इतिहास के समय से भाषा एक शक्तिशाली उपकरण रहा है। आज दुनिया में जो भी प्रगति हुई है इसके पीछे भाषा की भूमिका अग्रणी रही है। इस विस्तार के प्रकाश में आज हम अंग्रेज़ी को देख सकते हैं। यह दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। देखने को इसका प्रसार दूर-दूर तक है जिसके पीछे कई ऐतिहासिक घटनाएं शामिल रही हैं। आज दुनियाभर में वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने अंग्रेज़ी भाषा को जितनी ख्याति प्रदान की है उतनी किसी और भाषा को नहीं की। इसे हम भाषा के केन्द्रीकरण के रूप में देख सकते हैं। बिल्कुल ऐसे, जैसे सत्ता के एक ही स्तर पर सरकारी शक्तियों का केन्द्रीकरण होना।
अंग्रेज़ी भाषा का यह केन्द्रीकरण उस पाश्चात्य जगत की धरोहर के प्रतीक की तरह दिखाई देता है जिस पाश्चात्य जगत को हम एक अनोखी दुनिया के रूप में फैन्टसाइज़ करते आ रहे हैं। यह दुनियाभर में विज्ञान की किसी प्रसिद्ध थ्योरी की तरह अपना कम स्थान नहीं रखती। पर तब परिस्थिति क्या होती है जब विश्व व्यापार, विज्ञान, संस्कृतियों के आदान-प्रदान, जनसंचार के माध्यम आदि क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली भाषा की प्रधानता दूसरी भाषाओं में पहुंचाए जा रहे ज्ञान में बाधा बन जाए? या फिर उस परिस्थिति को कैसे समझा जाए जहां भारत जैसे देश में कोई मातृभाषा किसी विश्वभाषा के समकक्ष भी न खड़ी हो पाए? इन प्रश्नों के उत्तरों को खोजने के साथ-साथ आइए जानें स्कूली स्तर (सरकारी स्कूल) और उच्च स्तर में हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों की भाषा से उपजी उनकी व्यावहारिक चुनौतियां और समस्याएं जो उनके सीखने में बड़ी बाधाएं हैं।
एक आम नज़रिया
अगर हम अपने समाज के स्कूलों और कॉलेजों की ओर रुख़ करें तो यह परिस्थितियां साफ़ दिखाई दे सकती हैं या पास के ही हिंदी मीडियम से पढ़ाई कर रहे किसी विद्यार्थी के साथ बातचीत के ज़रिये शिक्षा व्यवस्था के भीतर, निराशा से भरे उनके अनुभवों का पता लगाया जा सकता है। हिंदी मीडियम के इन विद्यार्थियों से जुड़ा एक नज़रिया बेहद प्रचलित है। हिंदी मीडियम के रूप में उन्हें इसलिए नहीं जाना जाता है कि उन्होंने अपनी पढ़ाई हिंदी भाषा के माध्यम से की होती है, बल्कि इस बात के लिए अधिक जाना जाता है की वह ‘अंग्रेज़ी नहीं जानते’ हैं। यह नज़रिया लोगों में अपने आप ही पैदा नहीं हुआ है। उच्च शिक्षा के स्तर में, यह शिक्षा के उस प्रावधान से पैदा हुआ है जहां इन विद्याथियों को परीक्षाएं तो हिंदी में लिखने दी जाएंगी पर शिक्षकों द्वारा पढ़ाया अंग्रेज़ी में जाएगा। यहां से शुरू होने लगता है विषय सामग्री जुटाने का कड़ा संघर्ष। ये वे विद्यार्थी हैं जो आज शिक्षा के भीतर संघर्ष कर रहे हैं और बाद में रोज़गार पाने के लिए दोगुना संघर्ष करेंगे।
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे अंग्रेज़ी के शिक्षक सुनिल अपनी कक्षाओं के अनुभाव को साझा कर बताते हैं, “आज भी सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी भाषा इन बच्चों के लिए बिल्कुल विदेशी है। उन्हें अपने घर या आसपास अंग्रेज़ी में कुछ भी सुनने को नहीं मिलता। इसलिए इसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी हमारी है।”
अंग्रेज़ी के लिए प्राइवेट स्कूलों का रुख़ करना
