महिलाओं के खिलाफ अपराध के खतरे से निपटने और महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए भारत में कानूनों में बुनियादी बदलाव आया। यह विशेष रूप से महिला समर्थक कानूनों के कड़े प्रावधानों से स्पष्ट है- (i) दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 4- दहेज मांगने पर जुर्माना; (ii) भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए – किसी महिला के पति या पति के रिश्तेदार द्वारा उसके साथ क्रूरता करना; (iii) कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 का अधिनियमन, घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 और अन्य कानूनों में बदलाव। ये बदलाव आसानी से महिलाओं की झोली में नहीं डाले गए। इन सबके लिए उन्होंने बहुत जद्दोजहद की और लंबी लड़ाई लड़ी। लेकिन समय-समय पर भारतीय न्यायालय पितृसत्तात्मक समाज का नज़रिया अपने फैसलों में दिखा देते हैं। पिछले दिनों दो अलग-अलग उच्च न्यायालय की ओर से भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए से जुड़े मामलों में निर्णय देते समय टिप्पणियां सामने आईं।
कलकत्ता हाई कोर्ट ने सोमवार को कहा कि कुछ महिलाओं ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए का दुरुपयोग करके ‘कानूनी आतंकवाद’ फैलाया है। दूसरी ओर, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने महिलाओं द्वारा दायर मामलों को ‘पांच मामलों का पैकेज’ कहा, जहां पत्नियां पतियों और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ अदालतों में कई मामले दायर कर रही हैं। ऐसा नहीं है कि अदालतों द्वारा ये टिप्पणियां पहली बार दी गयी हैं। इससे पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है।
प्रथम दृष्टया, कहा जा सकता है कि अदालत की इन टिप्पणियों में कुछ भी गलत नहीं है। हो सकता है कि अदालत ने जिस केस में यह फैसला सुनाया हो उस में महिला ने अपने पति ओर रिश्तेदारों के खिलाफ झूठा केस दायर किया हो लेकिन कुछ केस के झूठे होने से अदालत को महिला अधिकारों के खि़लाफ़ ऐसी व्यापक टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी। ऐसी महिलाओ को ‘पीड़ित पत्नियां, प्रतिशोधी और दुष्ट, असंतुष्ट पत्नियां, कानूनी आतंकवाद’ कहना ग़लत है। इससे महिलाओं के अधिकारों को ही नुकसान पहुंचता है। साथ ही पहले से ही चले आ रहे नैरेटिव कि महिलाएं झूठे केस दायर करती हैं इसे मज़बूती मिलती है। हमारा पितृसत्तात्मक समाज यह बख़ूबी समझता है कि दहेज लेना और घरेलू हिंसा नैतिक और कानूनी रूप से एक अपराध है लेकिन वे इस सामान्य ज्ञान को नज़रअंदाज करना चुनते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे सामाजिक मानदंडों ने घरेलू हिंसा की सहनशीलता को सामान्य बना दिया है।
कोर्ट की इन टिप्पणियों के बीच हमें इस बात को फिर से दोहराने की ज़रूरत है कि हिंसा में केवल शारीरिक हिंसा ही शामिल नहीं होती है। इसमें मानसिक, आर्थिक, भावनात्मक हिंसा भी शामिल होती है। एक उदाहरण हिंसा को समझने में हमारी सहायता करेगा। काजल (बदला हुआ नाम) दिल्ली की रहने वाली एक पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा लड़की है। जब वह नौकरी से घर वापस जाती है तो पूरा घर भी संभालती है। वह अपने पति के साथ घर चलाने में सहयोग भी करती है। इस सबके बावजूद अपने पति की इजाज़त के बिना काजल को अपनी कमाई से एक पैसा खर्च करने की अनुमति नहीं है। अगर वह ऐसा करती है तो उसे इसका जवाब अपने पति को देना होता है। समाज में उसके पति की छवि एक ‘सभ्य इंसान’ की बनी हुई है। लेकिन बीवी से उसकी कमाई के पैसे मांगना, पैसा कहां खर्च किया है और क्यों उसका जवाब लेना, इनका रोज़ का काम है।
अगर काजल उसका हिसाब देने से मना कर देती है या अपनी सैलरी अपने पति को देने से मना कर देती है तो उसका पति उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। उससे गाली-गलौच करना, बात न करना, उसके घर वालों के बारे में अपशब्द कहना आदि उसमें शामिल हैं। काजल यह सब पिछले पांच सालों से झेल रही है। अब यदि काजल अपने पति के खिलाफ केस कर देती है तो समाज में तो उसके पति की छवि बहुत साफ़-सुथरी है। कोई उसकी बात पर यक़ीन नहीं करेगा और न ही गवाही देगा। घर की चार दीवारी के पीछे काजल ने क्या झेला है और कितना झेला है वो कैसे ‘साबित’ करे? इसी तरह के केस में महिलाएं झूठी पड़ जाती हैं।
क्या कहते हैं आंकड़े?
