इंटरसेक्शनलजेंडर शहर दर शहर से बना मेरा अबतक का नारीवादी सफ़र

शहर दर शहर से बना मेरा अबतक का नारीवादी सफ़र

एकल महिला या विधवाओं की परेशानी के बारे में वैसे मेरी कोई समझ नहीं थी। घर में कोई पुरुष था तो मेरी सी ही उम्र के चचेरे मामा।

बचपन का जेंडर से जुड़ा जो सबसे पुराना किस्सा याद आता है वह था मेरा और मेरे चचेरे भाई का साथ रहना। हम साथ सोते, साथ खाते, साथ स्कूल जाते, साथ खेलते। फिर एक दिन मामा की शादी थी और भाई बना- विनायक। मेरी उम्र तब करीब चार साल थी और मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह आज मुझसे अलग कोई काम कैसे कर रहा है? यह घोड़ी पर क्यों बैठा है? यह पूरी शादी में मामा के साथ क्यों है? फिर हम साथ नाचने लगे और बात भूल गए। आखिरकार जब बारात निकली तो वह गाड़ी में बैठ चला गया और मैं पीछे चिल्ला-चिल्ला कर रोती रही। उस रोती हुई तस्वीर को देख आजकल मैं सोचती हूं कि वह निजी तौर पर मेरा पहला आंदोलन था।

उसके बाद पालन-पोषण ऐसे घर में हुआ जहां पुरुषों की उपस्थिति नहीं थी। पिता के देहांत के बाद मम्मी ही घर को संभालती थी। एकल महिला या विधवाओं की परेशानी के बारे में वैसे मेरी कोई समझ नहीं थी। घर में कोई पुरुष था तो मेरी सी ही उम्र के चचेरे मामा। चौथी कक्षा में एक दिन अंधेरा होने के बाद स्कूल का काम करते हुए पेन ख़त्म हो गया। मैंने मम्मी से कहा, “आप ला दो।” तो वह चिल्लाने लगी कि पहले क्यों नहीं याद रहा? मैंने कहा, दुकान आठ बजे तक खुली है। वह बोली, “अंधेरे में मैं जाऊंगी तो अच्छा थोड़ी लगेगा। आज तो मामा(जो आठवीं कक्षा में था) भी नहीं है वरना उसको भेज देती।” 

चौथी कक्षा की उस बच्ची को इस बात से लगा कि मम्मी कितनी डरपोक है और मैं तो अभी चली जाऊं पर मुझे भी नहीं जाने देती। बहुत बाद में समझ आया कि यह तो समाज का डर था जो किसी एकल महिला के अंधेरे में बाहर जाने मात्र पर उसके चरित्र पर सवाल करता था।

दोबारा अपने शहर लौटकर भी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रही। वहां पिंजरा तोड़ हॉस्टल के टाइमिंग के लिए लड़ रहे थे। यहां लड़कियां कॉलेज जाने के लिए। को-एड कॉलेज में भी लड़के-लड़कियों के बात करने पर मनाही थी। कॉलेज में फ़ोन लाने या पार्क में बैठने पर भी।

अधूरी प्रगतिशीलता का एक आवरण

चरित्र से याद आया कि स्कूल में दसवीं तक चरित्र की परिभाषा भी बहुत अजीब सीखी हुई थी कि यदि किसी लड़की का बॉयफ्रेंड है तो वह अच्छी नहीं है। किसी को ज़रा सजना-संवरना पसंद है तो उसका चरित्र ठीक नहीं है। एक अजीब सी अधूरी प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़ा हुआ था जिसके अनुसार लड़कों से बात करने की आज़ादी होनी चाहिए। किसी का बॉयफ्रेंड है तो उसे स्वीकार भी करना है लेकिन मन ही मन खुद को लगता कि बॉयफ्रेंड बनाना तो कोई बुरी बात होती है। लड़कों से केवल काम की बात करो। अच्छे संस्कार मतलब सामाजिक मान्यताओं के हिसाब से कपड़े पहनना, साधारण रहना कोई अधिक गर्व की बात है आदि।

