घर में बैठकर सब खाना खाएंगे लेकिन उसके बनाने और खाने के बाद बचा हुए कचरा आदि को इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी घर की औरतों की है। इसके बाद सुबह-सुबह पूरे घर के कचरे को बाहर ले जाकर कही दूर खुले मैदान में उठाकर फेंकने की जिम्मेदारी भी घर की औरतों की हैं। कुछ शहरी और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए इस काम के लिए हाशिये की जाति के ही व्यक्ति इसके लिए नियुक्त होते हैं जिनका नाम ‘कूड़ेवाले भैया या आंटी’ होता है। यह वाक्य भारतीय समाजिक परिवेश में कचरा प्रबंधन में जाति और जेंडर की भूमिका को स्पष्ट तरीके से ज़ाहिर करता है। कूड़े-कचरे के प्रबंधन का काम करनेवाले श्रमिकों में हाशिये के समुदाय की भूमिका अधिक होने की वजह से इस क्षेत्र में काम करने वालों की स्थिति और आवश्यकता पर ज्यादा चर्चा नहीं होती है। इतना ही नहीं कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में काम करने श्रमिकों को सम्मान और बराबरी की नज़र से नहीं देखा जाता है। इस सोच की बुनियाद, हमारे जातिवादी पितृसत्तात्मक समाज से ही उपजी है।
कचरा प्रबंधन सेक्टर बेशक जेंडर न्यूट्रल दिखता है लेकिन लैंगिक असमानता और उससे जुड़े मानदंड इस क्षेत्र के हर पहलू में शामिल है। कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में जाति, लैंगिक भूमिका और रूढ़िवाद के आधार पर ही श्रम का विभाजन किया गया है। जहां पुरुष कचरे प्रबंधन के व्यापार, रिसाइकिलिंग और रिसेल के तौर पर काम करते नज़र आते हैं। वहां, महिलाएं कचरा इकट्ठा करना, सफाई, कचरा अलग करने जैसे कामों तक सीमित हैं। इस तरह से इन कामों के बंटवारे में आय का अंतर भी है। महिलाओं द्वारा किए जाने वाले काम निम्न आय वाले माने जाते हैं। घरेलू स्तर पर कचरा उठाने का काम करनेवाले श्रमिकों को पारिश्रमिक महीने का अधिकतम सौ रुपये प्रति घर मिलता है।
कचरे का ढ़ेर और प्रबंधन
भारतीय गांव, शहर या कस्बा हो किसी भी जगह घुसते ही खुले मैदान में, सड़क किनारे कचरे के ढेर दिखते हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लोगों की ज़रूरतों से पैदा हुए कचरे ने एक पहाड़ की शक्ल ले ली है। कचरे के इर्द-गिर्द बसे हमारे शहरों में बड़ी संख्या में लोग काम कर रहे हैं इसमें सरकार द्वारा और स्वनियोजित रूप से काम करने वाले स्वच्छता कर्मचारी शामिल हैं। निजी तौर पर डोर-टू-डोर कचरा इकट्टा और कचरा इकट्ठा करने वाले हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। कचरा उठाने का काम करने वाले अधिकतर दलित या मुस्लिम हैं। जो दिन के न्यूनत 100 से अधिकतम 400-500 रुपये कमाने के लिए बेहद खतरनाक स्थिति में काम करते हैं। डंपिंग ग्राउंड में काम करने वाले कचरा इकट्ठा करने वाले श्रमिकों में जहरीली गैसें, नुकीली चीजों के द्वारा चोट, संक्रमण आदि का खतरा बना रहता है।
द जॉर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित जानकारी के अनुसार भारत में 5 लाख मिलियन से अधिक सफाई कर्मचारी हैं। हालांकि भारत में कचरा इकट्ठा करने वालों से जुड़ा कोई आधिकारिक डेटा नहीं है लेकिन अनुमान के आधार पर 1.5 मिलियन लोग इसमें शामिल है। यह आंकड़ा वैश्विक कचरा इकट्ठा करने वाले समुदाय का 10 फीसदी है। कचरा इकट्ठा करने वाले लोग सड़क, घरों, कूड़ेदानों से कचरा इकट्ठा करते हैं। कई स्तरों पर कचरे को अलग-अलग करके बेचते है। इस प्रक्रिया में ठेकेदार अहम भूमिका निभाता है और वह अलग-अलग कचरा इकट्ठा करने वाले श्रमिकों से सामान खरीदता है या उन्हें ठेके पर मजदूरी के तहत काम कराता है।
