संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने के लिए संसद के दोनों सदनों में ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ पारित किया जा चुका है। 20 सितंबर को लोकसभा में करीब सात घंटे की चर्चा के बाद इसके पक्ष में 454 और विरोध में दो वोट पड़े थे। 21 सितंबर को राज्यसभा में महिला आरक्षण के पक्ष में 215 सांसदों ने वोट किया। विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ा। दोनों सदनों से पास होने के बावजूद तय प्रक्रिया के मुताबिक, महिला आरक्षण जनगणना और परिसीमन के बाद ही लागू हो पाएगा। ऐसे में विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसे प्रभाव में आने में 5 साल से ज्यादा का वक्त लग सकता है। बावजूद इसके सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी इसका जश्न मना रही है।
कुछ खेमों में महिला आरक्षण के भीतर पिछड़ी जाति की महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित न करने को लेकर नाराज़गी भी है। 27 साल तक संसद में लटके रहे इस बिल को लेकर वामपंथी पार्टियां शुरू से प्रतिबद्ध रहीं। देवगौड़ा सरकार में सीपीआई की गीता मुखर्जी ने ही महिला आरक्षण का मसौदा तैयार किया था। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) की नेता और पूर्व सांसद सुभाषिनी अली भी महिला आरक्षण को लेकर हमेशा से मुखर रही हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया ने विधायिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मुद्दे के इर्द-गिर्द बुने गए सवालों को लेकर सुभाषिनी अली से बातचीत की है:
सवाल: आप लंबे समय से महिला आरक्षण की वकालत करती रही हैं, केंद्र की मोदी सरकार ने उसे हकीकत बना दिया है, अब तो कोई शिकायत नहीं है?
सुभाषिनी अली: महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के लिए यह बिल सताईस साल पहले तैयार किया गया था। उस समय जिस कमेटी ने इसे तैयार किया, उसकी अध्यक्षता सीपीआई की एक मेंबर गीता मुखर्जी ने किया था। उस समय सारे राजनीतिक दल ने यह आश्वासन दिया कि इस बिल को बिना किसी बहस के सर्वसम्मति से पारित कर देंगे। यह 1996 की बात है। देवगौड़ा जी प्रधानमंत्री थे, तब संसद में लेफ्ट के काफी सदस्य थे। उन्हीं के दबाव में पूरी पहल की गई। लेकिन जब बिल पेश हुआ तो सत्ताधारी गठबंधन के नेताओं ने ही इसका प्रबल विरोध किया। उन्होंने बिल की प्रतियां भी फाड़ दी। उनका कहना था कि इससे सिर्फ पढ़ी-लिखी और शहरी महिलाएं ही जीतकर आ पाएंगी। ग्रामीण महिलाओं को इसका फायदा नहीं मिलेगा। उस दिन से लेकर अभी कुछ दिन पहले तक तमाम राजनीतिक दलों ने इस बिल का गला घोंटने का काम किया। अगर यह जिंदा रहा तो इसका श्रेय सीपीआईएम और महिला आंदोलन के कुछ हिस्सों को जाता है। हमने लगातार इसे पारित करने की मांग उठाई, धरना-प्रदर्शन किया। जब भी यह बिल संसद में आता था तब सीपीआई और सीपीआईएम ही अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए व्हिप जारी करते थे।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का सवाल है तो वह लगातार अपने घोषणा पत्रों में महिला आरक्षण बिल पास करने का वादा करती रही। लेकिन बिल न तो वाजपेयी सरकार में पास हो पाया, ना ही 2014 में आई मोदी सरकार ने नौ साल तक कोशिश की। जब भी सवाल उठा कि आप महिला आरक्षण बिल कब ला रहे हैं, तो हमेशा यही जवाब दिया कि सबसे बातचीत करने के बाद, सबकी सहमति के बाद पेश करेगें। लेकिन बातचीत की कोशिश कभी नहीं की गई। और अभी भी जब भाजपा ने इसे पेश करके पारित किया, तब भी किसी से बातचीत नहीं की। किसी को अपना मसौदा तक नहीं दिखाया, इसकी कोई जरूरत नहीं समझी। ऐसे में एक बहुत बड़ा सवाल उठता है कि आखिर इन्होंने इस बिल को किस मकसद से पारित किया है?