फिर छठी क्लास में एनसीईआरटी ने धक्के देना शुरू कर दिया। स्कूल में कोई सामाजिक विज्ञान को सामाजिक विज्ञान की तरह नहीं पढ़ाता था बल्कि समाज के नियमों को ही पुनः सिखाता था। जैसे किताब में लिखा है कि सब बराबर हैं लेकिन आप बताओ लड़का और लड़की के बीच कुश्ती करें तो कौन जीतेगा? देश की राजनीति की बात होती तो मास्टर लड़कों का घेरा बना केवल उन्हीं से बात करते रहते। लेकिन किताबें मन में बसने लगी। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, आदर्श राजनीति, लोकतंत्र यह सब सिर्फ बातें नहीं लगती थी, लगता था जैसे कोई पास में बैठा बतिया रहा है। फिर मैं घर पर लड़ने लगी कि मामा ही क्यों अंधेरा होने के बाद बाहर जाएगा? वह ही क्यों वजन उठाएगा? साइकिल चलाऊंगी, अंधेरा होने के बाद खेल कर घर आऊंगी, जो मर्जी होगी वो करूंगी, आप ये जाति सूचक शब्द मत बोलो, आप मुझे मार नहीं सकती आदि। इस तरह से हकों की फेहरिस्त कमरे में चिपका दी गई।

स्कूल और पाठ्यक्रम के बीच वहीं माहौल

तस्वीर साभारः Outlook

हमारे विद्यालय और समाज हमें नागरिक बनाने में असफल हैं। जैसी सब बच्चों की कहानी है वैसे ही पूरा बचपन एनसीईआरटी बनाम विद्यालय में बीत गया। कभी दो चोटी बनाने की ज़बरदस्ती तो कभी लड़कों से बात करने पर चरित्र पर सवाल। शिक्षक शायद पढ़ाने से ज़्यादा ध्यान हमारे स्कर्ट की लम्बाई और शर्ट के अंदर से ब्रा ना दिखाई देने पर देते थे। समाज जो हमें विद्यालय भेज तथाकथित सभ्य नागरिक बनाना चाहता है, वही समाज घर पर आकर माँ पर तरस खा कर कहता, “एक लड़का होता तो जीवन आसान हो जाता लेकिन कोई बात नहीं, आजकल तो ज़माना बदल रहा है।” मैंने कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन अब लगता है कि इतना कुछ बदलने की कोशिश के बाद भी समाज बेटियों को देखने के नज़रिये में आज भी वहीं है।

हम क्लास में मूल अधिकार पढ़ते हैं और असल जीवन में उनके लिए लड़ने पर ज़लील किए जाते हैं। हाल ही का किस्सा है, एक विद्यालय की प्रार्थना सभा में एक शिक्षिका बच्चों से छह मौलिक अधिकार पूछ रही थी और जवाब न देने पर उन्हें अपमानजनक शब्द कहते हुए मार रही थी। यही हमारे देश की हक़ीक़त है। जो होना चाहिए और जो है के बीच में जो फ़ासला है, वह हमें दिखता ही नहीं है। हमने अपनी गैर बराबर परिस्थितियों को आँख मूँद कर स्वीकार कर लिया है।  लेकिन जब पहली बार हमें पता चलता है कि हम समाज की धारा के विपरीत खड़े हैं, तो एक बार के लिए भयानक अकेलापन आता है। हम खुद पर ही संशय करने लगते हैं कि सब हमसे अलग कह रहे हैं तो हम ही गलत सोच रहे होंगे लेकिन फिर धीरे धीरे सही-गलत का भेद समझ आने लगता है। महिलाओं के लिए शायद इस धारा का सामना करे बिना सर्वाइव करना ही नामुमकिन है।

महानगरों की तरफ़ आज़ादी की उम्मीद देखती आँखें

अपने घर और समाज की पाबंदियों से बचने अब मुझे बस मेरे शहर से भागना था। टी. वी पर दिखने वाली दिल्ली की सड़कों पर चलना था, अंधेरे में भटकना था, राजनीति को पढ़ना था और किताबों वाली राजनीति करनी थी। संयोग से किसी ने दिल्ली के बारे में बताया। लगता था कि दिल्ली विश्विद्यालय में देश भर से इतने पढ़े-लिखे बच्चे आते हैं, तो वहां क्या ही आदर्श राजनीति होती होगी। और यूं स्कूल के एक दिन के ट्रिप पर जाने के लिए कई दिन रो कर मंज़ूरी मिलने वाला जीवन दिल्ली पहुंच गया।दिल्ली ने मुझे बहुत कुछ दिया। संयोग से बहुत ख़ूबसूरत लोग मिले जिनके बहाने भारत के कई हिस्सों के करीब होने का मौका मिला। स्वयं के दायरे के बाहर मौजूद दुनिया को देखा और समझा।

