समाजपर्यावरण जलवायु संकट से निपटने के लिए क्यों ज़रूरी है इंटरसेक्शनल नारीवादी नज़रिया

जलवायु संकट से निपटने के लिए क्यों ज़रूरी है इंटरसेक्शनल नारीवादी नज़रिया

क्लाइमेट जस्टिस केवल एक शब्द ही नहीं है बल्कि उससे भी अधिक एक आंदोलन है जो यह कहता है कि जलवायु परिवर्तन से नकारात्मक प्रभावों का असर हाशिये की आबादी, अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक रूप से वंचित समुदाय, व्यक्ति और देश अलग तरीके से करते हैं।

टीवी, सोशल मीडिया पर हिमाचल प्रदेश की कुछ वीडियो आजकल खूब देखने को मिल रही है बस अंतर यह है कि पहाड़ों की सुंदरता और सेब के बगानों से अलग इन तस्वीरों और वीडियो में उफनती नदियां, ध्वस्त सड़के, जमींदोज होते आशियाने और बिलखते लोग हैं। इन सबका कारण है जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न मौसमी चरम घटनाएं और मानव द्वारा प्रकृति के हित को ताक पर रखकर किया गया विकास। पर्यावरण को किनारे कर किए गए विकास का मूल उद्देश्य पूंजीवाद और एक विशेषवर्ग की जीवनशैली है लेकिन इन प्राकृतिक आपदाओं का सबसे ज्यादा असर पड़ता है गरीबी और हाशिये के समुदाय पर। 

हमारे समय की सबसे बड़ी वास्तविकता है प्रकति का बिगड़ता संतुलन। वर्तमान में एक ड्रिगी सेल्सियस वॉर्मिंग की बढ़ोत्तरी से हम समुद्र के बढ़ते जलस्तर, मौसम में परिवर्तन और आपदाओं का ज्यादा सामना कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन एक सामाजिक मुद्दा भी है जो किसी के भी दैनिक जीवन को कई स्तर पर प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समान रूप से न तो पनपते है और न ही समान रूप से वितरित होते हैं। लेकिन सामाजिक स्तर पर होने वाली असमानता का सामना करने वाले लोगों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चरम मौसमी घटनाओं का ज्यादा प्रभाव है। ऐसे में क्लाइमेट जस्टिस के विषय पर गहरी चर्चा बहुत आवश्यक है।

नारीवादी नज़रिये से क्लाइमेट जस्टिस का अर्थ है कि जलवायु के संकट को केवल पर्यावरणीय समस्या के तौर न देखकर बल्कि एक जटिल सामाजिक समस्या के तौर पर देखा जाए, साथ ही केंद्र में उस आबादी को रखना जो विशेष रूप से इसके प्रभावों को लेकर संवेदनशील हो।

क्लाइमेट जस्टिस क्या है?

क्लाइमेट जस्टिस केवल एक शब्द ही नहीं है बल्कि उससे भी अधिक एक आंदोलन है जो यह कहता है कि जलवायु परिवर्तन से नकारात्मक प्रभावों का असर हाशिये की आबादी, अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक रूप से वंचित समुदाय, व्यक्ति और देश अलग तरीके से करते हैं। महिलाओं, बच्चों, गरीब और विकासशील और अल्पविकसित देशों पर इसका सबसे घातक असर पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र के एक ब्लॉग के अनुसार जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अमीर और गरीब, महिलाओं और पुरुषों, पुरानी और युवा पीढ़ियों के बीच समान या निष्पक्ष रूप से नहीं झेले जाएंगे। इस वजह से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक न्याय का भी मुद्दा है।    

नारीवाद के नज़रिये से क्लाइमेट जस्टिस

नारीवादी नज़रिये से क्लाइमेट जस्टिस का अर्थ है कि जलवायु के संकट को केवल पर्यावरणीय समस्या के तौर न देखकर बल्कि एक जटिल सामाजिक समस्या के तौर पर देखा जाए, साथ ही केंद्र में उस आबादी को रखना जो विशेष रूप से इसके प्रभावों को लेकर संवेदनशील हो। इसका मतलब यह है कि समस्या के मूल कारकों से निपटना है और जिसमें समानता और मानवाधिकारों की सुरक्षा शामिल हो।