सरकारी स्कूल इस बात के लिए आमादा हैं कि किसी भी विद्यार्थी को अंग्रेज़ी में अच्छा नहीं बनाया जाए। न ही मातृभाषा और अंग्रेज़ी भाषा के बीच ऐसा स्वस्थ्य संतुलन स्थापित करने की कोई कोशिश की जाएगी जो कक्षा में बहुभाषिकता का सम्मान कर सके। अगर विद्यार्थी को अंग्रेज़ी में अच्छा या निपुण बनना है तो वह प्राइवेट स्कूल का रुख़ कर सकते हैं। सरकारी स्कूल, जो भाषा को लेकर बच्चों में कुंठा पैदा करने का काम करते हैं तो वहीं निजी स्कूल विद्यार्थियों को एक ही भाषा में निपुण बनाने की संस्कृति पर ज़ोर देते हैं। यह दोनों स्कूली व्यवस्थाओं की ऐसी असफलता को जाहिर करते हैं जो भाषा के आधार पर इन बच्चों को एक नये हाशिये पर ढकेल देते हैं।
शिक्षकों का रवैया
स्कूलों में बच्चों के सर्वांगीण विकास पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है। सरकारी स्कूलों में जिस कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से बच्चे आते हैं, उन बच्चों के लिए ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ उपलब्ध करवाने जैसे पूर्वाग्रह से ये स्कूल भी ग्रस्त नजर आते हैं। शिक्षकों के नज़रिये में, ऐसे बच्चे बस थोड़ा पढ़-लिखकर कक्षा पास कर लें तो काफी है। ऐसे में इन बच्चों की भाषा दक्षता पर क्या ही ध्यान दिया जाए। दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे अंग्रेज़ी के शिक्षक सुनिल अपनी कक्षाओं के अनुभाव को साझा कर बताते हैं, “आज भी सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी भाषा इन बच्चों के लिए बिल्कुल विदेशी है। उन्हें अपने घर या आसपास अंग्रेज़ी में कुछ भी सुनने को नहीं मिलता। इसलिए इसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी हमारी है।”
इन मामलों में शिक्षक अपने पूर्वाग्रहों को लेकर इतने पक्के होते हैं कि ये बच्चे सीख और समझ नहीं सकते हैं। इनके लिए अंग्रेज़ी में रटने की संस्कृति से बेहतर कुछ नहीं है। भूमिका जिन्होंने दक्षिण दिल्ली के एक सरकारी स्कूल से इसी साल बाहरवीं पास की है, वह अपने स्कूली अनुभव को व्यक्त कर बताती हैं, “मैं कॉपी पर पांच बार एक ही जवाब को लिखती रहती थी ताकि उसे याद करके परीक्षा में लिख सकूं।”
उच्च शिक्षा में प्रवेश करना किसी चुनौती से कम नहीं
आइए सरकारी स्कूल के एक हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों के विशिष्ट अनुभवों पर चर्चा करें, जो स्कूल से निकलते हैं और स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए उच्च शिक्षा की तरफ अपने कदम बढ़ाते हैं। यहां दिल्ली के सीबीएसई आधारित सरकारी स्कूलों का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जहां अंत तक, शिक्षकों द्वारा सारा शिक्षण पूरी तरह से हिंदी में किया जाता है। बाहरवीं में सीबीएसई के विद्यार्थियों के पास अनिवार्य विषय के रूप में ‘अंग्रेज़ी कोर’ होता है। बारहवीं पूरी करने के बाद इन विद्यार्थियों के लिए यही अंग्रेज़ी भाषा के संबंध में उनका एकमात्र अनुभव है जो पूरी तरह से रटकर सीखने के असंतोषजनक तरीकों पर आधारित है।
दिल्ली विश्वविद्यालय से पाॅलिटिकल साइंस में स्नातक कर चुकीं खुशबू का कहना है, “मैंने ग्रेजुएशन में बीए पाॅलिटिकल साइंस ऑनर्स को अपनी पसंद से चुना था, लेकिन पहले ही सेमेस्टर में कई क्लासेज़ लेने के बाद अपने निर्णय पर बहुत अफसोस हुआ क्योंकि मेरे विषय की सामग्री ही नहीं थी और अगर थी भी तो भाषा बहुत मुश्किल से समझ में आती थी। कभी-कभी गुस्से में मन करने लगता था कि काॅलेज ही छोड़ दूं।”