मेरा मानना है कि ख़ासतौर से महिलाओं के मुद्दे को लेकर इस समय भाजपा के मुंह पर कालिख पुती है। चाहे वह पहलवानों वाला मसला हो या बिलकिस बानो का, जिन लोगों ने बिलकिस बानो का सामूहिक बलात्कार कर उनके परिवार के लोगों की हत्या कर दी उन सबको भाजपा सरकार ने छोड़ दिया है। साथ ही उन सब स्वागत किया, उन्हें हार-माला पहनाया। कहा गया कि यह संस्कारी ब्राह्मण हैं। वहीं, राम रहीम को जेल से लगातार छुट्टी देते रहते हैं। उसका प्रवचन वगैरह सब चलता ही है, जैसा पहले चलता था। तो इन सारी चीजों ने भाजपा के मुंह पर कालिख तो पोती ही है लेकिन इन्होंने सबसे ज्यादा घृणित काम मणिपुर में किया। मणिपुर की घटना के प्रति वहां की सरकार और उनकी अपनी केद्र सरकार का जो रवैया रहा वह शर्मनाक है। एक समुदाय की आदिवासी महिलाएं, जो ईसाई धर्म की थीं उन्हें पुलिस ने दूसरे समुदाय की भीड़ के हवाले कर दिया। उन्हें निर्वस्त्र कर दिया गया। उनके साथ बालात्कार हुआ। उनको नोंचा गया, हर तरह से अपमानित किया गया। उनके परिवार के लोगों को मार दिया गया। यह सब कुछ चार मई को हुआ। लेकिन वहां की सरकार ने कुछ भी नहीं कहा। हमारे गृह मंत्री वहां गए थे उन्होंने भी कुछ नहीं कहा। जब 19 जुलाई को वीडियो सार्वजनिक हुआ, तब देश को पता चला कि वहां इस तरह की बर्बर घटना हुई है। तब जाकर वहां के मुख्यमंत्री ने कुछ कहा और हमारे प्रधानमंत्री जी ने शायद आधा मिनट का स्टेटमेंट दिया। यह इतनी शर्मनाक बात थी कि मुझे लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को लेकर अगर किसी की राय थी कि वह महिलाओं के लिए कुछ करेंगे। तो इस घटना के बाद वह राय समाप्त हो गई।
महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के लिए यह बिल सताईस साल पहले तैयार किया गया था। उस समय जिस कमेटी ने इसे तैयार किया, उसकी अध्यक्षता सीपीआई की एक मेंबर गीता मुखर्जी ने किया था। उस समय सारे राजनीतिक दल ने यह आश्वासन दिया कि इस बिल को बिना किसी बहस के सर्वसम्मति से पारित कर देंगे। यह 1996 की बात है।
इस पूरी पृष्ठभूमि में, इस बिल के बारे में भारतीय जनता पार्टी ने सोचा होगा कि इसे लाने और पारित करने से उनकी छवि महिलाओं के पक्षधर के रूप में उभरेगी। इतना ही नहीं भाजपा 2024 के चुनाव के लिए मुद्दा भी ढूंढ रही है, क्योंकि वह निश्चित रूप से अपनी जीत को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है। उन्होंने कई और कोशिश भी की, नूंह में दंगा फसाद हुआ। इसके बाद उन्होंने यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की बात कही। लेकिन इसमें भी उनको बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। भाजपा सोच रही थी कि UCC भी हिंदू-मुस्लिम मामला बन जाएगा। लेकिन बन नहीं पाया। पूरे नॉर्थ ईस्ट ने इसका विरोध किया। सिखों, जैनियों, आदिवासियों और दलितों ने भी इसका विरोध किया। हम लोगों ने तो पहले भी किया था। आज भी कर रहे हैं। अंततः उनको भी कहना पड़ा कि हम ‘इन पर’ लागू नहीं करेंगे, हम ‘उन पर’ लागू नहीं करेंगे। इस तरह यह मुद्दा भी उनके लिए निरर्थक हो गया और एक तरह से हाथ से निकल गया। ऐसे में उन्होंने सोचा कि महिलाओं का बहुत बड़ा हिस्सा इस बिल से खुश होकर इनको वोट देने का काम करेगा।
सवाल: इसका मतलब ‘महिला वोट बैंक’ जैसा कुछ है, जिसे भाजपा अपनी तरफ करना चाहती है?