तस्वीर साभारः Law at the Margins

क्लाइमेट जस्टिस का संबंध पर्यावरणीय क्षरण और अन्याय के विरोध करने से है। यह वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए बेहतर जीवन को सुनिश्चित करता है। साथ ही यह पर्यावरण के साथ मनुष्य के सामंज्यपूर्ण संबंधों को बनाए रखने के बारे में है। हमारे ग्रह के संसाधन और संसाधनों का नवीनीकरण बहुत सीमित है इसलिए पारिस्थिकी संतुलन और सामाजिक न्याय के लिए यह प्रयास आवश्यक है ताकि हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी प्रकृति के साथ सुख से रह सकें। नारीवादी नज़रिया कहता है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को सामाजिक मुद्दे के साथ इंटरसेक्शनल के माध्यम से विश्लेषण करना आवश्यक है। साथ ही जो जेंडर, नस्ल, जातीयता, राष्ट्रीय, योग्यता, सेक्शुअल ओरिएंटेशन, उम्र आदि पर आधारित असमान ताकतों को चुनौती देता हो।

हाशिये के समुदाय पर जलवायु संकट का असर

जलवायु परिवर्तन की वजह से हजारों लोग अपने घरों से बेघर हो गए हैं महिलाएं, ट्रांस समुदाय और बच्चों को इन सबमें सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ती हैं। बीबीसी में छपी जानकारी में यूएन के एक आंकलन के अनुसार जलवायु परिवर्तन से विस्थापित होने वाले 80 फीसदी लोगों में महिलाएं हैं। भारत में सूखे की समस्या पर आधारित शोध में शोधकर्ताओं ने पाया है कि सूखा महिलाओं को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है जिससे वे पुरुषों की तुलना में आर्थिक नुकसान, खाद्य असुरक्षा, पानी की कमी, हिंसा और स्वास्थ्य से जुड़ी जटिलताओं के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है। महिलाएं विशेष रूप से काली महिलाएं और ग्लोबल साउथ की महिलाएं बदलती जलवायु के प्रभावों से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह हैं कि वे एक स्थित एजेंट के रूप में इस संकट का समाधान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है इसलिए महिलाओं और हाशिये के समुदाय की आवाज़ और उनके अनुभवों को शामिल करना भी बहुत ज़रूरी है। 

आरयलैंड की पहली महिला राष्ट्रपति और जलवायु कार्यकर्ता मैरी रोबिन्सन का कहना हैं क्लाइमेट चेंज एक मानव निर्मित समस्या है जिसका नारीवादी समाधान है। इसी दिशा में इकोफेमिनिज़म हमें पूंजीवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं और पर्यावरण के बीच आपसी संबंधों की जांच करने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसके तहत दुनिया की व्यवस्था संचालित होती है। इस क्रम में महिलाओं और पर्यावरण दोनों को पुरुषों के द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। एनएनसीपी एनवायरमेंट एंड क्लाइमेट जस्टिस प्रोग्राम की निदेशक जैकलीन पैटरसन का कहना हैं कि इंटरसेक्शन ऑफ क्लाइमेट, जलवायु और नारीवाद के अंतरसंबंधों में महिलाओं पर जलवायु परिवर्तन का अनुपातहीन प्रभाव शामिल है। इसमें हम रेस (नस्ल) लेंस और अन्य खतरे भी जोड़ते हैं जिसमें बीआईपोओसी महिलाएं और विशेष वर्ग समूह की महिलाएं शामिल हैं। 

ऑल वी कैन सेव की सहसंपादक और समुद्री जीवविज्ञानी अयाना एलिजाबेथ लिखती हैं कि हमें वास्तव में “नारीवादी जलवायु पुनर्जागरण” की आवश्यकता है।

