महिलाओं के जीवन के हर पहलु को पितृसत्ता के दायरों में बांध कर रखा गया है। घर की चार दीवारों तक उसकी गतिशीलता को तय किया जाता है। महिलाओं और लड़कियों के बेधक कहीं भी आने-जाने यानी उनकी गतिशीलता को नियंत्रित किया जाता है। सार्वजनिक जगहों पर उनकी उपस्थिति आज भी सहज नज़रों से नहीं देखी जाती है। सड़क पर या किसी अन्य जगह लड़की का घूमना-फिरना पुरुष के समान न तो स्वतंत्र है और न ही सुरक्षित है। सार्वजनिक जगहें उनके लिए खतरे की जगह बताई जाती है। इस वजह से अच्छी लड़की और सुरक्षित रहने के लिए उन्हें घर में रहने के लिए कहा जाता है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत हमारी सार्वजनिक जगहों को विभाजित किया गया हुआ है। लड़के के लिए सड़क खुली जगह है जिसपर वह कही भी आ-जा सकता है, रूक सकता है, साकइिल चला सकता है, खड़ा होकर समय व्यतीत कर सकता है। लेकिन लड़कियों और महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति नहीं है। इससे अलग लैंगिक उत्पीड़न के चलते पब्लिक स्पेस एक खतरनाक जगहों में से एक है। महिलाओं को सड़कों या सार्वजनिक जगहों पर अपनी लैंगिक पहचान की वजह से हिंसा का सामना करना पड़ता है। केवल पुरुषों को वरीयता देने वाली मान्यताओं को खत्म करने के लिए नारीवादी आंदोलनों के तहत महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है। महिलाओं और लड़कियों की गतिशीलता को बढ़ाने और सार्वजनिक स्थलों को हर इंसान बिना किसी लिंग, नस्ल, रंग, वर्ग आधारित भेदभाव से असल सुरक्षित महसूस कर सकें ऐसे माहौल की मांग कर रहे हैं।
ये आंदोलन निर्माण शक्ति के ढ़ांचों विशेषकर पितृसत्ता के काम करने के तरीकों को बदलकर इस बात पर जोर देना चाहते है कि महिलाएं भी समाज का हिस्सा हैं और सार्वजनिक जगहों पर उनका भी उतना ही हक है। इसी दिशा में महिलाओं की गतिशीलता और स्वतंत्रता के अधिकारों को लागू करने के लिए कई आंदोलन हुए हैं जिनमें जेंडर के आधार पर बनी पब्लिक स्पेस की बाइनरी को खत्म कर उसे सबके लिए समान और सुरक्षित बनाने की मांग की गई है।
यूनस्को की परिभाषा के अनुसार सार्वजनिक स्थान से तात्पर्य एक ऐसे क्षेत्र से है जो लिंग, नस्ल या वर्ग की परवाह किए बगैर सभी लोगों के लिए खुला हुआ है। 20वीं सदी में डैफने स्पेन ने 1993 में जेंडर्ड स्पेस की अवधारणा पर प्रकाश डाला था कि पब्लिक स्पेस में महिलाओं की भौतिक उपस्थिति की कमी महिलाओं के सामाजिकरण को कैसे प्रभावित करती है। सार्वजनिक जगहों का कब्जा करना एक लोकतांत्रिक धारणा है। 1995 में डॉन मिशेल इस बात पर जोर देती है कि पब्लिक स्पेस नागरिकता के स्थान के रूप में कैसे महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए गुलाम, महिलाएं और विदेशी जो इन जगहों पर काम तो कर सकते हैं लेकिन इन्हें छुट्टी और आराम के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं थी। इसी के आधार पर महिलाओं के पुरुषों के बराबर पब्लिक स्पेस के इस्तेमाल, आनंद पर जोर देकर काम किया गया। उनकी उपस्थिति और असुरक्षा की स्थिति पर अलग-अलग अभियानों के तहत बात की गई।
व्हाई लोइटर
‘व्हाई लोइटर’ मुंबई में पब्लिक स्पेस का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के सामाजिक मुद्दों को उजागर करने के लिए 1997 में एकेडमिक शिल्पा फड़के ने पत्रकार समीरा खान और आर्किटेक शिल्पा रनाडे के साथ शुरू किया था। इस प्रोजेक्ट में महिलाओं के सार्वजनिक स्थानों के अनुभवों पर बात की गई वे कैसे, क्यों और कब पब्लिक स्पेस में जाती हैं। इसके बाद 2011 में प्रकाशित किताब के नाम पर ही एक अभियान चलाया गया जिसका उद्देश्य महिलाओं के लिए सार्वजनिक जगहों को बनाना और पितृसत्तात्मक सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देना था। इसकी शुरुआत 2014 में मुंबई में देविना कपूर और नेहा सिंह द्वारा की गई थी।
