणों को डॉक्टरों द्वारा खारिज करने की संभावना अधिक होती है। जिस वजह से इलाज में देरी और गलती होने की संभावनाएं होती है। 

महिलाओं पर अनेक स्तर पर असर

न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित लेख के अनुसार अध्ययन दिखाते हैं कि विभिन्न स्थितियों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को मेडिकल गैसलाइटिंग का खामियाजा भुगतना पड़ता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कैंसर और दिल की बीमारी के इलाज के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। इतना ही नहीं ब्रेन इंजर्री के लिए इलाज करने का तरीका कम अक्रामक होता है और उनके दर्द के लिए कम पावर वाली दवाईयां दी जाती है। अमेरिका में काले लोगों के साथ उनके रंग के आधार पर इलाज में लाहपरवाही देखने को मिलती है। यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो, डेनवर की शोधकर्ता करेन लुत्फी स्पेंसर के अनुसार हम जानते हैं कि महिलाओं और विशेषरूप से ब्लैक महिलाओं का डॉक्टरों द्वारा अक्सर पुरुषों की तुलना में अलग तरीके से इलाज किया जाता है। 

तुम तो खानदानी मोटे लोग हो क्यों चिंता करती हो

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मज़फ़्फ़रनगर जिले के एक गांव की रहने वाली 27 वर्षीय दीक्षा बढ़ते वजन की समस्या से परेशान थीं। काफी वजह बढ़ने की वजह से वह डॉक्टर के पास परामर्श के लिए गई। पारिवारिक स्तर पर डॉक्टर को जानते हुए डॉक्टर ने उनके बढ़ते वजन की समस्या को दरकिनार करते हुए सबसे पहले उन्हें ये कहा कि तुम्हारे परिवार में तो सब ही मोटे-ताजे लोग हैं तुम हो गई तो क्या कोई अलग बात है। समस्या को न देखते हुए डॉक्टर का यह बयान दीक्षा के लिए बहुत परेशानी वाला था।

अपने अनुभव को फेमिनिज़म इन इंडिया से साझा करते हुए उनका कहना है, “मैं उस वक्त ग्रेजुएशन के पहले साल में थी और लगातार मेरा वजन बढ़ रहा था जिस वजह से मुझे चलने-फिरने और सांस लेने तक में परेशानी थी। लेकिन डॉक्टर का मेरी समस्या को ध्यान से न सुनना और इसे जैनेटिक बता देना मेरे लिए बहुत ही पैनिक करने वाली बात थी। बाद में दूसरे डॉक्टर के पास जाकर मुझे पता चला कि मैं हॉर्मोनल इनबैलेंस का सामना कर रही थी। हम डॉक्टर के पास जाते हैं ताकि हमें होने वाली परेशानियों को वे दूर कर सके। मोटापे के कारण अक्सर लोग मुझ पर हंसे हैं इनमें डॉक्टर का शामिल होना और भी ज्यादा भयावह है। अगर हमें कोई बीमारी भी नहीं है तो भी डॉक्टर का काम है कि वह मरीजों में संतुष्टि लाए लेकिन यहां यह भी देखने को मिलता है कि वे खुद ही एक मरीज के साथ असंवेदनशीलता से पेश आते हैं। डॉक्टरर्स का इस तरह का व्यवहार लोगों को हत्तोसाहित करता है और निराशा से घेरता है।”

47 फीसदी क्यीवर लोगों ने मेडिकल गैसलाइटिंग का किया सामना 

तमाम तरह के अध्ययनों के अनुसार यह स्पष्ट है कि मेडिकल क्षेत्र में गैसलाइटिंग बड़े स्तर पर मौजूद है। ख़ासकर के समाज में हाशिये की पहचान रखने वाले समुदाय के लोगों को इलाज के दौरान डॉक्टरों के दुर्रव्यवहार का सामना करना पड़ता है। महिलाओं के बाद एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों को उनकी लैंगिक पहचान की वजह से मेडिकल गैसलाइटिंग का सामना करना पड़ता है। हाल ही में हुए एक अध्ययन के अनुसार 47 फीसदी एलजीबीटीक्यू लोगों ने मेडिकल गैसलाइटिंग की बात को माना है। चिकित्सकों और अस्पतालों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने वाली ऑनलाइन रिसोर्स हेल्थग्रेड्स और एलजीबीटीक्यू+ स्वास्थ्य समानता संसाधन ऑउटकेयर हेल्थ की साझा अध्ययन के तहत चिकित्सा प्राणाली में बाधाएं, पूर्वाग्रह और लोगों के ख़िलाफ़ भेदभाव को अनके स्तर पर जांचा गया है। 