भारत में घरेलू हिंसा बहुत गहरी जड़ें जमा चुकी है और व्यापक रूप से प्रचलित है। अधिकतर महिलाओं की शादीशुदा ज़िंदगी में यह कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में मौजूद है। लेकिन समझौता करने की प्रवृत्ति और ‘पिता के घर से अब डोली उठी है तो पति के घर से मर के ही निकले’ वाली मानसिक प्रवृत्ति इसे और बढ़ा देती है। हिंसा में केवल पति का ही हाथ नहीं होता। पति के घर वाले मानसिक और भावनात्मक हिंसा खूब करते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) 2021 की रिपोर्ट है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के तहत सभी 4,28,278 लाख मामलों में से अधिकांश 1,36,234 मामले (33%) भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A के तहत दर्ज किए गए हैं।
इसी रिपोर्ट के अनुसार इन 136234 मामलों में से केवल 6938 मामलों को पुलिसिया जांच में गलत/झूठा पाया गया। यह ध्यान देने वाली बात है कि पुलिस की जांच में गलत/झूठे पाए गए मामलों का प्रतिशत दर्ज किए गए मामलों के सामने बहुत कम है। आईपीसी की धारा 498ए एक आपराधिक कानून है जो शादीशुदा महिलाओं को उनके पति से और पति के रिश्तेदारों को महिलाओं पर क्रूरता करने से बचाता है। इस धारा में केवल शारीरिक हिंसा शामिल है। भारतीय विधि में इस धारा के आलावा और कोई धारा नहीं थी जो कि महिलाओं को पति के घर में हिंसा से बचाती थी। फिर 2005 में घरेलू हिंसा क़ानून बना और शारीरिक के साथ-साथ कई और तरह की हिंसा भी अपराध बनाई गई, जैसे मानसिक, भावनात्मक आदि।
अक्सर उतने स्पष्ट नहीं होते हैं। वास्तव में, यहां तक कि जिन महिलाओं ने किसी साथी द्वारा हिंसा का अनुभव किया है, उनमें से आधे या उससे अधिक के अनुसार पुरुष का भावनात्मक शोषण ही उन्हें सबसे बड़ा नुकसान पहुंचा रहा है। नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के अनुसार, 18-49 आयु वर्ग की लगभग 3 में से 1 भारतीय महिला को किसी न किसी रूप में पति द्वारा दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा है; और लगभग 6% को यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। इस सर्वेक्षण के अनुसार 32% विवाहित महिलाओं को वैवाहिक शारीरिक, यौन या भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा है, और 27% को सर्वेक्षण से पहले के 12 महीनों में कम से कम एक प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ा है। 29% प्रतिशत विवाहित महिलाओं ने पति द्वारा शारीरिक हिंसा को माना है; और 14% को भावनात्मक हिंसा का सामना करना पड़ा है।
क्यों NCRB और NFHS के आंकड़े अलग हैं?
NCRB रिपोर्ट देश भर के सभी राज्यों से अपराध के आंकड़ों को एकत्रित करती है। यह आईपीसी की धारा 498ए के तहत अपराध दर को लाखों में महिलाओं की आबादी द्वारा दर्ज किए गए मामलों की संख्या के रूप में मानता है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) एक स्वतंत्र, विश्वसनीय और राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधि डेटा स्रोत है जो पति-पत्नी की हिंसा के लिए स्व-रिपोर्ट की गई प्रतिक्रियाएं भी इकट्ठा करता है। पति और उनके रिश्तेदारों (जैसा कि एनसीआरबी डेटा द्वारा कैप्चर किया गया है) के खिलाफ नागरिक या आपराधिक मुकदमों पर जाने के बजाय, एनएफएचएस केवल यह दर्ज करता है कि महिला प्रतिवादी अपने पति द्वारा घरेलू हिंसा की सर्वाइवर थीं, भले ही उस घटना की रिपोर्ट की गई हो या नहीं।
आंकड़ों में अंतर् इसीलिए भी है कि NFHS सर्वे करते समय महिलाओं की प्रतिक्रियाएं अलग से लेता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यदि सर्वेक्षण घर के अन्य सदस्यों की उपस्थिति में किया जाता है या यदि प्रतिवादी अपनी प्रतिक्रिया के परिणामों के बारे में अनिश्चित है तो एनएफएचएस प्रतिक्रियाएं भी पूर्वाग्रह के अधीन हो सकती हैं। एनएफएचएस-5 भी भारत में घरेलू हिंसा की कठोर वास्तविकता को दर्शाता है: कर्नाटक में 44% महिला उत्तरदाताओं ने वैवाहिक हिंसा का अनुभव किया है, इसके बाद बिहार (40%), मणिपुर (39.6), तेलंगाना (36.9) का स्थान है। असम (32%), और आंध्र प्रदेश (30%)। सर्वेक्षण में शामिल सभी राज्यों में लक्षद्वीप (1.3%), नागालैंड (6.4%), गोवा (8.3%) और हिमाचल प्रदेश (8.3%) में सबसे कम हिंसा है। दोनों की रिपोर्ट के विश्लेषण पर यह ज्ञात होता है कि NCRB के आंकड़ें वास्तविकता को नहीं दर्शाते हैं।
हाई कोर्ट्स से दी गई इस प्रकार की टिप्पणियां वास्तविक सर्वाइवर्स का मनोबल तोड़ने के लिये काफी हैं। महिलाएं पहले ही हिंसा को रिपोर्ट करने से बचती हैं, यदि वे न्यायालयों का इस प्रकार का रवैया देखेंगी तो वे इन मामलों के ख़िलाफ़ बोलने से और घबराएंगी। जिस जगह से न्याय की उम्मीद हो यदि वह स्थान ही अन्यायों वाली मानसिकता रखने लगे तो सर्वाइवर किधर का रुख़ करें? महिला अधिकार विरोधियों के लिए भी ये टिप्पणियां उनके तर्क को मज़बूत करने के लिए काफी होती हैं। न्यायालय को कोई भी टिपण्णी देते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी टिप्पणियों से नुकसान किसका होगा।