समाजविज्ञान और तकनीक खेल और व्यायाम से जुड़ी रिसर्च को कैसे प्रभावित करते हैं लैंगिक पूर्वाग्रह

खेल और व्यायाम से जुड़ी रिसर्च को कैसे प्रभावित करते हैं लैंगिक पूर्वाग्रह

तीन अलग-अलग वर्षों (2010, 2015, 2020) के पांच प्रमुख जर्नल्स में प्रकाशित लेखों में पाया गया है कि अध्ययनों में खेल के अतिरिक्त व्यायाम मनोविज्ञान पर केंद्रित किया गया है लेकिन उनमें महिलाओं और लड़कियों का प्रतिनिधित्व कम है। 

जिम ट्रेनिंग, एक्सरसाइज, खेल-कूद हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद ज़रूरी हैं। लेकिन हम यह नहीं जानते है कि इन क्षेत्रों से जुड़ी रिसर्च कैसे महिलाओं और हाशिये के जेंडर के पक्ष को अब तक अनदेखा करती आई है। ऐसा इसलिए क्योंकि बात जब खेल, व्यायाम, भाग-दौड़ की होती है तो इसे ‘पुरुषों की दुनिया’ माना जाता है। इसे ताकत से जोड़कर देखा जाता है। इसी वजह से खेल, अभ्यास के पूरे इतिहास में पुरुषों को प्राथमिकता दी गई है। औरतों और हाशिये के अन्य लैंगिक पहचानों को ऐतिहासिक तौर पर खेलों के लिए योग्य तक नहीं माना गया है।

एक अध्ययन के अनुसार कुछ खिलाड़ियों का मानना है कि महिला और एथलीट होना लगभग एक-दूसरे से अलग पहचान रखना है। महिला खिलाड़ी दो संस्कृति में रहती हैं। एक बतौर एथलीट के रूप से निहित मर्दानगी और दूसरा सामाजिक- सांस्कृति के तौर पर महिला पहचान के लिए स्त्रीत्व को अपनाती हैं। ऐसी धारणाएं प्राचीन काल से बनी हुई हैं। महिलाओं की शारीरिक रचना पुरुष से अलग है लेकिन मानव स्वास्थ्य में होनेवाले अध्ययनों में पुरुष और नर जानवरों को शामिल किया जाता है। स्त्री शारीरिक संरचना, उसकी आवश्यकता, प्रभाव और पक्ष को कम महत्व दिया जाता है। हाल ही में नये शोध में पता चला है कि महिला और पुरुष के बीच एक्सरसाइज विज्ञान में जेंडर गैप बढ़ रहा है। जहां पुरुषों द्वारा, पुरुषों पर, पुरुषों के लिए शोध किए जाते हैं। इस वजह से महिलाओं की चोट, इलाज, खेल, व्यायाम आदि से जुड़े शोध नज़रअंदाज़ होते चले जाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने भी अपने एक बयान में कहा है कि हमें अलग जेंडर, जातीय, स्किल सेट और अलग अनुभवों के लेखकों की आवश्यकता है। वैज्ञानिक प्रकाशनों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 25 फीसदी से कम है।

खेल के रिसर्च से गायब महिलाओं का पक्ष

स्पोर्ट्स मेडिसिन के प्रकाशित लेख में तर्क दिया गया है कि अल्ट्रामैराथन दौड़ने वाले पुरुषों और महिलाओं के बीच थकान और चोट की संवेदनशीलता सहित बहुत अंतर थे। मेलबर्न यूनिवर्सिटी के अध्ययन में पाया गया है कि मुख्य रूप से पुरुषों पर आधारित खेल मनौवैज्ञानिक अनुसंधान अध्ययन कोचिंग के तरीके, चोट प्रबंधन और प्रदर्शन मनोविज्ञान को प्रभावित कर सकते हैं।

द कन्वरशेसन में प्रकाशित रिपोर्ट में रिसर्च के लेखकों के जेंडर के बारे में भी जानकारी देते हुए कहा गया है कि कि 91 प्रतिशत बयान और लेखक पुरुष हैं। कुल मिलाकर लेखकों में केवल 13 प्रतिशत महिलाएं थीं। जिन अध्ययनों पर व्यस्क और युवाओं के बयान आधारित थे उनमें महिला प्रतिभागियों की संख्या केवल 30 फीसदी थीं। रिपोर्ट के अनुसार कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि 30 प्रतिशत महिला प्रतिभागियों का डेटा शामिल करना सही है क्योंकि महिलाएं अधिक वजन नहीं उठाती हैं। बता दें कि साल 1980 और उससे पहले वजन प्रशिक्षिण (वेट ट्रेनिंग) को एक मर्दाना प्रयास के तौर पर देखा जाता था। 

तस्वीर साभारः FFS.com

खेल और व्यायाम के क्षेत्र में पितृसत्तात्मक धारणाओं को अधिक महत्व दिया जाता है। पुरुषों के अलावा किसी भी अन्य जेंडर को इसके चलते भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इंटरनैशनल रिव्यू ऑफ स्पोर्ट्स एंड एक्ससाइज साइकोलॉजी, जर्नल के मुताबिक़ खेल और एक्सरसाइज साइकोलॉजी के क्षेत्र में प्रतिभागियों की जनसांख्यिकीय, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान और अनुभवों पर विचार-विमर्श की कमी है। इस अध्ययन में खेल और व्यायाम मनोविज्ञान में जेंडर बैलेंस की जांच की गई है। तीन अलग-अलग वर्षों (2010, 2015, 2020) के पांच प्रमुख जर्नल्स में प्रकाशित लेखों में पाया गया है कि अध्ययनों में खेल के अतिरिक्त व्यायाम मनोविज्ञान पर केंद्रित किया गया है लेकिन उनमें महिलाओं और लड़कियों का प्रतिनिधित्व कम है। 

इसमें 62 प्रतिशत पुरुष या लड़के प्रतिभागी थे। इसके अलावा खेल मनोविज्ञान पर आधारित जिन अध्ययनों की जांच की गई उनमें अधिक पुरुष प्रतिभागी थे। इसके मुकाबले केवल 7 फीसदी महिलाओं को शामिल किया गया। स्टडी में कहा गया है कि उत्पीड़न और भेदभाव के ऐतिहासिक और चल रहे पैटर्न को देखते हुए नस्ल, उम्र, विकलांगता और यौन पहचान जैसी पहचानों को शामिल करना बहुत प्रासंगिक है।

इसी तरह ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के हाल में जारी एक पेपर में यह बात कही गई है कि स्पोर्ट्स, एक्ससाइज और मेडिसिन रिसर्च में बड़े स्तर पर जेंडर गैप मौजूद है। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने भी अपने एक बयान में कहा है कि हमें अलग जेंडर, जातीय, स्किल सेट और अलग अनुभवों के लेखकों की ज़रूरत है। वैज्ञानिक प्रकाशनों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 25 फीसदी से कम है। स्पोर्टस एंड साइंस एडिटोरियल बोर्ड में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व 25 प्रतिशत से कम है। कॉलेज और पेशेवर खेलों की टीम में महिला डॉक्टर्स भी 20 प्रतिशत से है। वीमंस नैशनल बास्केटबॉल एसोसिएशन में सबसे अधिक 31 फीसद महिला प्रतिनिधित्व है। 

द कन्वरशेसन में प्रकाशित रिपोर्ट में रिसर्च के लेखकों के सेक्स के बारे में भी जानकारी पर हवाला देते हुए कहा गया है कि कि 91 प्रतिशत बयान और पहले लेखक पुरुष हैं। कुल मिलाकर लेखकों में 13 प्रतिशत महिलाएं थीं।