इस रिसर्च में 952 एलजीबीटीक्यू+ युवाओं, 1049 हेट्रोसेक्सुअल युवाओं से बात की गई हैं। रिसर्च में पाया गया है कि सर्वे किए गए 47 प्रतिशत एलजीबीटीक्यू+ लोगों ने बीते दो साल में मेडिकल मिसोजिनी का सामना किया हैं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि 29 फीसद क्वीयर ने महसूस किया है कि उन्हें नकार दिया गया है या उनके डॉक्टर ने गंभीरता से नहीं लिया है। 15 फीसदी को बताया गया है कि बीमारी के लक्षण केवल उनके दिमाग में है, 18 फीसदी ने मेडिकल ट्रामा की बात को माना है और 10 फीसदी ने चिकित्सीय भेदभाव के बारे में बात की है। 

सर्वे के अनुसार चार में एक एलजीबीटीक्यू+ व्यस्क ने किसी भी तरह की स्वास्थ्य जांच नहीं हुई थी। सिसजेंडर में पांच में से एक व्यस्क की तुलना में। आधे से अधिक क्वीयर लोगों का कहना है कि जानबूझकर देरी, नकारना और छोड़ना टेस्ट को न कराने का कारण है। सम्मान और सहयोग की कमी के साथ-साथ अधिक मेडिकल जांच की कीमत भी इनकी वजह है जो क्वीयर और सिसजेंडर दोनों को प्रभावित करती हैं। 

रिसर्च में पाया गया है कि सर्वे किए गए 47 प्रतिशत एलजीबीटीक्यूआईए+ लोगों ने बीते दो साल में मेडिकल मिसोजिनी का सामना किया हैं। सर्वेक्षण से पता चलता है कि 29 फीसद क्वीयर ने महसूस किया है कि उन्हें नकार दिया गया है या उनके डॉक्टर ने गंभीरता से नहीं लिया है।

“डॉक्टर हाथ लगाना तक पसंद नहीं करते हैं”

दिल्ली स्थित मित्र संस्था में प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर काम करने वाली ट्रांस महिला बेला का मेडिकल गैसलाइटिंग के बारे में फेमिनिज़म इन इंडिया से बात करते हुए कहना है, “पहला तो स्वास्थ्य का अधिकार एक मानवाधिकार है तो सब लोगों तक बिना किसी भेदभाव के स्वास्थ्य सुविधा पहुंचनी चाहिए लेकिन असलियत में ऐसा नहीं है। अगर हम एलजीबीटीक्यू समुदाय के पहलू से मेडिकल गैसलाइटिंग की बात करे तो इसको बहुत गहरे स्तर पर देखना होगा। इसमें ट्रांसजेंडर लोग जिनकी आइडेंटिटी विजिबल होती है तो वहां चीजें बहुत हद तक खराब हो जाती है। डॉक्टर आपको हाथ तक लगाना पसंद नहीं करते हैं, बात ध्यान से नहीं सुनते हैं। डॉक्टर से पहले पहुंचने के लिए ओपीडी का रजिस्ट्रेशन होता है वहां मेल, फीमेल, सीनियर सिटीजन की लाइन होगी लेकिन ट्रांसजेंडर के बारे में कोई बात नहीं है। इससे अलग मेडिकल रिसर्च में ट्रांसजेंडर के अनुभवों पर चर्चा नहीं है। मेडिकल इंडस्ट्री में हर स्तर पर ट्रांस कम्यूनिटी को नज़रअंदाज किया जाता है। जब डॉक्टर ही हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते है तो वहां का बाकी स्टॉफ तो क्या ही उम्मीद करें। यही कारण है कि ट्रांस लोग बहुत मुश्किल से या बहुत बाद में मेडिकल हेल्प के लिए सामने आते हैं। क्योंकि अपमानजनक और तिरस्कार वाला माहौल उनके लिए बहुत पीड़ादायक होता है। बीमारी का सामना करने वाले इंसान को सहारे की ज़रूरत है लेकिन ट्रांस लोगों को तो हर हाल में उनकी सेक्शुअल आइडेंटिटी की वजह से डॉक्टर तक बात करने से कतराते हैं।” 