सुभाषिनी अली: हम इन सब बातों में पड़ते ही नहीं है। ना ही इस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। यह जिन लोगों की शब्दावली है, उनकी होगी। लेकिन निश्चित रूप से आम महिलाएं भी चाहती हैं कि उनको भी सांसद-विधायक बनने का मौका मिले। और शायद अगर यह बिल ईमानदारी से पारित किया गया होता और लागू किया होता तो हो सकता है महिलाओं का एक हिस्सा बहुत खुश होता और इसका स्वागत करता। लेकिन हुआ क्या है? हुआ यह है कि बिल पास हुए इतने दिन हो गए हैं लेकिन कहीं भी इसे लेकर खुशियां दिखाई दे नहीं दे रही हैं। कहीं भी इसका स्वागत नहीं दिख रहा है। कही भी सड़कों पर उतरकर महिलाएं जुलूस नहीं निकाल रही हैं कि हमारी बहुत बड़ी जीत हुई है। ऐसा तब होता, अगर वह जीत महसूस करती। तो आखिर क्या वजह है? मुख्य वजह है कि सब लोग जानते है कि 2024 के चुनाव में तो इसका फायदा मिलने वाला नहीं है। महिला आरक्षण को अनावश्यक रूप से जनगणना और परिसीमन के साथ जोड़ दिया गया है।
इस पूरी पृष्ठभूमि में, इस बिल के बारे में भारतीय जनता पार्टी ने सोचा होगा कि इसे लाने और पारित करने से उनकी छवि महिलाओं के पक्षधर के रूप में उभरेगी। इतना ही नहीं भाजपा 2024 के चुनाव के लिए मुद्दा भी ढूंढ रही है, क्योंकि वह निश्चित रूप से अपनी जीत को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं है।
अब जनगणना कब होगी? सरकार कौन सी आएगी? अगर उनकी सरकार आई, तो उन्होंने पहले ही जनगणना को तीन साल आगे बढ़ा दिया है, बाद में भी बढ़ा सकते हैं क्योंकि जाति जनगणना का मुद्दा बहुत तेजी के साथ उठाया जा रहा है। तो ऐसी हालत में वह जनगणना कब करेंगे ठिकाना नहीं है। जो परिसीमन होने वाला है, वह तो और भी विवादित होगा। परिसीमन से दक्षिण भारत के राज्यों की सीटें या तो कम होगी या ज्यों की त्यों रहेंगी क्योंकि उन्होंने जनसंख्या पर नियंत्रण करने का काफी सफल प्रयोग किया है। वहां जनसंख्या या तो स्थिर हो गई है या दर कम हो गई है। लेकिन उत्तर भारत के राज्यों ने ऐसा नहीं किया है। तो उनकी सीटें बहुत अधिक बढ़ने वाली है। जैसे उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जा रहा है कि लोकसभा की 122 सीटें हो जाएंगी, जो अभी 80 है, तो इसको दक्षिण भारत क्यों स्वीकार करेंगा। तो परिसीमन को लेकर बहुत झगड़ा झंझट होने वाला है। ऐसे में 2029 का भी चुनाव निकल जायेगा। उसके बाद महिला आरक्षण कब लागू होगा, कब नहीं, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। ऐसे में महिलाएं कैसे खुश होगी, अगर उन्हें आने वाले हालिया चुनावों में इसका फायदा ही नहीं मिलेगा। इसलिए इस बिल का स्वागत करने और खुश होने का कोई मतलब ही नहीं बनता है।
