इंटरसेक्शनलजाति समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट: जाति-विरोधी आंदोलन की एक सशक्त आवाज़

समाजशास्त्री गेल ऑम्वेट: जाति-विरोधी आंदोलन की एक सशक्त आवाज़

भारतीय समाजशास्त्र, जेंडर स्टडीज, सोशल मूवमेंट्स में जाना-पहचाना नाम है डॉ. गेल ऑम्वेट। डॉ. गेल अमेरिका में जन्मी भारतीय समाजशास्त्री और मानवाधिकार कार्यकर्ता थीं। वह एक बेहतरीन लेखिका थीं जिन्होंने एंटी-कास्ट मूवमेंट, दलित राजनीति और भारत में महिला आंदोलन पर तमाम किताबें, लेख लिखे।

भारतीय समाजशास्त्र, जेंडर स्टडीज, सोशल मूवमेंट्स में जाना-पहचाना नाम है डॉ. गेल ऑम्वेट। डॉ. गेल अमेरिका में जन्मी भारतीय समाजशास्त्री और मानवाधिकार कार्यकर्ता थीं। वह एक बेहतरीन लेखिका थीं जिन्होंने एंटी-कास्ट मूवमेंट, दलित राजनीति और भारत में महिला आंदोलन पर तमाम किताबें, लेख लिखे। गेल का जन्म 2 अगस्त 1941 में मिनियापोलिस, मिनिसोटा, अमेरिका में हुआ था। इन्होंने अपनी पढ़ाई कार्लेटन कॉलेज से की थी। फुलब्राइट फेलोशिप के तहत बतौर इंग्लिश ट्यूटर 1963-64 में इनका भारत आना हुआ। इस छोटी सी शैक्षणिक यात्रा में उन्होंने भारत में व्याप्त जाति का शोषण, महिलाओं की ख़राब दशा भली-भांति देख ली थी। इसी के परिणामस्वरूप वह 1970 के दशक में अपनी समाजशास्त्र में पीएचडी थीसिस “कल्चरल रिवॉल्ट इन अ कोलोनियल सोसाइटी: द नॉन – ब्राह्मण मूवमेंट इन वेस्टर्न इंडिया 1873-1930” की रिसर्च के लिए फिर से भारत आईं।

उन्होंने अपनी पीएचडी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कली में 1973 में सबमिट की थी। रिसर्च के दौरान ही महाराष्ट्र में उनका दलित सोशल एक्टिविस्ट भरत पतंकर से मिलना हुआ जिनसे गेल ने 1976 में शादी कर ली। शादी के बाद वह महाराष्ट्र के एक गांव, कासेगांव में बस गईं और साल 1983 में अमेरिका की नागरिकता छोड़, भारतीय नागरिकता अपना ली। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में उनकी बेटी प्राची पतंकर ऑम्वेट बताती हैं कि 1960 के दशक में, कॉलेज के दिनों में गेल एंटी वॉर, ब्लैक सिविल राइट्स मूवमेंट में बहुत सक्रिय थीं। वह एक नारीवादी, एंटी-रेसिस्ट, एंटी-इंपीरियलिस्ट के तौर पर कैलिफोर्निया में आंदोलन में शरीक हुई थीं। वह जिन विषयों को लेकर उत्सुक रहती थीं वे थीं बाबा साहब और ज्योतिबा फुले की लेखनी और उनका दर्शन।

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तस्वीर साभार: The Guardian

जब 1970 के दशक में एक्टिविज़म चरम पर था तब बाबा साहब और ज्योतिबा फुले को जनता के बीच लाने का काम गेल ने किया। वह दलित समुदाय की तब सशक्त आवाज़ बनीं जब मुख्यधारा में दलितों के संघर्ष पहचान नहीं मिल रही थी। वह आंदोलनों, पदयात्राओं, रैलियों में शामिल होती थीं और अपनी बात मराठी भाषा में रखती थीं ताकि आम जनता तक उनकी बात आसान भाषा में जा सके। गेल ऑम्वेट ने अपने भरत पतंकर और अन्य साथियों के साथ मिलकर 1980 में श्रमिक मुक्ति दल का गठन किया श्रमिक मुक्ति दल महाराष्ट्र में सामाजिक राजनैतिक संगठन है जो राज्य के ग्यारह जिलों में किसानों और मजदूरों के साथ मिलकर सूखा, बांध संबंधी समस्या और जातिगत हिंसा से लड़ने का काम कर रहा है। इस संगठन की विचारधारा सिर्फ़ मार्क्सवाद नहीं बल्कि मार्क्स-फुले-आंबेडकरवाद है। गेल ऑमवेट मेहनतकश, दलित, आदिवासी, महिलाओं की लड़ाई में इस प्रकार से शामिल नहीं हुईं जैसे वह उनकी लीडर हैं, आंदोलन की अगुआ हैं। वह हमेशा उनकी साथी के तौर पर शामिल हुईं।

गेल ऑम्वेट के एंटी-कास्ट लेखन में दलित-बहुजन आंदोलन पर स्वतंत्रता के बाद के समय में गहरा प्रभाव रहा है। गेल का लेखन और ज़मीन पर जो एक्टिविज़म रहा वह असमानता के विरोध में और सामाजिक न्याय के पक्ष में था।