पहली बार साथ में फ़ोन था और गूगल मैप भी जिसने गांधी म्यूजियम से हुमायूं के मकबरे तक घुमाया। कैंपस में बहुत सारे आयोजनों के पर्चे होते थे। जितना मालूम होता, उन सब जगहों पर जा कर सारे अनुभवों को बस समेट लेना था। सुबह सात से रात दो बजे तक भटकते हुए पहली बार घर की छत के अलावा रात दिख रही थी। धीरे-धीरे समझ आया कि यहां तो हर रोज़ सेमिनार, नाटक, आंदोलन और न जाने कितने प्रोग्राम होते हैं और हर जगह नहीं जाया जा सकता है। लेकिन जिन बातों को सोच कर लगता था कि मैं कितनी गलत हूं, अब तो वही बातें हर सेमिनार में सब कर रहे थे। यूं ख़ुद को होने की मन ही मन स्वीकार्यता मिल गई।

‘यह सब समस्या है तो बाहर रह लो’

तस्वीर साभारः The Quint

सब जितना आकर्षक था, उतना ही निराशाजनक भी। कॉलेज भी वर्गों, क्षेत्रों, जातियों, भाषाओं में बंटा था। अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय में पढ़े होने के बावजूद किताबों और शिक्षकों की अंग्रेज़ी सिर के ऊपर से जाती थी। क्लास में 4-5 हिंदी माध्यम के बच्चे थे। वे तीन साल यूं ही जूझते रहे। हिन्दू कॉलेज का नया गर्ल्स हॉस्टल खुला था। हम बहुत उत्तेजित होकर प्रॉस्पेक्टस पढ़ रहे थे। दिमाग में छवि थी कि बॉयज़ हॉस्टल जैसा माहौल मिलेगा। पता चला कि फीस तिगुनी है, आने-जाने के समय पर पाबंदी है, वयस्क महिलाओं को हॉस्टल से बाहर निकलने के लिए घर पर बात करवानी होगी, यहां तक की कमरे के बाहर पसंद के कपड़े पहनने पर भी पाबंदी जैसी बातें लिखी थी। फिर हमने प्रदर्शन करने की कोशिश की और इस प्रक्रिया में पता चला कि न्यायपालिका भी ऐसा कह सकती है कि यह सब समस्या है तो बाहर रह लो।(यह जानते हुए कि बाहर पी.जी कितने महंगे और पितृसत्तात्मक हैं)। 

लगभग लड़कियों के पी.जी का अंतिम समय सात बजे था। चुनावों में दल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे थे, बच्चों को वोट के लिए फ़िल्म दिखाने ले जाते थे। थोड़े से विरोध पर कॉलेज प्रसाशन घर पर फ़ोन कर देता। दोस्त ही कह देते कि रात में अकेले घूमना सुरक्षित नहीं है। किसी भी बात का कारण पूछने पर सब कहते कि व्यावहारिक जीवन में यही होता है। और यूं पता चला कि जिस स्कूल, घर और शहर से भाग कर आई थी, यहां भी वैसा ही कॉलेज है और यह भी कुछ अलग शहर नहीं है। पूरे तीन साल उम्मीद और आदर्शवाद को झटके लगते रहे। लेकिन तमाम कमियों के बावजूद दिल्ली ने बहुत पढ़ाया, अनुभव कराया और खूब स्वतंत्रता दी (जो हमेशा से हक़ थी)।

