इंटरसेक्शनलजेंडर माँ बनने के संघर्ष में छूटती ‘मैं’…

माँ बनने के संघर्ष में छूटती ‘मैं’…

समस्या माँ बनने में नहीं है। समस्या इससे जुड़े पूर्वनिर्धारित विचारों से है जो औरतों पर शुरू से ही थोपे जाते रहे हैं। औरतों के विकास की अवस्थाएं पुरुषों की तुलना में, परिवार के असीमित नियंत्रण की छाया में गुज़रती हैं। उन्हें क्या करना है, कब क्या करना है, कैसे क्या करना है, सब फैसले परिवार के नियंत्रण में होते हैं। उनके जीवन का लक्ष्य शादी करने और माँ बनने के लिए ही समर्पित है इस विचार को प्राकृतिक बनाने की हरदम कोशिश की जाती है। ये लक्ष्य युवा लड़कियों के अंदर धीरे-धीरे उनके माता-पिता के घर को एक न एक दिन छोड़े जाने के विचार के पनपने में सहायक होता है।

वे शुरुआत में भय से ही सही पर धीरे-धीरे इन लक्ष्यों को आत्मसात करने लगती हैं। एक दिन शादी हो जाने के बाद बच्चे पैदा करने के क्रम की ओर बढ़ती हैं और फिर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर सिखाए और समझाए गए सभी लक्ष्य साकार होते चले जाते हैं। बच्चा पैदा करने के लिए ससुराल वालों का दबाव आने की स्थिति में, मायके में सिखाए जाने वाले पितृसत्तात्मक मापदंड उसे ‘दुख में वापस न आने’ की मर्यादा में बांधे रखते हैं। उस दबाव में दोनों तरफ के परिवार एक आपसी सहमति जताते दिखाई पड़ते हैं। बीच में रह जाती है ‘पत्नीत्व’ और ‘मातृत्व’ को निभाने के लिए पुरजोर कोशिशों में जुड़ जानेवाली वह औरत जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके लक्ष्यों को पूरा करने की परंपरा को जिंदा रखती है।

यह रूढ़िवादी परंपरा एक आदर्श पितृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था का भी पथ प्रदर्शन करती रहती है। यह परंपरा एक महिला को उसके जीवन से जुड़े तमाम विचारों, उम्मीदों और अनेकों संभावनाओं को खोजने की बजाय उन्हे कमजोर श्रेणी में ला खड़ा कर देती है। मानसिक और शारीरिक दबाव के माध्यम से पितृसत्तात्मक परंपरा पत्नीत्व और मातृत्व को निभाने और इसे गौरवान्वित करने की संस्कृति को बढ़ावा देती चली जाती है।

किसी औरत के लिए मातृत्व की भावना भले ही नयी ही क्यों न हो पर जीवन की एक अकेली भूमिका नहीं है। मातृत्व की भावना को आर्दश बनाना उन औरतों को पीड़ा, अपराधबोध और अकेलेपन की भावना से भर देना है, जो मां बनने का अनुभव ज़िन्दगीभर नहीं कर पाती हैं और इसे अपने जीवन के हर सुख-दुख से जोड़ लेती हैं।

आज भी मातृत्व/मदरहुड की भावना में जीना और माँ बनने या न बनने की इच्छा रखना इस पितृसत्तात्मक समाज में उतना आसान नहीं है। ख़ासकर मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाओं के मामले में। जिनके लिए एक माँ बनने की चाहत उनकी सारी पहचान और खुद के लिए जीवन से एक पल चुराकर जीने की सभी इच्छाओं का अंत कर देती है। आज भी उनकी पहचान परिवार में एक सेवा प्रदान करने वाले इंसान तक ही सीमित रहती है जिनका अपना कोई जीवन नहीं है। शादी के बाद इनका अस्तित्व केवल उनकी कोख तक ही सीमित रह जाता है। आइए जानें, मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाओं के उन अनुभवों को, जो बच्चे पैदा करने या न कर पाने के पारिवारिक और सामाजिक दबाव से उत्पन्न जटिल संघर्षों के बीच जूझ रही हैं या तो यथास्थिति में ही जीने को मजबूर हो गई हैं।