सेल्फ एडवोकेसी में भी है बाधाएं

समाज में नियमित रूप से पूर्वाग्रहों के आधार पर महिलाओं और जेंडर माइनॉरिटी के स्वास्थ्य, चिकित्सक परेशानियों को कम आंका जाता है। वर्तमान के इंटरनेट के युग में मेडिकल गैसलाइटिंग से निपटने के लिए सेल्फ एडवोकेसी एक विकल्प बनकर उभरता है डिजिटली जानकारी हासिल करके वे बेहतर तरीके से गैसलाइटिंग के बारे में जान पाएंगे और समय रहते सचेत हो जाएगें। लेकिन महिलाओं और ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सेल्फ एडवोकेसी भी चुनौतियों के साथ आती है। चिकित्सा अनुसंधान में लैंगिक पूर्वाग्रहों के आधार के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य से संबंधित डेटा की कमी है। जिस वजह से महिलाओं को सेल्फ एडवोकेसी करने के लिए आवश्यक जानकारी की कमी है। 

महिलाओं दर्द को बेवजह कहने की आदत हैं

तस्वीर साभारः Verywell Mind

महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याओं को नकारने के अनके विचार व्याप्त है जैसे महिलाएं अत्याधिक भावुक होती हैं, वे अपनी परेशानियों को बढ़ा-चढ़कर पेश करती हैं। पीरियड्स के होने वाले नियमित दर्द को भी इसी तरह से बताती है। हालांकि पेनफुल पीरियड्स होने के कारण एंडोमेट्रियोसिस, पीसीओएस, थॉयराइड और अन्य अनेक वजहें है। साथ ही 2018 में हुए शोध में 77 अध्ययनों में उच्च आय वाले देशों में दर्द में लैंगिक अंतर का विश्लेषण किया गया। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि महिलाओं को पीरियड्स के दौरान दर्द और प्रसव के कारण आंतरिक दर्द की आदत है। महिलाओं के शरीर की दर्द एक प्राकतिक गुण है। कुछ अध्ययनों में दर्द का सामना करने वाली महिलाओं के लिए यह भी कहा गया है कि वे भावुक, उन्मादी, शिकायती, बेहतर न होने की इच्छा न रखने वाली और दर्द को ऐसे गढ़ने वाली है जैसे ‘दर्द उसके दिमाग में हो’ वाली होती है। 

हेल्थन्यूज़ में प्रकाशित लेख में जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में स्थित जैकब्स इंस्टीट्यूट ऑफ वीमन हेल्थ की निदेशख डॉ. सुसान वुड का कहना है कि महिलाओं के स्वास्थ्य पर शोध की कमी की पहचान बहुत पहले कई दशक में की गई थी। मेडिकल गैसलाइटिंग आज भी मौजूद है, लेकिन आज भी आवश्यक रूप से सचेत होने की कमी है। 

विभिन्न स्थितियों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को मेडिकल गैसलाइटिंग का खामियाजा भुगतना पड़ता है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कैंसर और दिल की बीमारी के इलाज के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है।

गैसलाइटिंग की समस्या एक मरीज की स्थिति को और भी खतरनाक स्थिति में पहुंचा सकती है। ख़ास तौर पर मानसिक स्वास्थ्य के शुरुआती लक्षणों को नकार कर डिप्रेशन को बढ़ाया जा सकता है। मेडिकल गैसलाइटिंग की वजह से मरीज और अधिक तनाव से घिर जाते हैं। मरीज की पूरी बात न सुनने की वजह से लाहपरवाही की वजह से जान गवांने का खतरा तक बन सकता है। मेडिकल गैसलाइटिंग के व्यवहार को पहचाना बहुत आवश्यक है। अगर डॉक्टर अपके अनुभवों को अनसुना कर रहा है, बात ध्यान से नहीं सुन रहा है, लक्षणों को नज़रअंदाज कर रहा है स्थिति के बाद भी अन्य जांच को वरीयता नहीं दे रहा है और विशेष तौर पर मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर बेहद असंवेदनशीलता से बात कर रहा है तो इस तरह का व्यवहार मेडिकल गैसलाइटिंग से जनित है। चिकित्सा विज्ञान में सेक्स और लैंगिक पहचान की व्यापक्ता पर आधारित डेटा की कमी की वजह से महिलाओं और ट्रांस समुदाय के लोगों को गैसलाइटिंग का सामना करना पड़ता है। इसलिए इस अंतर को खत्म करने के लिए शिकायतें की जाएं और मुद्दें पर चर्चा की जाएं।


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