विश्वविद्यालय में हिंदी विद्यार्थी आधिकारिक तौर पर अंग्रेज़ी में दी जा रही कक्षाओं में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई करनेवाले साथियों के साथ बैठते हैं। इनके स्कूली अनुभवों को समझा जाए तो उन्होंने कभी भी शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल कर पढ़ाई नहीं की होती। प्रशासन व्यवस्था काॅलेजों के शिक्षकों से केवल अंग्रेज़ी में बात करने की उम्मीद करती है।परिणामस्वरूप अक्सर इन कक्षाओं में वास्तविक अनुभव द्विभाषी नहीं होता।
हिंदी में विषय से जुड़ी सामग्रियों की गैर-मौजूदगी और भाषा की कठिनता
दिल्ली विश्वविद्यालय से पाॅलिटिकल साइंस में स्नातक कर चुकीं खुशबू का कहना है, “मैंने ग्रैजुएशन में बीए पाॅलिटिकल साइंस ऑनर्स को अपनी पसंद से चुना था, लेकिन पहले ही सेमेस्टर में कई क्लासेज़ लेने के बाद अपने निर्णय पर बहुत अफसोस हुआ क्योंकि मेरे विषय की सामग्री ही नहीं थी और अगर थी भी तो भाषा बहुत मुश्किल से समझ में आती थी। कभी-कभी गुस्से में मन करने लगता था कि काॅलेज ही छोड़ दूं।” वह आगे बताती हैं, “हिंदी मटीरियल की तलाश में, मैं और मेरे जैसे सभी हिंदी मीडियम के स्टूडेंट्स लाइब्रेरी में ही ज़्यादातर समय बिताते थे। क्लास लेने का क्या ही फायदा होता था, हमारे विषय में शब्द बहुत कठिन होते हैं जिनको बस इंग्लिश में बता दिया जाता था।”
रेगुलर क्लास अटेंड करनेवाली खुशबू के ऐसे निराशाजनक अनुभवों की तुलना में क्या हम उन बच्चों की परिस्थिति की कल्पना कर सकते हैं जो स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग, सीडीओएल और इग्नू से डिस्टेंस कोर्स कर रहे हैं? जिन्हें शिक्षकों का सानिध्य तो दूर स्टडी मटीरियल भी पर्याप्त रूप से मुहैया नहीं करवाया जाता है।
कुशल अनुवादकों की कमी?
हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों के लिए अपने विषय से जुड़ा स्टडी मटीरियल हिंदी में उपलब्ध नहीं होता और उन्हें इंग्लिश के स्टडी मटीरियल से पढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है। डिस्टेंस पाठ्यक्रम मुहैया करवाने वाली संस्थाएं दाखिले से पहले प्रोस्पेक्टस में सुविधा के साथ पन्नों पर ‘मीडियम ऑफ इंस्ट्रक्शन’ में हिंदी की मौजूदगी का एहसास जरूर करवाती हैं पर व्यावहारिकता से यह कोसों दूर है।
विषय से जुड़ी सामग्रियों का ख़राब क़िस्म का अनुवाद भी एक प्रासंगिक समस्या है। किताबों और विषय से संबंधित सामग्रियों का ख़राब क़िस्म का अनुवाद एक पूरी भाषा को बिगाड़ देता है क्योंकि अनुवाद करवाने वाली संस्थाएं यह भूल जाती हैं कि एक विद्यार्थी अपने विषय से जुड़े तथ्य के अलावा भाषा का कौशल भी ग्रहण कर रहा है। डिस्टेंस से पढ़ रहे विद्यार्थियों को समय से विषय की सामग्री के रूप में दी जानी वाली किताबों का न मिलना और भाषा का ज़्यादा कठिन होना कुशल अनुवादकों की कमी को ज़ाहिर करता है। दूरस्थ शिक्षा को उपलब्ध करने वाली संस्थाओं को लेकर प्रश्न उठते हैं कि यहां अनुवादकों की क्या स्थिति है? जिनसे अनुवाद करवाया जाता है क्या वे अनुवाद और विषय दोनों की दृष्टि से विशेषज्ञ या कुशल होते हैं?