अगर लोग चाहते हैं कि कम से कम 2029 तक यह बिल क्रियान्वयन में आ जाएं तो भाजपा को सत्ता से हटाना होगा। अगर वो 2024 में आएंगे तो पता नहीं कब तक लटका रहेगा। अगर इनकी जगह विपक्षी दलों की सरकार बनती है तो उन पर कम से कम दबाव बनाया जा सकता है। मैं आपको एक बात बताती हूं, जो बहुत कम लोग नोट कर रहे हैं। इस बिल के साथ एक पन्ना और भी जोड़ा गया, जिसमें उन्होंने बताया कि वह यह विधेयक क्यों ला रहे है। उस पन्ने में लिखा है कि हम महिला सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसमें उन्होंने दो उदाहरण दिए कि हम उज्जवला गैस योजना और शौचालय निर्माण योजना लेकर आए थे। और अब हम इन सभी कामों को सही जगह पहुंचाने के लिए आरक्षण विधेयक ला रहे हैं। उन्होंने जिन दो योजना का नाम लिया है, उसके खिलाफ महिलाओं में सबसे ज्यादा गुस्सा है। खासतौर से उत्तर भारत की ग्रामीण महिलाओं के लिए वो योजनाएं मुसीबत बन गई हैं। उज्जवला योजना के तरह मुफ्त सिलेंडर प्राप्त करने की जो शर्तें रखी गई है वो कोई पूरा नहीं कर सकता है। ऐसे में तो वो तो मिल नहीं रहा और दाम इतना बढ़ा दिया है कि बाजार से खरीदना असंभव है। तो एक बार फिर वो चूल्हा ही फूंक रही हैं।
जहां तक शौचालय निर्माण की बात है। तो अब यह मानी हुई बात है कि जितने शौचालय निर्माण के दावे किए जा रहे हैं, उतने तो नहीं बने हैं। अभी आपने देखा होगा कि नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के इंचार्ज को नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने यह बात कही कि कागज पर जितने शौचालय दिखाए जा रहे हैं, उतने बने नहीं हैं। असलियत में स्थिति ज्यादा भयानक है। गरीबों को शौचालय बनाने के लिए सरकार की तरफ से जो पैसे मिलते हैं, वह काफी नहीं है। उसमें से उन्हें घूस भी देना पड़ता है। अब अगर इसे भी छोड़ दें और मान लें कि शौचालय बन गया तब भी, उसका इस्तेमाल पानी और सीवर लाइन कनेक्शन के बिना तो नहीं किया जा सकता। तो सिर्फ शौचालय निर्माण से क्या होगा। यह एक बहुत बड़ा धोखा है, जिसे लेकर औरतें नाराज हैं।
जिन दो योजनाओं का उन्होंने उदाहरण दिया है, उसके बारे में आपने जान लिया। अब इसी से लोगों को समझ जाना चाहिए कि जो धोखा पहले की दो योजनाओं में मिला है, उतना ही बड़ा या उससे बड़ा धोखा अब मिलने वाला है। यही भारतीय जनता पार्टी के काम करने का तरीका है। वो सोचते है कि चिट भी मेरी पट भी मेरी। वो सोचते है कि औरतों भी पट जाएं और पुरुष प्रधान समाज भी नाराज न हो। उन्होंने समझा था कि हमारी 10 उंगली घी में है। लेकिन बिल्कुल उल्टा पड़ गया है और मुझे नहीं लगता इसका उनको किसी भी प्रकार से लाभ मिलने वाला है।
सवाल: क्या आप भी महिला आरक्षण के भीतर पिछड़ी जाति की महिलाओं का कोटा सुनिश्चित करने की पक्षधर हैं?
