इतिहास हैरियट मार्टिनिया: समाजशास्त्र में महिलाओं का नज़रिया लानेवाली अग्रणी

हैरियट मार्टिनिया: समाजशास्त्र में महिलाओं का नज़रिया लानेवाली अग्रणी

साल 1834 में हैरियट ने ‘इलस्ट्रेशंस ऑफ़ पॉलिटिकल इकोनॉमी’ नाम से किताब लिखी। पच्चीस भागों में बंटी यह किताब दो साल के अंतराल में छपी जिसने हैरियट को एक लेखक के रूप में स्थापित किया, फ्री मार्केट कैसे काम करती है और महिलाओं के लिए आर्थिक आज़ादी कितनी ज़रूरी है आदि मुद्दों पर यह किताब आधारित है।

समाजशास्त्र को एक विषय के रूप में हम सभी पढ़ते हैं। इसका सीधा सा अर्थ है समाज को पढ़ना, उसकी संस्थाओं का वैज्ञानिक तरीकों से अध्ययन करना। ऑगबर्न और निमकॉफ के अनुसार, “समाजशास्त्र सामाजिक जीवन का वैज्ञानिक अध्ययन है।” समाजशास्त्र विषयों की दुनिया में बहुत नया विषय है जिसका उद्भव उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रेंच क्रांति और उद्यौगिक क्रांति के प्रत्युत्तर में हुआ है। इन क्रांतियों के बाद जो समाज में बदलाव आ रहे थे वे किसी अन्य विषय के जानकारों और क्षेत्र द्वारा समझने मुश्किल हो रहे थे। समाज में आए नये बदलावों को समझने के प्रतिउत्तर में समाजशास्त्र ने जन्म लिया हालांकि इसकी जड़ें ग्रीक और रोमन दर्शनशास्त्र में आर्टिस्टोटल, प्लेटो आदि के काम में महसूस की जा सकती हैं।

इन सभी दार्शनिकों में एक बात आम थी कि महिलाओं को लेकर इनके विचार रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक थे। उदाहरण के रूप में एरिस्टोटल महिलाओं को पुरुषों से नीचा समझते थे क्योंकि उनका शरीर बीज (या वीर्य) पैदा करने के लिए बेहद ठंडा था। ग्रीक, रोमन फिलोसॉफी की जड़ों से उपजा दर्शनशास्त्र पितृसत्ता को अपने अंदर से कभी ख़त्म नहीं कर पाया। साल 1838 में फ्रेंच दर्शनशास्त्री अगस्त कोम्टे ने ‘दर्शनशास्त्र’ शब्द का प्रयोग ‘समाज का वैज्ञानिक अध्ययन’ के परिपेक्ष में किया था। महिलाओं के लेकर कोमटे के विचार भी भेदभावपूर्ण थे। कॉम्टे का मानना था कि लिंग के आधार पर एक अंतर है, जिसके अनुसार पुरुष ऐसे गुणों से लैस होते हैं जो उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के लिए विशिष्ट बौद्धिक और प्रबंधकीय कार्यों के लिए उपयुक्त बनाते हैं, जबकि महिलाओं की विशेषताएं उन्हें निजी तौर पर पुरुषों के लिए स्नेहपूर्ण सहायक बनाती हैं।”

तस्वीर साभार: Humanist Heritage

पितृसत्ता को लदे दर्शनशास्त्र के ‘पिताओं’ द्वारा अस्तित्व में लाया गया दर्शनशास्त्र 1838 के बाद यह यूरोप से यात्रा तय करते हुए अमेरिका पहुंचा जहां इसका विस्तार और भी अधिक बढ़ता गया। इस विषय के लिए विश्वविद्यालयों में अलग से डिपार्टमेंट बनाए गए। इसके बाद विश्व में आए आधुनिकता के दौर में यह विषय अलग-अलग देशों में पहुंचा जहां देश के समाज के अनुरूप इसका अध्ययन विस्तार गढ़ा गया। जिस विषय के अध्ययन का केंद्र ही समाज है, उसके अध्ययन से औरतों की आबादी को लंबे समय तक दरकिनार किया गया।

दर्शनशास्त्र के पिताओं ने महिलाओं को इस विषय में कोई जगह ही नहीं दी जिसके परिणामस्वरूप समाजों का अध्ययन पुरुषों के नज़रिये से ही होता रहा। ऐसी स्थिति में महिलाओं की स्वतंत्रता और जगह कैसे निश्चित हो सकती थी? पुरुष प्रधान समाजशास्त्र में सबसे पहला हस्तक्षेप किया था अंग्रेजी लेखक, सिद्धांतकार और पत्रकार हैरियट मार्टिनिया ने। हैरियट का जीवन परिचय जान लेना अहम है क्योंकि बतौर समाजशास्त्री, उनके अनुभवों ने ही यह तय किया है कि उन्होंने अपने जीवन में किन क्षेत्रों को अहमियत दी थी और किन विषयों पर विस्तार से लेखन किया। उन्नीसवीं सदी में महिलाओं की पितृसत्तात्मक स्थितियों के साथ-साथ समाज में प्रमुख धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक संस्थानों के बारे में हैरियट विस्तार से लिखा है। इनका जन्म 1802 में इंग्लैंड के नॉरेहिच में एक धार्मिक यूनिटेरियन क्रिश्चियन परिवार में हुआ था। 

इनके पिता, थॉमस एक टेक्सटाइल मैन्युफैक्चरर थे। आठ संतानों में से हैरियट छठी संतान थीं। इनकी पढ़ाई अपने भाइयों की तरह ही एक कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी लेकिन घर में ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि वे घरेलू कामों पर अधिक ध्यान दें। हैरियट को यह पसंद नहीं था। उनका बचपन घर के बाकी बच्चों से असाधारण था, बहुत कम उम्र में उनकी स्वाद और सूंघने की शक्ति चली गई थी। उनकी मां ने उनके लिए एक नर्स रखी हुई थी जिस कारण मां के साथ बच्चे में जो लगाव होता है वह उससे अपरिचित रहीं। इस कारण उनके अपनी मां के साथ अच्छे संबंध भी नहीं थे। लड़कियां सिर्फ घर का काम करें, वह ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती थीं, उन्होंने गुमनाम रूप से एक यूनिटेरियन पत्रिका मंथली रिपोजिटरी में ‘लड़कियों की शिक्षा पर’ नाम से एक लेख लिखा था। इस लेख के लेखक का नाम जब उनके भाई जेम्स ने जाना तब उनसे कहा, “प्रिय, शर्ट और मोज़े बनाने का काम अन्य महिलाओं पर छोड़ दो और तुम स्वयं को इसके लिए (लेखन में) समर्पित कर दो।”

हैरियट महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर मुखर थीं, जब वे अमेरिका गईं और वहां जाकर सिविल मूवमेंट, एबोलिशनिस्ट मूवमेंट में शामिल हुईं, इस आंदोलन में उनका इतना अहम योगदान था कि दिसंबर 1883 में बोस्टन के ओल्ड साउथ चर्च में मार्टिनिया की एक प्रतिमा का अनावरण करते समय, वेंडेल फिलिप्स ने उन्हें ‘महानतम अमेरिकी उन्मूलनवादी’ के रूप में संदर्भित किया था। इन आंदोलन की वजह से वे महिलाओं के शोषण को लेकर अधिक चिंतित हुईं।

1826 में हैरियट के पिता की मृत्यु के बाद और कारखाना ठप्प होने के बाद उन्हें जीवनयापन के लिए सिलाई के काम में खुद को लगाना पड़ा लेकिन इससे निकलकर जल्द ही वे पूरी तरह लेखन में सक्रिय हो गई थीं जो उनकी स्वतंत्रता का कारण बना।हैरियट के वैवाहिक जीवन की बात करें तो उनकी सगाई जेम्स के कॉलेज दोस्त जॉन से हुई थी लेकिन शादी से पहले तबीयत ख़राब होने से जॉन की मृत्यु हो गई थी। अपनी आत्मकथा में इस बात का ज़िक्र करते हुए वह लिखती हैं कि बेशक उन्हें जॉन की मृत्यु होने से दुख था लेकिन परिस्थितियों ने उनकी शादी रोक दी यह अच्छा हुआ था। हैरियट ने कभी शादी नहीं की थी, ना उनकी कोई संतान थी।

हैरियट मार्टिनिया के सिद्धांतसमाजशास्त्र में हैरियट वह व्यक्ति हैं जिन्होंने शादी, बच्चे, घर, धार्मिक जीवन और नस्ल पर नारीवादी नज़रिये से काम किया था। इनका मानना था कि समाज का अध्ययन समाज की हर संस्था को समेटे हो जिसमें राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक पहलू शामिल हो। हैरियट को यह समझने में दिलचस्पी थी कि किसी भी समाज में असमानता काम कैसे करती हैं ख़ासकर महिलाओं के संदर्भ में। यही कारण था कि हैरियट महिलाओं, हाशिये के वर्ग को अपने अध्ययन क्षेत्र में शामिल करनेवाली पहली समाजशास्त्रियों में से एक थीं। समाजशास्त्र के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान अगस्त कोम्टे का काम ‘द पॉजिटिव फिलोसॉफी’ का फ्रेंच भाषा से अंग्रेजी अनुवाद साल 1853 में किया था ताकि एक बड़ी संख्या के पाठकों तक उनका काम पहुंच सके। समाजशास्त्र में एक महत्वपूर्ण योगदान ‘हाउ टू ऑब्जर्व मोरल्स एंड मैनर्स’ (1838) के माध्यम से सोशियोलॉजिकल रिसर्च मेथड्स को परिचित करना है जिसे इस्तेमाल कर आज अलग-अलग विषयों पर तक तरह तरह के डाटा, सर्वे कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किए जाते हैं।

लड़कियां सिर्फ घर का काम करें, हैरियट ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती थीं, उन्होंने गुमनाम रूप से एक यूनिटेरियन पत्रिका मंथली रिपोजिटरी में ‘लड़कियों की शिक्षा पर’ नाम से एक लेख लिखा था। इस लेख के लेखक का नाम जब उनके भाई जेम्स ने जाना तब उनसे कहा, “प्रिय, शर्ट और मोज़े बनाने का काम अन्य महिलाओं पर छोड़ दो और तुम स्वयं को इसके लिए (लेखन में) समर्पित कर दो।”

साल 1834 में हैरियट ने ‘इलस्ट्रेशंस ऑफ़ पॉलिटिकल इकोनॉमी’ नाम से किताब लिखी। पच्चीस भागों में बंटी यह किताब दो साल के अंतराल में छपी जिसने हैरियट को एक लेखक के रूप में स्थापित किया, फ्री मार्केट कैसे काम करती है और महिलाओं के लिए आर्थिक आज़ादी कितनी ज़रूरी है आदि मुद्दों पर यह किताब आधारित है। हैरियट महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर मुखर थीं, जब वे अमेरिका गईं और वहां जाकर सिविल मूवमेंट, एबोलिशनिस्ट मूवमेंट में शामिल हुईं, इस आंदोलन में उनका इतना अहम योगदान था कि दिसंबर 1883 में बोस्टन के ओल्ड साउथ चर्च में मार्टिनिया की एक प्रतिमा का अनावरण करते समय, वेंडेल फिलिप्स ने उन्हें ‘महानतम अमेरिकी उन्मूलनवादी’ के रूप में संदर्भित किया था। इन आंदोलन की वजह से वे महिलाओं के शोषण को लेकर अधिक चिंतित हुईं।

अपने काम ‘सोसाइटी इन अमेरिका’ (1837) में उन्होंने ‘महिलाओं की राजनीतिक गैर-अस्तित्व’ शीर्षक से एक अध्याय लिखा, जिसमें कहा गया कि देश में महिलाओं के साथ मूल रूप से गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था। द एडिनबर्ग रिव्यू में फीमेल इंडस्ट्री (1859) में वे मिडिल क्लास महिलाओं के उत्थान पर ज़ोर देती हुई घरों की दीवारों से निकलकर आर्थिक मजबूती की ओर बढ़ने पर लिखती हैं। मार्टिनिया ने 1848 में महिलाओं की शिक्षा की स्थिति पर शोक व्यक्त करते हुए घरेलू शिक्षा लिखी। उनका मानना था कि महिलाओं में मातृत्व के प्रति स्वाभाविक झुकाव होता है और उनका मानना था कि उचित, सर्वांगीण शिक्षा के लिए घरेलू काम शिक्षा के साथ-साथ चलता है।