प्रतिनिधित्व और ट्रेनिंग का समावेशी होना क्यों है ज़रूरी

खेलों और व्यायाम करने का हर व्यक्ति के शरीर पर अलग प्रभाव पड़ता है। महिलाओं को अपनी शारीरिक संरचना की वजह से अलग चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिम हो या खेल का मैदान हर जगह व्यायाम करना अलग अनुभव हो सकता है। जिम जाने वाली 29 वर्षीय अपर्णा बंसल का इस विषय पर कहना है, “यह बात तो बिल्कुल सही है कि व्यायाम का एक मेल और फीमेल बॉडी पर अलग-अलग असर पड़ता है। हर किसी के शरीर की क्षमता अलग है, महिला और पुरुष के शरीर की अलग है। इसे अंतर के तौर पर देखना चाहिए लेकिन कमी या कमज़ोरी के तौर पर देखना मेरे ख्याल से सही नहीं है।”

वह आगे कहती हैं कि महिलाएं भी जिम में हर मशीन पर उसी तरह से मेहनत करते हुए, पसीना बहाते हुए नज़र आती हैं तो उन्हें कमज़ोर तो नहीं कहा जाना चाहिए। जिम में होने वाली मेहनत से अलग चोट या अन्य घटना के परिणाम बिल्कुल अलग हो सकते है क्योंकि हमारा शरीर, सोच सब अलग है। उसका असर भी अलग ही होगा इसलिए इस क्षेत्र में होने वाली रिसर्च में लड़कियों के अनुभवों को शामिल करना बहुत ज़रूरी है जिससे हम बहुत अन्य चीजों को जान सकते हैं। इतना ही नहीं मशीन और अन्य एक्ससाइज टूल की डिजाइनिंग में भी इस पक्ष को देखना ज़रूरी है।

महिलाओं के पक्ष को क्यों देखना है ज़रूरी

जेंडर बाइनरी के तहत महिला और पुरुष की भूमिकाओं को बांटा गया है। लेकिन खेल और व्यायाम के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इसे किसी एक जेंडर तक सीमित नहीं किया जा सकता है। इस क्षेत्र में हर स्तर पर व्यापक और समावेशी रिसर्च होने की ज़रूरत है। शोध और डेटा एकत्र क्षेत्र को जेंडर बाइनरी से निकलकर अध्ययन करना अब समय की मांग है।ऑस्ट्रेलिया में हुए हाल के एक सर्वे के पाया गया है कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने पिछले 12 महीनों में मांसपेशियों को अधिक मजबूत करने की गतिविधियों को किया है। 

यह सब इसलिए महत्वपूर्ण है कि शोध से पता चलता है कि कि कंकाल की मांसपेशियां की सरंचना, मांसपेशियाों के तंतुओं के काम करने के तरीके और गहन व्यायाम के बाद ठीक होने में अंतर होता है। रिसर्च के अनुसार ट्रेनिंग के बाद पुरुषों को अधिक मांसपेशी आकार और ताकत मिलती है, लेकिन सापेक्ष लाभ महिलाओं में समान या अधिक होता है। हाल के एक शोध से पता चला है कि ताकत में अंतर अभी भी मौजूद है भले ही मांसपेशियों का आकार सेक्स के बीच मेल खाता हो। 

ऋषिकेष में बतौर फिटनेस और योग ट्रेनर के तौर पर काम करने वाली ख्याति पांड़े का कहना है, “जैविक संरचना एक स्त्री और पुरुष की अलग-अलग है। वह किसी भी काम, एक्सरसाइज को करते है तो उनका लाभ-हानि जाहिर तौर पर अलग होगा। अगर हम किसी महिला को ही ट्रेनिंग दे रहे हैं तो हमें मेंस्ट्रुअल साइकल को ध्यान में रखकर अपनी ट्रेनिंग को डिजाइन करना है। महिलाओं के पक्ष में इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है क्योंकि हॉर्मोनल बदलाव और अन्य शरीर में होने वाले अन्य बदलाव की वजह से ट्रेनिंग पैटर्न को सेट करना ज़रूरी है। आप लगातार केवल कोर एक्सरसाइज़ नहीं करवा सकते हैं या ऐसी जिससे शरीर में ज्यादा थकान महसूस हो क्योंकि हर व्यक्ति का पीरियड्स के दौरान भी अनुभव अलग हो सकते है। एक इंसान पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है लेकिन वहीं दूसरे लोगों को हेवी ब्लीडिंग और पेन का सामना करना पड़ रहा है उस वजह से ट्रेनिंग में बदलाव लाने ज़रूरी है। ट्रेनिंग के दौरान ऐसे बदलावों के साथ समायोजन बनाने से मनौवैज्ञानिक रूप से भी राहत मिलती है।” 