सुभाषिनी अली: नहीं, नहीं हम बिल्कुल नहीं हैं। देखिए, मैं अपनी पोजिशन बिल्कुल स्पष्ट कर दूं। हमारी यह इच्छा है कि एक तिहाई महिलाएं विधानसभा और लोकसभा में दिखें। वे परकटी हैं या लम्बे बाल वाली हैं या शहरी हैं या देहाती हैं या ट्रांस हैं, हमको इससे कोई मतलब नहीं है। लेकिन, कुछ संवैधानिक प्रणालियां होती हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कोटा संवैधानिक रूप से फिक्स है। अब अगर महिला आरक्षण आता है तो एक तिहाई सीटें दलित और आदिवासी महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। यह ऑटोमेटिक है और यह होगा। अब अगर आपको ओबीसी महिलाओं के लिए कोटा चाहिए तो आपको ओबीसी कोटा पारित करना पड़ेगा। पहले आपको पुरुष और महिला दोनों के लिए ओबीसी कोटा लाना पड़ेगा। हमको कोई दिक्कत नहीं है। आप अपना ड्राफ्ट लाइए। लेकिन क्यों नहीं ला रहे। दरअसल, लोग अपना होमवर्क नहीं कर रहे आज कल, उनकी संख्या लोकसभा और विधानसभाओं में 40 प्रतिशत के आसपास है। अगर वो आरक्षण की मांग करेंगे तो 27 प्रतिशत मिलेगा। अगर आप स्थानीय निकाय चुनाव में देखें, जहां-जहां ओबीसी आरक्षण है, तो पता चलेगा 27 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। उस 27 प्रतिशत का एक तिहाई महिलाओं को मिलता है। तो वह जो कह रहे है कि वहां है, यहां नहीं है। तो यहां भी करवा लीजिए हमको कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन हम तो पार्लियामेंट में रहे हैं। इन लोगों के साथ बातचीत भी की है। वे प्राइवेटली बताते है कि हम 40 प्रतिशत हैं। तो फिर दिक्कत क्या है? उनको दिक्कत यह है कि वो महिला आरक्षण ही नहीं चाहते। क्यों नहीं चाहते? क्योंकि उनको डर है कि कहीं उनकी सीट न आरक्षित हो जाएं।
अगर लोग चाहते हैं कि कम से कम 2029 तक यह बिल क्रियान्वयन में आ जाएं तो भाजपा को सत्ता से हटाना होगा। अगर वो 2024 में आएंगे तो पता नहीं कब तक लटका रहेगा। अगर इनकी जगह विपक्षी दलों की सरकार बनती है तो उन पर कम से कम दबाव बनाया जा सकता है।
वो कहते है कि हम पिछड़े हैं, अपने जातीय अधिकारों के लिए बोलने वाले हम कम लोग हैं। अगर हमारी सीटें आरक्षित हो जाएंगी तो कौन बोलेगा? इसका मतलब है कि उनको विश्वास नहीं है कि जो पिछड़ी जाति की महिलाएं हैं उनमें क्षमता है। वे इस तरह की बातें करते हैं। आज के पार्लियामेंट में एक तिहाई रिजर्वेशन होता है तो उसमें 181 महिला आएंगी। उसमें से एससी और एसटी की सीटें हटा दीजिए तो करीब 150 सीटें बचेंगी। तो क्या 150 पढ़ी-लिखी पिछड़ी जाति की महिलाएं नहीं हैं पूरे हिंदुस्तान में। बकवास की बात कर रहे हैं यह लोग, झूठी बात कर रहे हैं। मैं फिर कह दूं मुझे कोई आपत्ति नहीं (महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा को लेकर) है। आप लाइए ओबीसी के लिए आरक्षण, उसमें से एक तिहाई सीटें ओबीसी महिलाओं को मिलेगा, मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है। लेकिन अगर आप नहीं लायेंगे तो ज्यादा ओबीसी महिलाएं जीत कर आएंगी। वो क्यों? क्योंकि हमारे देश में टिकट प्राप्त करने और वोट प्राप्त करने में जाति एक बहुत बड़ा फैक्टर होता है। ऐसे में अगर ओबीसी वर्ग का पुरुष किसी सीट से लड़ता और जीतता है और महिला आरक्षण की वजह से वह सीट आरक्षित हो जाता, तो ओबीसी वर्ग की महिला भी ही उस सीट से विनिंग कैंडिडेट होगी। यह लॉजिक लोग समझ नहीं रहे हैं। और सिर्फ वोट की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए इस तरह की बात कर रहे है। इसी वजह से हमारे आरक्षण बिल का नुकसान होता है और उसे खटाई में डाल दिया जाता है। यह हमारी शिकायत है।
सवाल: महिला आरक्षण के भीतर पिछड़े समुदाय के लिए आरक्षण की मांग करने वालों का ऐसा मानना है कि अगर महिला आरक्षण बिना ‘Quota Within Quota’ के लागू हुआ, तो विधायिका में सवर्णों का वर्चस्व बढ़ जाएगा, इस आशंका को आप कैसे देखती हैं?