लौटकर ख़ुद के शहरों में होना 

तस्वीर साभारः The Wire

दोबारा अपने शहर लौटकर भी पितृसत्ता के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रही। वहां पिंजरा तोड़ हॉस्टल के टाइमिंग के लिए लड़ रहे थे। यहां लड़कियां कॉलेज जाने के लिए। को-एड कॉलेज में भी लड़के-लड़कियों के बात करने पर मनाही थी। कॉलेज में फ़ोन लाने या पार्क में बैठने पर भी। वहां क्वीयर समुदाय के अधिकारों की बात होती थी, यहां लगभग उनके होने के बारे में ही नहीं पाती थी। वहां अकादमिक गुणवत्ता की लड़ाई थी, यहां क्लास में शिक्षक के आने की। कितने अलग मुद्दे थे लेकिन दोनों ही एक साथ कितने ज़रूरी।

इन सब के बीच पता लगा कि छोटे शहरों से बाहर पढ़ने गए बच्चों का जीवन दो धड़ों में बँट जाता है। लगभग लोग वहां जो होते हैं, यहां नहीं हो सकते। घर लौटने से पहले मेरी एक दोस्त को हमेशा अपने पुरुष दोस्तों का नंबर महिलाओं के नाम से सेव करना होता था। लगभग सभी को शॉर्ट्स वहीं छोड़कर आने होते थे और यहां समाज मुताबिक कपड़े पहनने होते। यह शायद दिल्ली जाने की आज़ादी के बदले किए जाने वाले समझौते थे। लेकिन यह छोटी-छोटी बातें कैसे हमारी गरिमा को कुचलती जाती हैं न।

चौथी कक्षा में एक दिन अंधेरा होने के बाद स्कूल का काम करते हुए पेन ख़त्म हो गया। मैंने मम्मी से कहा, “आप ला दो।” तो वह चिल्लाने लगी कि पहले क्यों नहीं याद रहा? मैंने कहा, दुकान आठ बजे तक खुली है। वह बोली, “अंधेरे में मैं जाऊंगी तो अच्छा थोड़ी लगेगा।”

कभी अपने शहर को तो देखा ही नहीं

दिल्ली से लौट कर ही मुझे यह भी एहसास हुआ कि कभी अपने शहर को तो देखा ही नहीं था। सारा बचपन स्कूल से घर और घर से स्कूल के बंधन में ही बीत गया था। फिर यहां भी हर वक़्त घूमना और स्वयं के होने की लड़ाई लड़ने की कोशिश की गई। सबसे क्रांतिकारी एहसास था चाय की टपरी पर बैठना। कई पुरुष साथी एक दुकान पर बैठ बातें किया करते थे। दूसरी बार जाने पर मुझे दुकान के मालिक ने कहा कि यहां लड़कियां नहीं बैठ सकती। मेरे पास संविधान के अनुच्छेद-19 को सोचने के अलावा कोई उपाय नहीं था।

ऐसे ही किस्से यहां पहाड़ पर जाने, किसी ऐतिहासिक स्मारक पर जाने या कभी अंधेरा होने के बाद पार्क में बैठने पर भी हुए। अब धीरे-धीरे जगह बन रही है जैसे एक नई चाय की टपरी पर सब लोग घूरते हैं लेकिन कोई उठाता नहीं। जैसे बाहर जाने की शून्य अनुमति से अब कर्फ्यू का समय रात दस बजे हो गया है। जैसे पहली बार शहर में अलग-अलग जेंडर आइडेंटिटी के लोगों का होना दिख रहा है।

अब मैं जिस स्कूल में पढ़ाती हूँ वहां भी शिक्षक बच्चों को जेंडर रोल्स सिखाते हैं, अब भी बच्चियां जीने लायक जीवन के लिए यहां से बाहर कॉलेज जाने का सपना पाले हुए हैं। फिर उन्हें भी यहां लौट कर कोई स्वीकार्यता नहीं होगी। किसी लड़की के लिए अब भी बिना अतिरिक्त संघर्ष के शहर में घूमना मुमकिन नहीं है। और इसको बदलने के लिए कुछ ख़ास नहीं हो रहा। सवाल पूछने पर सबका जवाब है कि बदलाव धीरे-धीरे होते हैं! यह सब तो हम जैसे विशेषाधिकार प्राप्त लोगों की बातें हैं। फिर जिन्हें पढ़ने की ही अनुमति नहीं है या जिनके पास मूलभूत ज़रुरत पूरा करने के लिए भी संसाधनों की कमी है, उन्हें कौन से संविधान से उम्मीद करनी है?

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