उच्च स्तर पर हिंदी की सामग्री इतनी मुश्किल होती है कि भाषा को समझने का सामान्य कौशल भी असफल हो जाता है। जैसे दो किताबों में एक ही शब्द को अलग-अलग तरह से दिया जाता है जबकि इनका इस्तेमाल एक ही समझ बनाने के लिए किया जा रहा होता है। इस संबंध में प्रश्न उठता है कि क्या उच्च स्तर की शिक्षा में विभिन्न विषयों के हिंदी में तैयार की जाने वाली पठन सामग्री का कठिन होना ही उसे ज़्यादा अकादमिक बनाता है?
डिस्टेंस से शिक्षा ले रहे विद्यार्थियों की पुस्तकालय तक भी पहुंच नहीं
डिस्टेंस विद्यार्थियों जिनकी निर्भरता ‘सेल्फ स्टडी मटीरियल’ पर ज़्यादा होती है उन तक लाइब्रेरी की पहुंच या तो होती नहीं है, अगर होती भी है तो दूरस्थ केंद्रों में ये लाइब्रेरी नाम भर के लिए होती है। किसी विशेषज्ञता के अभाव के साथ तैयार की गई गाइड्स पर इन विद्यार्थियों की निर्भरता समझ में आती है। वहीं, इनकी तुलना में, रेगुलर कोर्स से पढ़ाई कर रहे ख़ासकर दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को अपने कॉलेजों की लाइब्रेरी के साथ-साथ विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी की भी सुविधा दी जाती है। इससे जुड़ी एक विडंबना सामने तब दिखाई पड़ती है, जब रेगुलर कोर्स के हिंदी मीडियम के विद्यार्थियों को विषय से संबंधित सामग्री नहीं मिलती तो ये विद्यार्थी विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में उम्मीद खोजते हैं जिसका खुशबू ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए ज़िक्र किया था।
आगे की पढ़ाई पूरी करने की चाह का अंत?
यह व्यवस्था हमें इस दिशा में भी सोचने की ओर बढ़ावा देती है कि न जाने कितने ही ऐसे विद्यार्थी होंगे जो उच्च शिक्षा में जाने के फैसले को मजबूरन न कह देते हैं। जहां शिक्षा की व्यवस्था स्कूलों के ड्राॅपआउट की संख्या को नियंत्रित नहीं कर पाई है, क्या हम उच्च स्तर की शिक्षा में होने वाले ड्राॅपआउट की कल्पना कर सकते हैं? उच्च स्तर की शिक्षा, स्कूली शिक्षा से अलग होती है क्योंकि इसका एक सामान्य उद्देश्य विद्यार्थियों को पेशेवर क्षेत्र जैसे शिक्षा, कानून, मेडिकल, व्यवसाय, कला, आदि में तैयार करना और विशेषज्ञता प्रदान करना होता है। इस प्रक्रिया में, बहुभाषिकता की अनदेखा में कक्षाओं के भीतर एक बड़ी आबादी अनुपस्थित हो तो क्या हम उच्च शिक्षा तक ‘सभी की पहुंच’ सुनिश्चित कभी कर पाएंगे?
हिंदी, अनुवाद और बहुभाषिता के संबंध में भोपाल के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों से हुई चर्चा
पिछले साल अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने अंग्रेज़ी से भारतीय भाषाओं में अनुवादित शैक्षिक पठन सामग्रियों के भंडार को उपलब्ध कराने से जुड़ी पहल ‘अनुवाद सम्पदा‘ की शुरुआत की। इस मंच का उद्देश्य भारत में विविध सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित बड़ी संख्या में विद्यार्थिथों को अंग्रेज़ी के साथ-साथ अन्य भाषाओं में मुफ़्त पठन सामग्री उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बेहतर शैक्षिक सामग्रियों का अनुवाद करना है। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक हृदयकान्त दीवान इस पहल का नेतृत्व कर रहे हैं। उनकी राय में, हमारी शिक्षा व्यवस्था में अच्छा अनुवाद करने की कोई संस्कृति विकसित नहीं हुई है। यह संस्कृति साहित्य की दृष्टि से तो मौज़ूद है पर विषय की दृष्टि से इसका आज भी बहुत अभाव है। अभी भी एनसीएफ अंग्रेज़ी में ही लिखा जाता है और उसका सभी भाषाओं में बहुत अच्छा अनुवाद भी नहीं होता।