शादी के बाद सबसे ज़रूरी मुद्दे 

ज्योत्सना (32) दिल्ली की रहने वाली हैं। उनकी शादी को 6 साल हो गए हैं। शादी के बाद उनकी ज़िन्दगी इतनी कठिन हो जाएगी, उन्होंने कभी सोचा नहीं था। ससुराल से मिलने वाले हर तनाव को वह खुद ही झेल जाती और अपने मायके तक भी न पहुंचने देतीं। वह नौकरी करने से लेकर बच्चा पैदा करने के दबाव को झेल चुकी हैं और आज भी दो बच्चे हो जाने के बाद उनकी राह बिल्कुल आसान नहीं हुई है। वह हमें बताती हैं, “पापा ने प्राइमरी टीचिंग का कोर्स कराया था। जहां शादी हुई वह जगह मेरे स्कूल से कई किलोमीटर दूर थी। ऐसे में मेरे लिए स्कूल आना-जाना एक चुनौती था। इसलिए मुझे स्कूल की नौकरी छोड़नी पड़ी। शादी के एक-दो महीने बाद ससुराल वालों से नौकरी करने का दबाव आने लगा। मैं पालम जैसी जगह में बहुत नयी थी। दो-तीन साल तक भी अपने घर (मायके) की यादों से बाहर नहीं निकल पाई थी।”

ज्योत्सना आगे बताती हैं, “मुझे ससुराल में अक्सर कटाक्ष सुनने को मिलते थे। कई बार कहा जाता था कि हम अपने बेटे के लिए सरकारी नौकरी करने वाली ले आते तो ठीक रहता। मुझे कहा गया कि नौकरी नहीं कर सकती तो घर का काम करो। सात परिजनों के नाश्ते से लेकर रात का खाना बनाने की सारी ज़िम्मेदारी से मुझे लाद दिया गया। मैं घर के काम में लगी रहती थी। ऐसा लग रहा था कि मुझे नौकरी न करने की सज़ा मिल रही थी। शादी के डेढ़ साल बाद आँगनवाड़ी वर्कर के तौर पर नौकरी मिली।”

लेकिन ज्योत्सना की चुनौती यहीं नहीं खत्म हुई। जब उन्होंने नौकरी पर जाना शुरू किया तो बच्चे पैदा करने का दबाव सिर पर आने लगा। घर और बाहर दोनों तरफ से सुनने को मिलता था कि परिवार पूरा हो जाएगा, कोख खुल जाएगी, एक तो कम से कम हो भले ही ‘लड़की’ हो जाए। ज्योत्सना कोरोना के दौरान, साल भर हाथ-मुंह धोने और कोरोना से बचाव के लिए लोगों के घर-घर जाकर उन्हें जागरूक किया करती थी। तब वह तीन महीने की प्रेगनेंट थी और तीन महीने के बाद उन्हें गर्भपात जैसी स्थिति से गुज़रना पड़ा। इसने उन्हें भारी मानसिक कष्ट पहुँचाया। कुछ समय बाद इलाके की सभी आंगनवाड़ियों के साथियों की तरह उनकी भी नौकरी चली गई। जिसका मामला आज भी हाई कोर्ट में चल रहा है।

“बधाई हो! कोख खुल गई”

इसी बीच ज्योत्सना मिसकैरेज और नौकरी छूट जाने से गहरे मानसिक सदमे में थी। उनको ससुरालवालों की तरफ से हर संभव तरीकों को अपनाने के लिए कहा जाता था। वह बताती हैं, “मेरी सास इलाज के दौरान डॉक्टर से बार-बार एक ही सवाल की रट लगाए रखती थीं कि… कब होगा, कब होगा। दो साल बाद मुझे बेटी हुई। मैं खुश थी पर सबने चैन की सांस ली यह जानकार कि मैं बच्चे पैदा कर सकने के लायक हूं। बेटी के ढ़ाई महीने हो जाने के बाद मुझे फिर से एक और बच्चा करने के लिए कहा गया ताकि बेटा पैदा हो जाए और फैमिली पूरी हो जाए और ऐसा ही हुआ। उन्हे डर था कि कहीं गैप ले लिया तो मेरे इलाज कराने के लिए सालों तक फिर से अस्पताल के चक्कर काटने पड़ेंगें।”

निशा (34) दिल्ली के छत्तरपुर की रहने वाली हैं। उनका कहना है, “हमारी शादी को आठ साल हो गए हैं। मैं फैमली प्लानिंग के लिए सही मानसिक, शारीरिक और वित्तीय अवस्था को अनुकूल समझती हूं। मैं एक कोने में रोती नहीं हूं बैठकर। एक औरत को कब माँ बनना है स्वतंत्र रूप से यह निर्णय उनको लेने देना चाहिए।”

बढ़ती ज़िम्मेदारी और कुचलते सपने

ज्योत्सना के शब्दों में, “सोचा था कि पहला बच्चा हो जाने के बाद मैं अपनी ज़िन्दगी पर ध्यान दे पाऊंगी। पर अब दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी ने उन अवसरों को दूर कर दिया है। एक औरत पर आसान होता है बच्चे पैदा करने का दबाव बनाना पर आखिर में ज़िम्मेदारी हमारे ही पल्ले बांध दी जाती है। मैं ख़ुशी से अपने बच्चों का पालन-पोषण और देख-रेख कर लूंगी पर अब नहीं पता कौन-सी ज़िन्दगी मुझे मेरी चाहतों को पूरा करने का मौका देगी।” ज्योत्सना ने बताया कि वह लंबे समय से आर्ट और क्राफ्ट से जुड़ा कोई कोर्स करना चाहती हैं पर उनकी परिस्थिति के सामने अब यह शौक भी धुंधला रहा है। वह कहती हैं, “मैं नहीं चाहूंगी की मेरे जैसा कम आत्मविश्वास मेरे बच्चों में भी रहे, अगर वे आत्मविश्वासी होंगे तो अपने लिए खड़े हो सकेंगे और अपने सपने पूरे कर सकेंगे।”

“कट गई हूं पूरे परिवार से”

प्रिया (32) दिल्ली के आनंद पर्वत इलाके की रहने वाली हैं। उनकी शादी को साढ़े आठ साल बीत चुके हैं। वह अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताती हैं, ”मैं माँ नहीं बन सकती और इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर पाई हूँ क्योंकि मुझे यह समाज मान्यता नहीं देता। किसी की शादी, बर्थडे और सब सगे-संबंधियों के फंक्शन में जाना बंद कर दिया है। जब कभी जाया करती थी तो उन लोगों की नज़र मुझे आस-पास मौजूद न रहने की कोई अस्वीकृति सी देती थी। जो मुझे जानते थे उनके मुंह से हमेशा ‘कुछ है’ (यानि मेरी कोख में) निकलता था। कुछ और रिश्तेदार दिख जाते तो उनके मुंह से ‘तुम्हारे कितने हैं’ निकलता।”

“मैं रोती नहीं हूँ बैठकर”

हमारे आगे कई ऐसी महिलाएं भी हैं जो समाज में माँ बनने के दबाव को तीखा जवाब देकर इसे एक पंसद के रूप में देखती हैं। निशा (34) दिल्ली के छत्तरपुर की रहने वाली हैं। उनका कहना है, “हमारी शादी को आठ साल हो गए हैं। मैं फैमली प्लानिंग के लिए सही मानसिक, शारीरिक और वित्तीय अवस्था को अनुकूल समझती हूं। मुझे सबसे ज्यादा खुशी तब होती है जब मेरे पति भी मेरे इस विचार पर सहमति जताते हैं। मैं एक कोने में रोती नहीं हूं बैठकर। एक औरत को कब माँ बनना है स्वतंत्र रूप से यह निर्णय उनको लेने देना चाहिए। मैं अपने दिन के समय को अपनी पसंदीदा एक्टिविटी में लगाती हूं। स्केचिंग करती हूं, तरह-तरह के नए पकवान ट्राई करती हूं और बाहर घूमने निकल जाती हूं। मैने देखा है कि दूसरे लोगों को मुझ पर तरस आता है क्योंकि वे बच्चों के साथ खुश हैं। मेरी खुशी बच्चे होने या न होने पर नहीं टिकी है। अगर मुझे शादी के दस साल बाद बच्चा होता है तो मैं उतनी ही खुश होऊंगी जितनी आज होती।”

ज्योत्सना ने बताया कि वह लंबे समय से आर्ट और क्राफ्ट से जुड़ा कोई कोर्स करना चाहती हैं पर उनकी परिस्थिति के सामने अब यह शौक भी धुंधला रहा है। वह कहती हैं, “मैं नहीं चाहूंगी की मेरे जैसा कम आत्मविश्वास मेरे बच्चों में भी रहे, अगर वे आत्मविश्वासी होंगे तो अपने लिए खड़े हो सकेंगे और अपने सपने पूरे कर सकेंगे।”

भारत में मातृ-छवि

पहले एक महिला को घर की देखभाल करने वाली पुराने ख्यालों की रूढ़ीवादी ‘माँ’ के रूप में देखा जाता था। 20वीं शताब्दी में मातृ-छवि की भूमिका को विस्तार दिया गया जिसे त्याग, हर तरह के कष्ट सहनेवाली, राष्ट्रमाता आदि के रूप में देखा गया। धीरे-धीरे इस मातृ-छवि को बेटी और कामकाजी महिला के रूप में पेश किया जाने लगा। नारीवादियों ने उनकी ‘प्रजनन क्षमता’ के बजाय ‘उत्पादक क्षमता’ को रेखांकित किया। 

इस तरह किसी औरत के लिए मातृत्व की भावना भले ही नयी ही क्यों न हो पर जीवन की एक अकेली भूमिका नहीं है। मातृत्व की भावना को आर्दश बनाना उन औरतों को पीड़ा, अपराधबोध और अकेलेपन की भावना से भर देना है, जो मां बनने का अनुभव ज़िन्दगीभर नहीं कर पाती हैं और इसे अपने जीवन के हर सुख-दुख से जोड़ लेती हैं।


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