‘अच्छा काम नहीं है ये गंदगी और गाली का काम‘
बीना, मूल रूप से मध्य प्रदेश की रहने वाली हैं। उसका पति वहां से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर जिले में ठेकेदार के साथ मजदूरी करने आया हुआ है। उसके बाद वह भी अपने बच्चों के साथ शहर में आ गई थी। बीना अशिक्षित हैं। कचरा उठाने के काम के बारे में पूछते हुए उनका कहना है कि वह इस शहर में नई है और किसी को जानती नहीं है। जहां रहती है वहां पास में कबाड़ी का बड़ा काम होता है तो उसे देखकर कुछ आर्थिक मदद के लिए उसने कचरा इकट्ठा करने का काम शुरू किया। वह दिनभर खाली प्लास्टिक की बोतलें सड़कों और कचरे के ढेर से इकट्ठा करने लगी। वह आगे कहती हैं, “यह कोई काम तो नहीं है बस जब कुछ और विकल्प नहीं दिखा तो थैला लेकर यही कर लिया। पूरा दिन के तौल के हिसाब से पैसे मिलते हैं, बच्चा छोटा है उसके लिए कुछ खरीद लेते है। कोई अच्छा काम नहीं है ये गंदगी और गाली का काम है, कचरा वाली समझकर हमको कोई भी भगा देता है। बरसात इस बार ज्यादा हुई तो कचरे में जाने पर मेरे हाथ में खुजली भी हो गई थी देखो फिर कुछ दिन काम नहीं किया अब पन्नी बांधकर काम करते है।”
कचरा प्रबंधन और जेंडर
पारंपरिक तौर पर घर के दैनिक काम महिलाओं के हिस्से हैं, जिसका मतलब है कि घरेलू कचरे के निवारण के लिए भी महिलाएं जिम्मेदार हैं। इससे अलग व्यापक स्तर पर वेस्ट मैनेजमेंट सेक्टर में महिलाएं सबसे निचले स्तर पर काम करने वाली पाई जाती हैं। ओशन कंजरवेंसी द्वारा पुणे में किए गए सामाजिक-आर्थिक अध्ययन के अनुसार सड़कों पर रीसाइक्लिंग चुनने वाली 90 फीसद महिलाएं हैं, जिनमें 25 फीसदी विधवा, 30 फीसदी घर की मुखिया और 8 फीसदी अकेले कमाने वाली हैं। लगभग सभी काम करने वाली हाशिये की जाति से संबंध रखती थीं और उन्होंने अपनी इच्छा से यह नौकरी नहीं चुनी थी।
बैंगलुरू शहर में वेस्ट मैनेजमेंट के क्षेत्र में सक्रिय तौर पर काम करने वाली एनजीओ हसीरू डाला के अनुसार कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में महिलाएं खरीदार या स्क्रैप डीलर के तौर पर काम नहीं करती हैं। संस्था द्वारा किए गए सर्वे के मुताबिक़ कचरा प्रबंधन का बिजनेस का रजिस्ट्रेशन 99 फीसदी पुरुषों के नाम पर हैं। 53 प्रतिशत सर्वे किए बिजनेस पारिवारिक बिजनेस है जिनमें महिलाएं शामिल है।
शीला (बदला हुआ नाम) मुजफ़्फ़रनगर नगर पालिका के तहत झाडू लगाने का काम करती हैं। वह पिछले बीस सालों से यह काम कर रही हैं। अपने कार्य अनुभवों के बारे में बात करते हुए उनका कहना है, “ठेके की व्यवस्था के कारण पैसा मिलने में बहुत दिक्क़त होती है। हम तो पुराने कर्मचारी हो गए हैं अब तो नए-नए नियम आ गए हैं समय बदल गया है। पहले तो महीनों काम करने के बाद भुगतान होता था।” सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करने के सामाजिक अनुभवों के बारे में उनका कहना है, “हम आपकी गली को साफ-सुथरा बनाते हैं, गंदगी साफ करते हैं लेकिन हमें बहुत हिराकत की नज़र से देखा जाता है। चांद, मंगल कही भी चला जाए ये देश लेकिन हमारे काम, हमारी जाति को लेकर नहीं बदला है। झाडू लगाने वाली तक हमारी पहचान बनाई हुई है।”