प्रगतिशील सवर्ण जो हाशिए पर रखे गए लोगों की आवाज़ उठाते-उठाते उनके अगुआ बनने लगते हैं, उन्हें भी वक्त वक्त पर गेल ने जवाब तलब किया है। द वायर में लिखी गई एक रिपोर्ट के मुताबिक नर्मदा आंदोलन में शामिल लेखक अरुंधति रॉय को गेल ऑम्वेट खुला पत्र लिखा जिसमें उन्होंने रॉय से सवाल किया कि बांध के बनने से आदिवासी आबादी ही विस्थापित होगी तो आंदोलन का नेतृत्व किसी आदिवासी द्वारा क्यों नहीं किया जा रहा है। इसी के साथ गेल ने ये तर्क भी रखा कि बांध का निर्माण वहां के किसानों की फसल के लिए ज़रूरी है। गेल भारत में महिलाओं की परस्थिति समझ चुकी थीं। वह दलित महिला और सवर्ण महिला के बीच के भेद को बारीकी से जान रही थीं, दलित महिला जहां जाति, वर्ग और जेंडर के क्रॉस इंटरसेक्शन से जूझ रही हैं। वहीं सवर्ण महिलाओं घर के शोषण से, इसी व्यवस्था को गेल ने सोशल पैट्रियार्की यानी सामाजिक पितृसत्ता का नाम दिया।

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गेल ऑमवेट मेहनतकश, दलित, आदिवासी, महिलाओं की लड़ाई में इस प्रकार से शामिल नहीं हुईं जैसे वह उनकी लीडर हैं, आंदोलन की अगुआ हैं। वह हमेशा उनकी साथी के तौर पर शामिल हुईं।

गेल ऑम्वेट के एंटी-कास्ट लेखन में दलित-बहुजन आंदोलन पर स्वतंत्रता के बाद के समय में गहरा प्रभाव रहा है। गेल का लेखन और ज़मीन पर जो एक्टिविज़म रहा वह असमानता के विरोध में और सामाजिक न्याय के पक्ष में था। गेल ऑम्वेट बुद्ध, कबीर, फुले और बाबा साहेब से प्रभावित थीं जिसकी झलक हम उनके लेखन में पाते हैं। उनका काम साफ़ तरीके से ये चिह्नित करता है कि वह भारतीय समाज को कास्टलेस, क्लासलेस, लोकतांत्रिक, न्यायिक चाहती थीं। गेल ने पच्चीस से ज़्यादा किताबें लिखीं और दर्जन भर से ज्यादा विभिन्न संस्थानों के लिए लेख लिखे। गेल ऑम्वेट उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं जिन्हें अआंबेडकरवादी संगठनों ने अपना माना और उनकी बात सुनी, उनके लेखन को अपने ज्ञानार्जन के लिए चुना।

तस्वीर साभार: The Week

उनके कुछ महत्वपूर्ण प्रकाशन हैं: दलित विजन (1975), वी शेल स्मैश दिस प्रिज़न: इंडियन वूमेन इन स्ट्रगल (1979), लैंड, कास्ट एंड पॉलिटिक्स इन इंडियन स्टेट्स (1982), रीइन्वेंटिंग रिवोल्यूशन:न्यू सोशल मूवमेंट्स एंड द सोशलिस्ट ट्रेडिशन इन इंडिया (1993), ए ट्रांसलेशन ऑफ़ वसंत मून्स ग्रोइंग अप अनटचेबल इन इंडिया: ए दलित ऑटोबायोग्राफी (2000), बौद्ध धर्म इन इंडिया: चैलेंजिंग ब्राह्मणिज्म एंड कास्ट (2003), सीकिंग बेगमपुरा: द सोशल विजन of एंटी कास्ट इंटेलेक्चुअल्स (2008) और दलित एंड डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन (2013)

सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में हिस्ट्री, वूमेन जेंडर स्टडीजड और सेक्सुअलिटी पढ़ाने वाली प्रोफेसर शैलजा पाइक द फॉरन पॉलिसी में छपे लेख में गेल को याद करते हुए कहती हैं, “उन्होंने उन लोगों के जीवन और अनुभवों से सीखने में समय बिताया, जिनके बारे में वह लिख रही थीं। जब मैं एक छात्र थीं, तब बहुत कम लोग थे जो भारतीय इतिहास के बारे में दलित दृष्टिकोण से लिख रहे थे। उनका काम प्रभावशाली और क्रांतिकारी है।” डॉक्टर गेल ऑम्वेट का निधन बीमारी के चलते 80 साल की उम्र में 25 अगस्त 2021 को कासेगांव, सांगली महाराष्ट्र में हो गया था। गेल ने भारतीय समाज को न सिर्फ जाति के क्रूर रूप से अपने लेखन के द्वारा अवगत कराया बल्कि उससे लड़ने के तरीके भी दिए और वैश्विक स्तर पर इस क्रूर व्यवस्था के बारे में लोगों को बताया। हालांकि, गेल जितना डिज़र्व करती थीं उतना यहां के मुख्यधारा ने उन्हें जगह नहीं दी लेकिन आने वाली बहुजन पीढ़ियां गेल को अपने मार्गदर्शन और साथी के तौर पर याद करेंगी।

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तस्वीर साभार: The Hindu

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