ब्राजील के शैक्षिक दार्शनिक पाउलो फ्रेरे ने जिन विचारों को विकसित किया वे न केवल शैक्षिक जगत के लिए बल्कि हरेक मानव के भीतर एक चेतना को जगाने में भी महत्वपूर्ण हैं। साल 1921 में जन्मे फ्रेरे एक गरीब परिवार से संबंध रखते थे। उन्होंने जिस संदर्भ में अपने विचारों को जन्म दिया वह पूरी तरह से ब्राजील के वंचित लोगों की स्थिति से सरोकार रखते थे। उन्होंने अपने देश ब्राजील के अशक्त गरीब और ग्रामीण लोगों के उत्थान में शिक्षा को एक बदलाव के साधन के रूप में देखा। वे इन लोगों की स्थिति के लिए जिम्मेदार वहां की सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताओं से काफी अधिक परिचित थे।
तीस के दशक में जब वह करीबन दस साल के थे उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता के साथ पैदा हुए आर्थिक संकट को करीब से अनुभव किया। इसी साल आर्थिक मंदी के दौरान पिता को खो देने के बाद फ्रेरे ने भुखमरी के भयावह चेहरे का भी अनुभव किया। इस दौरान उन्हें अपना और परिवार का पेट भरने के लिए खाना चुराने और घर को आर्थिक मदद पहुंचाने के लिए प्राथमिक शिक्षा को छोड़ना पड़ा। लेकिन जिज्ञासु फ्रेरे ने हिम्मत नहीं हारी। इस चुनौतीपूर्ण संघर्षों ने फ्रेरे को ब्राजील के गरीब लोगों की तत्कालीन परिस्थितियों को बारीकी से समझने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने इन परिस्थितियों को केवल उस समय की अवस्था के आधार पर ही नहीं समझा बल्कि इतिहास के औपनिवेशिक प्रभावों के आलोक में भी समझने का प्रयास किया।
पाउलो फ्रेरे अपनी लगन और मेहनत से उच्च शिक्षा को ग्रहण कर पाने में सफल हुए। उन्होंने ब्राज़ील के रेसिफ़ विश्वविद्यालय में कानून और दर्शनशास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन किया। इसी समय उन्होंने समाज और इसमें शिक्षा की भूमिका के संबंध में अपनी खुद की फिलॉसॉफी को विकसित करना शुरू किया। उन्होंने इस बात को अनुभव किया कि गरीब लोग अपने रोज़मर्रा के जीवन में जिस गरीबी में जी रहे हैं, वह शिक्षा प्रणाली के कारण है।
वंचितों के संबंध में जिन वास्तविकताओं को उन्होंने जाना उसे उन्होंने ‘मौन की संस्कृति’ के रूप में वर्णित किया। फ्रेरे ने पहली बार एक माध्यमिक स्कूल में पुर्तगाली भाषा के शिक्षक के रूप में पढ़ाना शुरू किया। इसके साथ ही ट्रेड यूनियन के वकील के तौर पर भी काम किया। वह सालों तक तमाम सामाजिक कल्याण से जुड़ी संस्थाओं के साथ करीब के जुड़कर काम करते रहे। वह इस दौरान वंचितों के उत्पीड़न के बुनियादी कारणों को खोजते हुए उनके लिए शिक्षा के दृष्टिकोण का विकास करते हैं। फ्रेरे ने अपना सशक्तिकरण कार्य जिस टीम के साथ किया, उन्होंने किसानों की समस्याओं को गहनता से समझने के लिए उनके साथ संवाद किए। उन्होंने किसानों के बीच एक ऐसी संस्कृति उत्पन्न की जहां किसान स्वयं की स्थिति पर विचार करने, आलोचनात्मक समझ विकसित करने और उस स्थिति को बदलने के लिए एक साथ मिलकर आवाज़ उठाने और उस पर काम कर सके।
1960 के दशक में पाउलो अपने क्षेत्र के एक बड़े साक्षरता अभियान से जुड़े। इस अभियान का उद्देश्य वहां के गरीब किसानों को ‘पढ़ने’ और ‘लिखने’ में सक्षम बनाना था। इसी अवधि के दौरान साक्षरता शिक्षण के लिए उन्होंने जिस रैडिकल नज़रिये को विकसित किया उसके परिणाम काफी सफल रहे। इसके चलते ब्राजील की सरकार ने उनकी इस पहल को वित्तीय समर्थन प्रदान किया। मार्क्सवाद, मानववाद, जैसे सिद्धांतों से गहराई से प्रेरित फ्रेरे ने मुक्तिदायक विकल्पों की खोज में बेहद प्रभावशील अवधारणाओं को दुनिया के सामने रखा जो आज समतामूलक समाज के विकास में ज़रूरी स्थान रखते हैं। इनमें से कुछ अवधारणाओं की चर्चा हम आगे करने जा रहे हैं।
‘क्रिटिकल पेडागाॅजी’ के जरिये शोषण को पहचानना