कचरा इकट्ठा करने वाले श्रमिकों की आर्थिक स्थिति सबसे निम्न स्तर पर है। जहां एक ओर ठेकेदार द्वारा तय मजदूरी में दिनभर काम करना पड़ता है वहीं दूसरी ओर चुने हुए कचरे को विक्रेता के द्वारा तय मूल्य पर खरीदना होता है। संयुक्त राष्ट्र डेवलपमेंट प्रोग्राम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कचरा इकट्ठा करने वालों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है। दस राज्यों के 14 शहरों में हुए अक्टूबर 2020 से फरवरी 2021 तक हुए सर्वे में शामिल 9,300 की संख्या में स्त्री और पुरुष बराबर शामिल थे। इसमें अधिकतर कचरा चुनने, सड़क साफ करने वाले और लैंडफिल में से कचरा अलग करने वाले शामिल थे। सर्वे में शामिल कचरा प्रबंधन के कार्य में जुटे लोगों में से 47 फीसदी अनुसूचित जाति, 18 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग, पांच फीसदी अनुसूचित जनजाति से हैं। अधिकतर लोगों के पास मूल आवश्यक पहचान पत्र से संबंधित दस्तावेजों की भी कमी है। सर्वे में शामिल 67 प्रतिशत के पास ही बैंक में खाता हैं और मात्र 21 प्रतिशत के पास जन धन योजना के तहत बैंक अकाउंट था।
50 वर्षीय हरपाल रेड़ा लेकर घर-घर जाकर कचरा इकट्ठा करने का काम करते हैं। वह हर घर से कचरा एकत्र करने का सौ रुपया महीने का लेते हैं। कचरा इकठ्ठा करने के काम के बारे में बात करते हुए उनका कहना है कि हमनें हमारी जात के लोगों को यही काम करते हुए देखा हैं। आज तो रेडा लेकर कचरा ही उठाते है इससे पहले तो घरों में शौचालय भी साफ करते थे। अब जमाना बदल गया है घरों में कमरों में शौचालय बनने लगे हैं तो वह काम तो यहां अब बंद सा हो गया है। अब तो उम्र भी हो गई है बच्चे बड़े हो गए है खुद के खर्चे-पानी के लिए दस-बारह घर और एक अस्पताल से कचरा इकट्ठा करने का काम करता हूं।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 40 लाख लोग कचरा प्रबंधन के कार्य से जुड़े हैं। कचरा इकट्ठा करने वाले श्रमिकों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत खराब हैं। बड़े शहरों में तो ये लोग दिन का अधिकतम पांच सौ रुपये कमा लेते हैं लेकिन गांव, कस्बे, छोटे शहरों में कमाई का अंतर अलग है। दूसरी तरफ इस वर्ग को लेकर किसी तरह की कोई नीति नज़र नहीं आती है। दुनिया में मानव सृजित कूड़े में हर सेकेंड वृद्धि हो रही है। कचरा प्रबंधन एक तरफ बड़ी समस्या है साथ ही इसमें काम करने वाले श्रमिकों की स्थिति पर बात करनी समय की पहली मांग है। द जॉर्ज इंस्टीट्यूट ग्लोबल हेल्थ के अनुसार असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कचरा उठाने वाले श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य और अन्य स्तर पर नीतियां बनाने की आवश्यकता है। कचरा उठाने वाले श्रमिकों के काम को पहचान, मान्यता देने की आवश्यकता, सुरक्षा संबंधी योजनाएं ज़रूरी है। इस क्षेत्र में और अधिक अध्ययन करके कचरे प्रंबधन में जुटे श्रमिकों की सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा के लिए नीतियों के निर्माण होने की बहुत आवश्यकता है।