व्यायाम के बाद महिलाओं में अधिक थकावट की बात देखी गई है तो क्या सच में उन्हें अधिक ट्रेनिंग या समान ट्रेनिंग की आवश्कता है। आउटसाइड वेबसाइट में प्रकाशित जानकारी के अनुसार वेटरन्स अफेयर्स हॉस्पिटल इन नेब्राका की डॉ. एमिली क्रेश ने अपने अध्ययन में महिला एथलीट, ट्रेनिंग, उनकी चोट और उनके शरीर के बारे में गलत धारणओं के बारे में जाना। इसके बाद उन्होंने डॉ. मेगन रोश के साथ मिलकर काम किया और फीमेल एथलीट साइंस और ट्रांसलेशनल प्रोग्राम लॉन्च किया जिसका उद्देश्य ह्यूमन परफोर्मेंस रिसर्च, फीमेल एथलीट को सशक्तिकरण और खेलों में समावेशी माहौल को बनाना है। 

तस्वीर साभारः Women’s Health

क्रेश और रोश के अनुसार अध्ययनों में अक्सर महिलाओं के मेंस्ट्रुअल साइकल की जटिलताओं की वजह से उन्हें बाहर कर दिया जाता है। मेंस्ट्रुअल साइकल के दौरान हॉर्मोनल बदलाव के तरह अनेक स्वास्थ्य बदलाव जैसे हार्ट रेट, मेट्रिस रिकवरी साथ ही मेटाबोलिक सिस्टम भी प्रभावित होता है। डॉ रोश कहती है, “मैं एक एथलीट और एक कोच के तौर पर बहुत निराश हो चुकी थी कि हम वास्तव में एक अद्भुत एक्ससाइज़ साइकोलॉजी का अध्ययन कर रहे थे लेकिन कई बार हम उनका महिला एथलीट के शरीर के लिए सामान्यीकरण नहीं कर सकते थे।” 

इसी दिशा में कुछ अन्य कदम भी उठाए गए हैं। द गार्डियन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कियारा रोसियो एक व्यायाम फिजियोलॉजिस्ट ने विशेष तौर पर महिला हेल्थ प्रैक्टिस सेट की है जो महिलाओं को गर्भावस्था, मेनोपॉज और पेल्विक फ्लोर स्ट्रेथ के लिए मददगार है। उनका कहना है कि हमारे सारे उपचार, विशेष रूप से चिकित्सा क्षेत्र पुरुष मॉडल पर आधारित है। और हम जानते है कि इस वजह से बहुत बार महिलाओं के इलाज में गलतियां होती है। महिलाओं के हड्डियों के घनत्व को देखते हुए वजन उठाने वाले व्यायामों के बारे में जानने की ज़रूरत है।

जिम या फिटनेस ट्रेनिंग में जो करने को कहा जा रहा है वह मुख्य रूप से उन अध्ययनों पर आधारित है जिमनें महिलाएं कम शामिल हैं। इस वजह से हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि एक्सरसाइज करने वाली महिलाओं और लड़कियों के लिए यह फायदेमंद है।  हमें खेल और व्यायाम के प्रभाव को व्यापक समझने के लिए इस दिशा में होने वाले शोध में जेंडर, उम्र, व्यायाम का इतिहास, स्वास्थ्य लाभ, ट्रेनिंग के बारे में अनेक तरह से सोचने और देखने की आवश्यकता हैं। अगर इस दिशा में होने वाले अध्ययनों में व्यक्तिगत जानकारी बेहतर होगी तो एक्सरसाइज के बारे में जेंडर के विविधता को लेकर हमारी समझ में सुधार होगा। 


स्रोतः

  1. The conversation
  2. The Guardian
  3. Outside Online

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