फ्रेरे की सबसे महत्वपूर्ण खोज है ‘क्रिटिकल पेडागाॅजी’ जो विशेषकर तीसरे विश्व के देशों की शिक्षा व्यवस्था के लिए वरदान है। उनकी सभी रचनाओं में सबसे लोकप्रिय ‘पेडागॉजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड’ (1968) में क्रिटिकल पेडागाॅजी का ज़िक्र मिलता है। उनके इस विचार ने अमेरिका जैसे देश में नस्लवाद व लिंगवाद जैसी कुरीतियों से शिक्षा के द्वारा लड़ने और इसके उन्मूलन के तरीके खोजने के लिए भूमिका निभाई। उन्होंने गरीब मजदूरों और किसानों के साथ काम किया और उनके साथ हो रहे मौजूदा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण को पहचाना। इसके समाधान में उन्होंने क्रिटिकल पेडागाॅजी के विचार की नींव रखी थी। फ्रेरे का मानना था कि उत्पीड़ित लोग क्रिटिकल विचार करने में असमर्थ रहते हैं यानी अपने ऊपर हो रहे शोषण को पहचान नहीं पाते हैं जिसके कई कारण हैं। इसीलिए उत्पीड़ित लोग अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं।
एक शैक्षिक व्यवस्था के अंतर्गत इस विचार को रखकर देखें तो इसके ज्ञान में एक विद्यार्थी समाज में अपनी स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं। यह उन्हें अपने जीवन में तमाम समस्याओं जैसे भेदभाव, असमानताओं और उत्पीड़न को पहचानने में सामर्थ्यवान बनाता है। एक शिक्षक इस पद्धति के ज़रिये विद्यार्थी के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ को समझने की सोच विकसित कर सकता है। आज स्कूली पाठ्यक्रम के निर्माण और विकास दोनों के लिए फ्रेरे का यह विचार बेहद अहम भूमिका निभाता है।
प्रैक्सिस
यहां प्रैक्सिस का अर्थ समाज में बदलाव लाने के लिए किसी ज्ञान के वास्तविक अनुप्रयोग से है। प्रैक्सिस किसी सिद्धांत/थ्योरी और प्रैक्टिस को जोड़ने की प्रक्रिया है। फ्रेरे का इस संबंध में कहना था कि हम केवल सिद्धांत को नहीं सीख कर और उसपर एक्शन ही नहीं कर सकते हैं, बल्कि इसके साथ यह बहुत महत्वपूर्ण है कि किसी एक्शन के अंत में उसके परिणामों पर चिंतन करना सीखे की इस प्रक्रिया में क्या-क्या असफलताएं और सफलताएं और क्या-क्या पक्षपात रहे। प्रैक्सिस एक तरह से सामाजिक बदलाव लाने के दौरान; सीखना, ऐक्ट करना और रिफ्लेक्ट करने की प्रक्रिया है।
शिक्षा की ‘बैंकिंग अवधारणा’
फ्रेरे द्वारा प्रस्तुत बैंकिंग अवधारणा आज के समय की शिक्षा व्यवस्था की प्रथा को दर्शाता है। इस अवधारणा के तहत फ्रेरे यह बताने का प्रयास करते हैं कि हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है की यह एक बैंक की तरह काम कर रही है। जैसे बैंक होते हैं पूंजी जमा करने और निकालने के लिए ऐसे ही शिक्षक कक्षा में बच्चों को सूचनाओं से भरने का काम करने लगते हैं जो की शिक्षण के संकीर्ण उद्देश्य का परिणाम है। कक्षा के ऐसे माहौल में ज्ञान का सृजन असंभव होता है क्योंकि शिक्षक के पास एक ऑथोरटी या प्राधिकरण होता है जिससे वह शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। ऐसे शिक्षक विषयों में स्वयं को ज़्यादा ज्ञानवान मानते हैं और कक्षा में उनके समक्ष बच्चे निम्न हो जाते हैं। इस तरह के ‘शक्ति संबंध’ में पूरी कक्षा का माहौल असमान हो जाता है।
‘मौन की संस्कृति’ और कक्षाएं
मौन की संस्कृति में यह माना जाता है की उत्पीड़न करने वाले प्राधिकारी हैं और वे इस मायने में सुसंस्कृत हैं कि वे सब कुछ जानते हैं, जबकि उत्पीड़ित लोग अनपढ़ हैं और वे कुछ भी नहीं जानते हैं। इसीलिए उत्पीड़ितों को मौन या चुप रहना चाहिए। फ्रेरे के अनुसार मौन की इस संस्कृति को बनाए रखने के लिए संपूर्ण शिक्षा प्रणाली तमाम उपकरणों में से एक है। यह संस्कृति ऐसी व्यवस्था को जन्म देती है जहां व्यक्ति न तो आलोचनात्मक कौशल को ग्रहण कर पाता है और न ही चिंतन कर पता है।
इस प्रकार एक समाज को शिक्षा से कई उम्मीदें होती हैं पर अगर शिक्षा भी समाज के संकीर्ण रवैए में ढल जाए तो शिक्षा निरर्थक साबित होगी जो कोई बदलाव नहीं ला सकेगी। पाउलो फ्रेरे की अवधारणाएं दमनकारी व्यवस्थाओं को पहचानने और समझने के लिए एक व्यावहारिक नजरिया प्रदान करती हैं। साथ ही, समाज को आकार देने वाले शोषणकारी सामाजिक बल को पहचानने और उसके ख़िलाफ कार्रवाई करने की क्षमता का विकास करते हैं। उनका उल्लेखनीय कार्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सन्दर्भों के केंद्र में शिक्षा को महत्व देता है।
संदर्भ: