विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, “वैश्विक स्तर पर सिजेरियन सेक्शन का उपयोग लगातार बढ़ रहा है, अब यह सभी प्रसवों में से 5 में से 1 (21%) से अधिक के लिए ज़िम्मेदार है। शोध में पाया गया है कि आने वाले दशक में यह संख्या बढ़ती रहेगी, 2030 तक सभी जन्मों में से लगभग एक तिहाई (29%) सिज़ेरियन सेक्शन द्वारा होने की संभावना है।” सीजेरियन सेक्शन, बच्चे को जन्म देने का तरीका है जिसे हम बोलचाल की भाषा में यूं कहते हैं कि बड़े ऑपरेशन से बच्चा हुआ है। वह बड़ा ऑपरेशन सिजेरियन या सी-सेक्शन होता है। सिजेरियन सेक्शन, सी-सेक्शन, या सिजेरियन बर्थ (जन्म) मां के पेट और गर्भाशय में किए गए कट (चीरा) के माध्यम से एक बच्चे की सर्जिकल डिलीवरी होती है।
लेकिन जिस प्रकार से प्रसव का यह तरीका न सिर्फ़ विकसित बल्कि विकाशील देशों में, भारत समेत जोरों से बढ़ने लगा है, क्या असल में महिलाओं के लिए सी-सेक्शन की आवश्यकता अचानक से इतनी बढ़ गई है? यह महिलाओं के स्वास्थ्य, उनकी आर्थिक स्थिति पर छाए हुए खतरों के बढ़ने की ओर का महत्वपूर्ण संकेत है? एक्सपर्ट्स द्वारा सी सेक्शन डिलीवरी को एपिडेमिक बताना कितना सही है? इस दिशा में चीजें साफ़ साफ़ पहचान में आएं उसके लिए जरूरी है जानना कि आख़िर किन परिस्थितियों में सी सेक्शन हुआ जाना चाहिए और विश्व स्वास्थ्य संगठन के इस विषय में क्या दिशा निर्देश हैं।
सी सेक्शन करने के मेडिकल और नॉन मेडिकल दोनों ही कारण हो सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सर्जिकल प्रक्रिया महिलाओं और उनके शिशुओं के स्वास्थ्य को खतरे में डाल सकती है इसीलिए सिर्फ़ मेडिकल कारणों में ही इसे करने की हिदायत दी जाती है जिसमें लंबे समय तक लेबर पेन, बच्चे की गर्भ में असामान्य शारीरिक जगह, मां को एचआईवी, मधुमेह, हृदय आदि रोग एवं ऐसे अन्य कारणों से सी सेक्शन किया जाता है। संगठन अपने स्वास्थ्य विशेषज्ञों के विचार को दोहराता है, जिन्होंने 1985 से कहा है कि सिजेरियन सेक्शन के लिए “आदर्श दर” 10% से 15% जन्मों के बीच है। भारत में यह दर पिछले एक दशक से लगातार बढ़ रही है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में सी-सेक्शन डिलीवरी का चलन बढ़ रहा है। 2005-06 में यह 8.5 फीसदी, 2015-16 में 17.2 फीसदी और 2019-21 में यह बढ़कर 21.5 फीसदी हुई है। 2019-20 में, निजी सुविधाओं में 34.2 प्रतिशत सी-सेक्शन देखा गया, जो 2020-21 में 35.95 प्रतिशत और फिर 2021-22 में 37.95 प्रतिशत हो गया। तुलनात्मक रूप से, उसी समय, सार्वजनिक सुविधाओं में 14.1 प्रतिशत, 13.96 प्रतिशत और 15.48 प्रतिशत सी-सेक्शन हुए। भारत में पिछले दशक में सार्वजनिक अस्पतालों में सी-सेक्शन प्रसव में 300 प्रतिशत से अधिक और निजी अस्पतालों में 400 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है।
इस वृद्धि के मेडिकल कारण ज़रूर हैं लेकिन अकेला वही कारण नहीं है, इसके डॉक्टर्स की सहजता, अस्पतालों के आर्थिक लाभ, मार्केट, महिलाओं में कम साक्षरता दर शामिल है। चलिए, इन कारणों को विस्तार से समझते हैं। सार्वजनिक अस्पतालों में सी सेक्शन के बढ़ने के कारण अस्पताल में डॉक्टर्स, नर्सिंग स्टाफ की कमी एक बड़ी वजह है। सी सेक्शन को करने का समय तय किया जा सकता है इसीलिए डॉक्टर्स अपनी सहूलियत अनुसार ऑपरेशन करते हैं वहीं नॉर्मल (वैजिनल) डिलीवरी में समय कहीं अधिक लगता है जिसका पहर भी निश्चित नहीं होता है। सार्वजनिक और निजी दोनों ही अस्पतालों में समय के बचाव, और निर्धारण की सी सेक्शन को बढ़ाने में अहम भूमिका है। वहीं, निजी अस्पतालों में इसकी दर बढ़ने के और भी कारण मौजूद हैं, परिवारों को सी सेक्शन को लेकर इतनी जानकारी नहीं होती है इसीलिए जब उनसे कहा जाता है कि बच्चे और मां के लिए ऑपरेशन जरूरी है तब परिवार भी बिन कुछ सोचे डॉक्टर्स, हॉस्पिटल का साथ देते हैं परिणामस्वरूप जो डिलीवरी बिना ऑपरेशन के भी हो सकती हैं उन्हें भी सी सेक्शन से किया जाता है जिससे हॉस्पिटल को आर्थिक लाभ पहुंचता है।
यह आर्थिक लाभ कैसे पहुंचता है? सी सेक्शन के बाद मां और बच्चे को तकरीबन एक सप्ताह अस्पताल में ही रहना पड़ता है और इसके बाद भी महीनों तो कभी साल भर तक दवाएं चलती रहती हैं। इससे बच्चे और मां के स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम भी देखे जा सकते हैं जिनकी चर्चा हम लेख में आगे करेंगे। दवाई, अस्पताल के चक्कर काटने का यह चक्र चलता रहता है जिससे व्यक्ति आर्थिक बोझ का सामना करता है। भारतीय प्रबंधन संस्थान-अहमदाबाद के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, भारत के निजी अस्पतालों में एक वर्ष में 70 लाख में से नौ लाख ‘रोकथाम योग्य’ अनियोजित सी-सेक्शन प्रसव होते हैं, जो मुख्य रूप से ‘वित्तीय प्रोत्साहन’ के कारण होते हैं। इसमें कहा गया है कि इस तरह के ‘चिकित्सकीय रूप से अनुचित’ जन्म न केवल “बड़े पैमाने पर जेब खर्च” का कारण बनते हैं।
यह वित्तीय लाभ एक परिवार को कितनी आर्थिक चोट दे सकते हैं यह जानने के लिए हमने मथुरा, उत्तर प्रदेश के रहने वाली रीना (बदला हुआ नाम) से बात की। वह पांच दिन बाद अस्पताल से प्रसव के बाद पहली औलाद के रूप में एक बच्ची लेकर घर लौटी हैं, उनका घर बीस हज़ार प्रति महीना की आय से चलता है, उनका कहना है कि “चेकअप के दौरान डॉक्टर कहती रहीं कि नॉर्मल डिलीवरी होगी लेकिन जिस दिन दर्द उठे (लेबर पेन) शुरू हुआ और अस्पताल गए तो उन्होंने कहा कि बड़ा ऑपरेशन ही करना होगा। इस सबमें और आगे चलने वाली दवाइयों का खर्च तकरीबन दो लाख होगा और हम कर्ज़ में डूबेंगे।”
सार्वजनिक अस्पतालों की स्वास्थ्य व्यवस्था की लचर हालत देखते हुए लोग निजी अस्पतालों की ओर रुख करते हैं जो अंततः अधिक आर्थिक लाभ के लिए मनमानी करते हैं। ऐसे में महिलाओं में इस सबको लेकर साक्षरता ना होना उन्हें सी सेक्शन के लिए जाने के लिए प्रतिबद्ध कर देती है क्योंकि वे अपना बच्चा किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती हैं। लेकिन क्या सभी सी सेक्शन अचानक “मां/बच्चे को खतरा” बोलकर किए जाते हैं? ऐसा भी नहीं है। मेट्रोपोलिटन, शहरी क्षेत्रों की पढ़ी लिखी उच्च आय वाले परिवारों से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं सी सेक्शन को अपनी मर्ज़ी अनुसार एक तय डिलीवरी तरीके के रूप में चुन रही हैं। यह भी सी सेक्शन की दर बढ़ने का एक कारण है। न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार कॉलेज डिग्री वाली 35.8% महिलाओं के बच्चे सी सेक्शन के माध्यम से पैदा हुए थे, वहीं बिना औपचारिक शिक्षा वाली महिलाओं में यह दर केवल 8.9% थी।
योजनाबद्ध सी सेक्शन महिलाएं मेडिकल कारणों से भी चुनती हैं और आसपास की महिलाओं से वैजिनल डिलीवरी में होती दिक्कतें, दर्द के किस्से सुनने के कारण भी वह भयवश इस तकनीक का चुनाव करती हैं। चयनित सी सेक्शन के पीछे क्या धारणाएं काम करती हैं उसके लिए हमने दिल्ली से रेखा (बदला हुआ नाम) से बात की जिनके पति एक कॉरपोरेट कम्पनी में बतौर मैनेजर काम करते हैं। अस्पताल से आए हुए उन्हें दो सप्ताह हो चुके हैं, सी सेक्शन को उन्होंने अपनी इच्छा अनुसार चुना था। इस संदर्भ में वह बताती हैं, “मैं प्रेग्नेंट होने के बाद अपनी मम्मी, बहनों के पास रहने लगी थी क्योंकि घर में अकेले मेरा मन नहीं लगता था, मैं उनसे प्रसव पीड़ा को लेकर जब भी बात करतीं तो वे कहती कि दर्द तो होता है लेकिन जब बच्चा देखते हैं तो सब दर्द भूल जाते हैं। इससे मैं हल्का सा ही डरती थी लेकिन एक दिन सोशल मीडिया स्क्रॉल करते वक्त मैंने नॉर्मल डिलीवरी की एक महिला की वीडियो देखी और उसकी चीखें सुनकर मैं कांपने लगी। उसी वक्त मैंने अपने हसबैंड से यह कह दिया था कि मैं यह दर्द नहीं झेल पाऊंगी इसीलिए ऑपरेशन से ही डिलीवरी करवाऊंगी।”
रेखा के आर्थिक हालात इस सबको वहन करने की स्थिति में थे इसीलिए ऑपरेशन के बाद भी उन्हें अच्छा खानपान मिला, देख रेख हुई तो वे जल्द ही रिकवर करने की राह पर हैं। लेकिन गरीब महिलाएं सी सेक्शन से इस तरह डील नहीं कर पाती हैं, अभाव के मद्देनजर उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है जिससे उन्हें अधिक गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा हो सकता है। दोनों ही तबकों को लिया जाए तो भी क्या सी सेक्शन से होने वाले बच्चे और मां के स्वास्थ्य पर मंडराते खतरे कम हैं? ऐसा नहीं है। सी सेक्शन किया जाता है, चुना जाता है ताकि मां की जान जाने के खतरे को कम, ख़त्म किया जा सके लेकिन आंकड़े कुछ और कह रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 12 मिलियन गर्भधारण के आंकड़ों के अनुसार, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सिजेरियन सेक्शन के बाद मातृ मृत्यु उच्च आय वाले देशों की तुलना में 100 गुना अधिक है, जिसमें सभी शिशुओं में से एक तिहाई की मृत्यु हो जाती है।
इसका कारण क्या है? इसका कारण है उस परिस्थिति में भी सी सेक्शन करना जब सी सेक्शन की कोई जरूरत ही नहीं थी और बच्चा नॉर्मल डिलीवरी से भी जन्मा जा सकता था। डब्लूएचओ की मेडिकल ऑफिसर डॉक्टर एना पिलर बेत्रन इस संदर्भ में कहती हैं, “सिजेरियन सेक्शन का अत्यधिक उपयोग और कम उपयोग वर्तमान वैश्विक चिंता का विषय है और बहस और अनुसंधान का केंद्र बिंदु है। कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में, अति प्रयोग और अल्प प्रयोग सह-अस्तित्व में हैं, जिससे अति प्रयोग को बढ़ाए बिना जरूरतमंद महिलाओं के लिए सिजेरियन सेक्शन के प्रावधान को बढ़ाना विशेष रूप से कठिन हो जाता है, जो बदले में, महिलाओं को जटिलताओं के उच्च जोखिम में डालता है।” नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ मेडिसिन में छपे सर्वेक्षण के अनुसार, जिन महिलाओं को अनियोजित सिजेरियन प्रसव का अनुभव होता है, उनमें एंडोमेट्रैटिस, बैक्टेरिमिया और मूत्र पथ और घाव संक्रमण सहित संक्रमण का खतरा अधिक होता है।
इस क्षण में यह समझना गलत नहीं होगा कि मेडिकल साइंस की जिस तकनीक महिलाओं को जन्म देते वक्त खतरनाक परिस्थिति से बचाने के लिए उपयोग में लाई गई वह आज उन्हीं महिलाओं के लिए एक गंभीर विषय बन गई है उनका स्वास्थ्य, उनकी आर्थिक स्थिति इससे प्रभावित होती है। इसे जेंडर आधारित हिंसा की श्रेणी में रख कर भी देखा जाए तो गलत नहीं होगा। महिलाएं क्योंकि बच्चा जनने की शारीरिक काबिलियत रखती हैं इसका यह अर्थ और व्यवस्था नहीं बनाई जानी चाहिए कि इस बिनाम पर उनके स्वास्थ्य के साथ, सामाजिक आर्थिक परिस्थिति के साथ खिलवाड़ किया जा सके। एक्सपर्ट्स इसे एक एपिडेमिक की संज्ञा दे रहे हैं, जिस प्रकार से सी सेक्शन बिना मेडिकल इमरजेंसी के भी बड़े स्तर पर किए जा रहे हैं उसे लेकर निसंदेह नीतियों में बदलाव की ज़रूरत है जिसमें सार्वजनिक अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाएं, स्टाफ की बढ़ोतरी से लेकर सी सेक्शन को लेकर, नॉर्मल डिलीवरी को लेकर जागरूकता फैलाई जाए और काउंसलिंग प्रक्रिया भी महिलाओं को प्रदान की जाए।