इरावती करवे भारत की पहली महिला समाजशास्त्री कही जाती हैं। इरावती के अलावा नीरा देसाई, लीला दुबे, आर शरदामनी इस सूची में शामिल हैं, लेकिन उच्च जाति से आने वाली इन सभी महिला समाजशास्त्री के कामों में से दलित महिला की नज़र नदारद थी जिसे भारतीय समाजशास्त्र में शर्मिला रेगे और गेल ओमवेट के कामों ने शामिल किया।

उन्होंने कहा, “युवा लड़कियों के लिए कम उम्र से ही घरेलू व्यवसायों में गहन अभ्यास की इच्छा रखने में मैं अधिकांश व्यक्तियों से आगे निकल जाती हूं।” उन्होंने प्रस्तावित किया कि आदेश और आज्ञाकारिता के बजाय स्वतंत्रता और तर्कसंगतता, शिक्षा के सबसे प्रभावशाली साधन हैं। 1852 से 1866 तक, उन्होंने डेली न्यूज़ में नियमित रूप से योगदान दिया, कभी-कभी सप्ताह में छह नेताओं के बारे में लिखा। उन्होंने अखबार के लिए कुल मिलाकर 1600 से अधिक लेख लिखे। आयरलैंड से उनके पत्र भी प्रकाशित किए गए, जो उन्होंने 1852 की गर्मियों में उस देश की यात्रा के दौरान लिखे थे। कई वर्षों तक वह वेस्टमिंस्टर रिव्यू में योगदानकर्ता रहीं; 1854 में वह उन वित्तीय समर्थकों में से थीं जिन्होंने इसे बंद होने से रोका।

समाजशास्त्र के क्षेत्र में भारत की हैरियट मार्टिनिया विश्व में नारिवादी आंदोलनों ने महिलाओं के हक़ में आवाज़ें बुलंद की थीं, उससे पहले बहुत विरले ही महिलाएं घरों से बाहर के क्षेत्रों में देखने मिलती थीं और ऐसा सिर्फ़ पाश्चात्य देशों में ही नहीं विकासशील देशों में भी था। पुरूष प्रधानता का असर न सिर्फ़ घरों में रहता है बल्कि हर क्षेत्र में होता है। ऐसा ही भारतीय समाजशास्त्र के क्षेत्र में भी हो रहा था। 1920 के दशक में समाजशास्त्र एक विषय के रूप में तब स्थापित हुआ जब लखनऊ और मुंबई विश्विद्यालय में इसके लिए डिपार्टमेंट सुनिश्चित किए गए।

तस्वीर साभार: National Portrait Gallery

भारतीय समाजशास्त्र के पिता गोविंद सदाशिव घुर्ये को कहा जाता है। इनके अलावा एमएन श्रीनिवास आदि लोग इस सूची में शामिल हैं। परिणाम वही कि पुरुष की नज़र से वह भी तथाकथित उच्च जाति के पुरुष से समाज की व्याख्या हो रही थी। ऐसी पुरुषवादी व्याख्या में हस्तक्षेप किया था खुद घुर्य की छात्र इरावती करवे ने जो भारत की पहली महिला समाजशास्त्री कही जाती हैं। इरावती के अलावा नीरा देसाई, लीला दुबे, आर शरदामनी इस सूची में शामिल हैं, लेकिन उच्च जाति से आने वाली इन सभी महिला समाजशास्त्री के कामों में से दलित महिला की नज़र नदारद थी जिसे भारतीय समाजशास्त्र में शर्मिला रेगे और गेल ओमवेट के कामों ने शामिल किया। समाजशास्त्र महत्वपूर्ण विषयों में से एक है इसीलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि समाज के हर तबके की आवाज़, नज़र, काम इसमें शामिल हो ताकि एक बेहतर समाज की रूपरेखा समावेशी, संवैधानिक और हितकारी हो। 


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