सुभाषिनी अली: कैसे बढ़ जाएगा? उनको वोट कौन देगा? अगर सवर्णों को ही पूरा देश वोट देने को तैयार होता तो सवर्णों की संख्या अभी बढ़ गयी होती। मंडल के बाद उनकी संख्या घटी है। लोग अब आदमी-औरत नहीं देख रहे हैं। वो जाति को वोट दे रहे हैं। लोग जिस जाति के पुरुष को वोट देते रहे हैं, उस जाति की महिला को भी देंगे। आरोप लगाने वाले लोग भी जानते है कि उनका आरोप बेकार है। दूसरे लोग इस चक्कर में फंस रहे हैं।
सवाल: संसद में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) ने ना सिर्फ महिला आरक्षण का विरोध किया, बल्कि उसके खिलाफ वोट भी किया, उनकी मांग है कि महिला आरक्षण के भीतर मुस्लिम महिलाओं को कोटा फिक्स किया जाए। इस मांग पर आपकी क्या राय है?
सुभाषिनी अली: कभी उन्होंने किसी मुस्लिम महिला को टिकट नहीं दिया। खैर छोड़िए। अगर वह आरक्षण चाहते हैं तो कानून लाए। फिर वह कहें कि मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित होनी चाहिए। क्या यह संवैधानिक है? संविधान के मुताबिक, धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दे सकते। दरअसल, आप यह बात इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि आपको यह बिल ही पसंद नहीं है। एक स्पीकर थे। महिला आरक्षण के बिल का विरोध देखकर उन्होंने कहा था कि अगर मैं सभी पुरुष सांसदों को यह आश्वासन दे सकूं कि आपकी सीट आरक्षित नहीं होगी तो सब इस बिल को पास कर देंगे। ये सब अपनी सीट को लेकर घबरा रहे हैं कि कहीं उनकी सीट आरक्षित न हो जाए। मैं भी यह कहना चाहती हूं कि उन्हें (पुरुष सांसदों) महिलाओं से कोई मतलब नहीं है। उनमें से बहुत से पुरुष प्रधानता से ग्रस्त हैं। इसके अलावा सब अपनी सीट को लेकर डरते हैं।
सवाल: ऐसा कहा जा रहा है कि महिला आरक्षण के माध्यम से शुरुआत में जो महिलाएं आएंगी, वो राजनीति में पहले से सक्रिय और मजबूत परिवारों से होंगी, यानी परिवारवाद बढ़ेगा और इसका फायदा आम महिलाओं को जल्दी नहीं मिलेगा?
सुभाषिनी अली: गांधी परिवार क्या है? पुरुष भी तो राजनीतिक परिवारों के ही आ रहे हैं। पुरुषों को लेकर किसी को कोई शिकायत क्यों नहीं है। औरतों के मामलों में सारी शिकायत आ रही है, इसका क्या मतलब है। हां, परिवार की आएंगी। वैसे ही आएंगी, जैसे मर्द आ रहे हैं। जितना काम मर्द जनता के लिए करते हैं उतना ही महिलाएं भी करेंगी। तो यह सब बातें सिर्फ महिलाओं के साथ ही क्यों जोड़ी जा रही है। जब महिलाओं की बारी आती है, तब ही सारे सवाल क्यों आते हैं। आपके स्टैंडर्ड अलग क्यों है। जब आप पुरुष जन प्रतिनिधियों को बर्दाश्त कर रहे हैं तो महिलाओं को बर्दाश्त करने में क्या समस्या है। इनसे (पुरुषों) तो फिर भी थोड़ी बहुत ठीक होंगी। शायदा हत्यारी, बलात्कारी तो नहीं ही होंगी।