जलवायु संकट के ख़िलाफ़ महिलाओं के प्रतिरोध की आवश्यकता क्यों  

नारीवादी पर्यावरण जस्टिस समूह लगातार कॉर्पोरेट ताकतों और स्टेट की ताकतों के दुरुप्रयोग का विरोध कर रहे हैं। वे अपने समुदाय, क्षेत्रों की उद्योगों, विनाशकारी खेती और विकास परियोजनाओं की रक्षा की मांग करते हैं। जलवायु संकट के लिए जो लोग कम जिम्मेदार हैं वे इसका सबसे अधिक प्रभाव अनुभव करते हैं। प्रतिरोध के माध्यम से वे विकास और पूंजीवाद के मॉडल को बंदलने की मांग रखते है। महिलाओं, बच्चों, विकलांग और ट्रांस लोगों के जीवन पर होने वाले असर को ध्यान में रखते जलवायु संकट के मुद्दे पर चर्चा की मांग रखते हैं।

ऑल वी कैन सेव की सहसंपादक और समुद्री जीवविज्ञानी अयाना एलिजाबेथ लिखती हैं कि हमें वास्तव में “नारीवादी जलवायु पुनर्जागरण” की आवश्यकता है। बिना इसके धरती पर रहने लायक जीवन असंभव है। शोध दिखाते हैं कि महिला नेतृत्व और समान भागीदारी से जलवायु नीति, उत्सर्जन में कमी और भूमि की रक्षा के लिए बेहतर परिणाम मिलते हैं। लगातार महिलाएं इस दिशा में काम भी कर रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु परिवर्तन के संकट पर चर्चा कर रही हैं। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के प्रमुख के रूप में क्रिस्टियाना फिगुएरेस ने 2015 पेरिस जलवायु समझौते की वास्तुकार थीं। जिसने अपनी प्रस्तावना में जलवायु निर्णय लेने में महिलाओं की सशक्त बनाने की आवश्यकता पर आह्वान किया था। जाना फोंडा ने जलवायु संकट पर ध्यान लाने के लिए सविनय अवज्ञा और फायर ड्रिल फ्राइडे के माध्यम से इस मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया। न्यूजीलेंड की पूर्व प्रधानमंत्री जंसिटा एंडरसन के नेतृत्व में क्लाइमेट चेंज इमरजेंसी घोषित करते हुए न्यूजीलैंड को 2025 तक कॉर्बन न्यूट्रल की घोषणा कर चुका हैं। 

तस्वीर साभारः The Feminist wire

नारीवादी पर्यावरण कार्यकर्ता और महिलाएं नेतृत्व न्याय व समानता के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखते हुए इस दिशा में काम कर रहे हैं। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका में अलेक्जेंड्रिया ओकसियो-कोर्टेज़ ग्रीन न्यू डील को आकार देने में शामिल थी जो देश को जीवाश्म ईधन से दूर और स्वच्छ ऊर्जा भविष्य की ओर ले जाने की योजना थी। पिछले कुछ वर्षों में महिला नेतृत्व में सनराइज मूवमेंट जैसे समूहों ने जलवायु संकट को अमेरिकी सार्वजनिक चर्चा में शामिल करने का काम किया है।  

जलवायु नारीवादियों के नेतृत्व में परिवर्तनकारी जलवायु काम के लिए अधिक संसाधन और निवेश हासिल किए जा सकते हैं जो सिसजेंडर और ट्रांस महिलाएं और नॉन-बाइनरी नेता पहले से कर रहे हैं। जलवायु संकट के बारे में चिंतित होने के कई कारण है लेकिन महिलाओं, लड़कियों, बच्चों और हाशिये के समुदाय के अन्य लोगों पर जलवायु परिवर्तन का असंगत प्रभाव अक्सर अनदेखा किया जाने वाला कारण है इसलिए जलवायु संकट के मुद्दें से उभरने के लिए इंटरसेक्शनल नारीवाद नज़रियों को अपना बहुत आवश्यक है।


स्रोत-

  1. nrdc.org
  2. Ocic.on.ac
  3. Yaleclimateconecction.org

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