शिक्षा व्यवस्था में बहुभाषिता के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए प्रोफ़ेसर हृदयकांत दीवान कहते हैं कि बहुभाषिकता भारत की अनमोल संपत्ति है और यह देश के लिए चुनौती नहीं होनी चाहिए। हम जैसे बहुत से जो लोग बहुभाषिकता की बात कर रहे हैं वे खुद अंग्रेज़ी में लिख रहे हैं। उनमें भारतीय भाषाओं में लिखने की इच्छा शक्ति नहीं है और अधिक संभावनाएं और छपने के प्लैटफार्म्स भी नहीं हैं। इसके अलावा बाज़ार भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने और लिखने वालों को और सिर्फ उन्हीं में सक्षमता रखने वालों को दरकिनार करता है। यहां तक की हिन्दी में अनुवाद को और हिन्दी की कॉपी एडिटिंग को भी कमतर आंका जाता है। विषयों में अन्य भाषाओं में उपलब्ध अच्छे साहित्य के अनुवाद के लिए और उनके कॉपी राइट प्राप्त करने के लिए संसाधन और ढांचा तैयार करने का और भारतीय भाषाओं में ज्ञान रचने के लिए संभावनाएं रचने का प्रयास गंभीरता से नहीं किया गया है।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य मृत्युंजय विश्वविद्यालय की ‘अनुवाद सम्पदा’ के प्रयासों से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। उनका हिन्दी मीडियम के विद्यार्थियों की संघर्षमय परिस्थितियों के संबंध में कहना है कि उन विद्यार्थियों पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए जो दिल्ली के विश्वविद्यालयों तक भी अपनी पहुंच नहीं बना पाते हैं। देश के दूरदराज़ के हिस्सों में रहने वाले यह विद्यार्थी अगर दिल्ली जैसे शहरों में पढ़ने आ भी जाएं तो वे शुरुआत में अपनी मातृभाषा के साथ, धीरे-धीरे हिंदी और फिर अंग्रेज़ी भाषा की ओर बढ़ते हैं। वे आगे दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों के संबंध में चिंता व्यक्त करते हैं कि पुस्तकालय की पहुंच के मामले में यह विद्यार्थी अभी भी परिधि पर हैं। इन्हें डिजिटल पुस्तकालय की सुविधा भी प्राप्त नहीं होती है।
अंत में, भाषाओं की विविधता को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है खासकर भारत जैसे देश में। समस्या तब आती है जब भाषाओं में से कुछ भाषाएं लोगों के स्टेटस को बनाए रखने का साधन बन जाएं। ब्रिटिश राज के विकृत इरादों को पूरा करने के उद्देश्य से परिचित कराई गई उस सोच की अंग्रेज़ी को देखने का वही इरादा हमारी व्यवस्था में आज भी दिखाई देता है। इन इरादों की वास्तविकताओं को देखने और जानने के लिए हम अपने आसपास के स्कूलों और कॉलेजों पर नज़र दौड़ा सकते हैं। किसी एक भाषा को वैश्विक रूप प्रदान होना अन्य भाषाओं को निम्न होने की श्रेणी में नहीं डालता। इसलिए शिक्षा की प्रणाली के भीतर इन विद्यार्थियों को उनकी मातृ भाषा और अंग्रेज़ी भाषा के संयोजन की जिस संरचना से अवगत कराया जाता है वे उनमें सीखने की चाह को कम और भाषा का भय ज़्यादा पैदा करती है। भाषा चाहे कोई भी हो, खुद को प्रधान बनाने का उसका कोई उद्देश्य नहीं होता।
आम तौर पर, उसका सबसे ज़रूरी उद्देश्य संचार के एक उपकरण के रूप में लोगों के बीच अपनी भावनाओं और विचारों को पहुंचाने का होता है। हिंदी मीडियम के विद्यार्थी जो अंग्रेज़ी मीडियम के साथियों के साथ जिस विषय का अध्ययन करते हैं, उसके संबंध में आवश्यक कौशलों का स्तर तुलनीय है। जिस पर शिक्षा की संस्थानों को संवेदनशीलता से ध्यान देना चाहिए। जैसे एक मूर्तिकार किसी मूर्ति को पूरा करने के लिए हरेक बारीकी पर ध्यान केंद्रित कर किसी मूर्ति को अंतिम रूप देता है, ऐसे ही शिक्षा में हर स्तर पर भाषा के समावेशी माहौल को प्रोत्साहित कर इन विद्यार्थियों की चुनौतियां और समस्याओं को कम कर, सीखने का उचित माहौल प्रदान करना चाहिए।