गर्ल्स एट ढाबा
पाकिस्तान में गर्ल्स एट ढाबाज़ महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थानों पर अपनी उपस्तिथि दर्ज करने की एक से अधिक शहरों में चलने का नारीवादी अभियान है। इस अभियान का मकसद महिलाओं का ढाबों पर चाय और बातचीत का आनंद लेने के लिए प्रोत्साहित करना है जहां पारंपरिक तौर पर पुरुषों का वर्चस्व होता है। यह अभियान पत्रकार सादिया खत्री ने कराची में शुरू किया था। ढाबों पर पहुंचने के लिए महिलाओं ने बाइक रैलियां निकाली थी। महिलाएं अकेले या अपनी महिला मित्रों के साथ ढाबों पर बैठी नज़र आई। इस अभियान में महिलाएं #GirlsATDhabas का इस्तेमाल कर सोशल मीडिया पर तस्वीरें भी साझा कर रही थीं।
मी टू स्लीप
हमारे समाज की यह वास्तविकता है कि सार्वजनिक जगहों पार्क, सड़क किनारे पुरुष अक्सर सुस्ताते दिख जाते है लेकिन महिलाओं के लिए ऐसा करना वर्जित है। इसी धारणा को तोड़ने के लिए जसमीन पथीजा ने यह अभियान शुरू किया था। इसका मकसद यह था कि वह देश को बताना चाहते थे कि वे निर्भया (2012 के दिल्ली ब्लात्कार की सर्वाइवर) को नहीं भूले हैं। इस अभियान में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों ने डर और असुरक्षा के माहौल को खत्म करने के लिए छोटे-छोटे समूह में स्थानीय पार्कों में आराम किया और नींद ली। नवंबर 2014 के बाद से भारत के अलग-अलग शहरों के अलावा पाकिस्तान में भी मी टू स्लीप के तहत कई कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं। यौन हिंसा को खत्म करने की दिशा में काम कर रहे संगठन ब्लैंक नाइज के द्वारा यह अभियान चलाया गया था।
मेरी रात मेरी सड़क
रात में सड़कों पर महिलाओं की सुरक्षा की मांग करते हुए सोशल मीडिया पर एक हैशटैग के बाद देश के अलग-अलग शहरों में महिलाएं रात में सड़कों पर इकट्ठा होकर पब्लिक स्पेस को सुरक्षित करने की मांग करनी नज़र आई। साल 2017 में चड़ीगढ़ में वर्णिका कुंदु के रात को अपने काम से घर पर लौटते समय भाजपा नेता के बेटे विकास बराला ने उनकी गाड़ी का पीछा किया था। इसके बाद सोशल मीडिया पर #मेरीरातमेरीसड़क एक हैशटैग बनाया गया। देश के अलग-अलग शहरों में रात को महिलाओं ने निकलकर छेडखानी, बेवजह की बंदिशों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की थी।
ए वुमन वॉज हैरॉसर्ड हियर
ए वुमन वॉज हैरॉसर्ड हियर एक स्ट्रीट आर्ट प्रोजक्ट है जो एक्वी थामी ने शुरू किया था। इस प्रोजक्ट के तहत मुंबई में सड़कों किनारे और पब्लिक स्पेस में गुलाबी रंग के पोस्टर चिपकाते हुए लिखा गया था, ‘यहां एक महिला को परेशना’ किया गया था। यह पोस्टर उन जगह पर लगाए गए थे जहां एक्वी थामी या उनके दोस्तों ने किसी तरह के उत्पीड़न का सामना किया था। गुलाबी पोस्टर लगाने का मकसद उत्पीड़न पर व्यापक चर्चा होनी आवशयक है। इन पोस्टरों पर इतनी प्रतिक्रिया मिली थी कि इन्हें बहुत जल्दी हटाया भी गया था। हालांकि एक्वी ने इस संदेश को बनाए रखने के लिए बाद में इसके टीशर्ट और थैले भी प्रिंट करवाए थे।
दुनिया भर में ऐतिहासिक तौर पर महिलाएं पितृसत्ता के बनाए मानदंडों को खत्म करने, जगह पर घूमने-फिरने और विरोध करने के लिए नारीवादी एकजुटता का इस्तेमाल कर सार्वजनिक जगहों तक अपनी पहुंच बना रही है। औरत मार्च, इन्क्विलिटी इन सिटी, ब्लैंक नाइज, पिंजरा तोड़, आई विल गो आउट जैसे अभियान और आंदोलनों की एक लंबी लिस्ट है जो समय-समय पर सार्वजनिक जगहों को समावेशी बनाने की मांग कर रहे हैं।