इंटरसेक्शनलजाति पितृसत्ता और जातिवाद की दलित महिलाओं पर हिंसा की दोहरी मार

पितृसत्ता और जातिवाद की दलित महिलाओं पर हिंसा की दोहरी मार

भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जाति समुदाय पूरे भारत में मौजूद है और देश की आबादी का 16.6% शामिल हैं। उत्तर प्रदेश (21%), पश्चिम बंगाल (11%), बिहार (8%) और तमिलनाडु (7%) के बीच देश की कुल अनुसूचित जाति की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। दलित महिलाओं को उनकी जाति, लिंग और खराब आर्थिक स्थिति के कारण कई प्रकार के भेदभावों का सामना करना पड़ता है।

उत्तर प्रदेश में प्रयागराज में मदद मांगने वाली दलित महिला के साथ सब इंस्पेक्टर ने किया बलात्कार, बिहार में दलित महिला को निर्वस्त्र करके पिटाई की, भोपाल में दलित महिला के साथ छेड़खानी और जातिसूचक शब्दों से किया अपमानित, ये तीनों ख़बरें बीते दो हफ्ते में दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के वे मामले हैं जो दर्ज हुए हैं। भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ता अपराध एक बहुत बड़ी समस्या है। देश में कुल महिला आबादी का 9.78 करोड़ दलित महिलाओं को दोहरी हिंसा का सामना करना पड़ता है। चूंकि उनकी लैंगिक पहचान महिला और जातीय पहचान दलित है। इस कारण उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है।

साल 2007 से 2017 के बीच, दलितों के ख़िलाफ़ अपराध में 66 प्रतिशत की वृद्धि हुई। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2021 के मुताबिक़ देश में दलित और आदिवासी महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार के मामलों में बढ़ोतरी हुई। न्यूज़क्लिक में छपी ख़बर के अनुसार नाबालिग दलित लड़कियों के ख़िलाफ़ बलात्कार, यौन शोषण, अपहरण के मामलों में 16.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ हर दिन दस दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार की घटनाओं के मामले दर्ज होते हैं। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जाति समुदाय पूरे भारत में मौजूद है और देश की आबादी का 16.6% शामिल हैं। उत्तर प्रदेश (21%), पश्चिम बंगाल (11%), बिहार (8%) और तमिलनाडु (7%) के बीच देश की कुल अनुसूचित जाति की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। दलित महिलाओं को उनकी जाति, लिंग और खराब आर्थिक स्थिति के कारण कई प्रकार के भेदभावों का सामना करना पड़ता है।

कास्ट बेस्ड सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट इम्प्यूनिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार के मामले में पुलिस एफआईआर दर्ज करने में देरी करती है। रिपोर्ट में अध्ययन किए गए केस में निकलकर आया है कि पुलिस पर आरोपी के परिवार और गांव के सरपंच द्वारा दवाब बनाया जाता है। ऐसे में पुलिस सर्वाइवर और उसके परिवार को बिलकुल सहयोग नहीं देती है।

ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और दलित महिलाएं

“मनुस्मृति” के मुताबिक़ समाज मे चार वर्ग हैं जिसमे जो लोग शस्त्र और वेदों का ज्ञान रखते है ‘ब्राम्हण’, जो लोग जमीन पर शासन करते हैं तथा युद्ध मे लड़ाई करते हैं ‘क्षत्रिय‘, जिनका पेशा व्यापार करना है वे ‘वैश्य’ तथा जो इन सब लोगों की सेवा करने वाले ‘शूद्र’ कहा गया है। इस ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के तहत दलित समाज के लोग सभी लोगों के साथ उठ-बैठ नहीं सकते है न ही उनको पढने-लिखने का अधिकार है। इस व्यवस्था में समाज में जाति के आधार पर लोगों से उनके मूल अधिकारों को छीना जाता आ रहा है। दलित महिलाओं को भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के तहत घर और बाहर दोनों जगह हिंसा का सामना करना पड़ता है। भारतीय ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक सामाज में दलित महिलाएं तथाकथित ऊंची जाति के पुरुषों के द्वारा दलित होने, धनी और ताकतवर पुरुषों के मुकाबले गरीब होने और अन्य समुदाय के पुरुषों के द्वारा अपनी लैंगिक और जातिगत पहचान के कारण यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। बलात्कार को लंबे समय से सत्ता, भेदभाव और अपनी ताकत को कायम बनाए रखने के लिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।

तस्वीर साभारः रितिका बैनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

हमारे समाज मे औरतों को घर की इज़्ज़त समझा जाता है। जब महिलाओं के साथ यौन हिंसा होती है तो उसे घर, परिवार की इज़्ज़त से भी जोड़कर देखा जाता है। जब हम दलित महिलाओं की बात करते है तो जाति को वर्चस्व से जोड़कर देखना बहुत आवश्यक है। तथाकथित ऊंची जाति के पुरुषों के द्वारा दलित महिलाओं का बलात्कार करके दलित परिवार और समाज को नीचा दिखाया जाता है। यह संदेश देने के कोशिश की जाती है कि उनका असली मालिक कौन है। उत्तर प्रदेश के हाथरस ब्लात्कार के मामले में वर्चस्व और लैंगिक हिंसा के संबंध को समझा जा सकता है।

साल 2020 हाथरस में हुए घटनाक्रम के मामले में देखा कि अपराधी ठाकुर लोग उस दलित लड़की को पहले से ही जानते थे तथा वह आपस में पड़ोसी थे। दोनों परिवारों का एक दशक से ज्यादा जमीन को लेकर कुछ झगड़ा था। दलित परिवार की जमीन को लेकर ठाकुरों के साथ लंबे समय से कहा-सुनी होती आ रही थी। इस तरह की परिवार के पुरुषों के मामले में ठाकुर जाति के लोगों ने दलित परिवार की लड़की के साथ यौन हिंसा की। उन्होंने उस दलित महिला का सामूहिक बलात्कार किया तथा उसका गला घोंटकर हत्या भी की।

इतना ही नहीं बाद में प्रशासन के रवैये, पुलिस का बलात्कार मानने से इनकार, धीमी जांच, मीडिया की रिपोर्टिंग सबको जाति के लैंस से देखने की बहुत आवश्यकता है। हालांकि इस मामले के तहत यह बात भी बहुत उठाई गई कि बलात्कार के मामले में जाति को क्यों जोड़ा जा रहा है। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा और जाति को समझने के लिए हम फूलन देवी को नहीं भूल सकते हैं। मल्लाह समुदाय से ताल्लुक रखने वाली फूलन के साथ तथाकथित ऊंची जाति के समुदाय के लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया। वर्चस्व की लड़ाई में हमेशा औरतों का शोषण किया जाता आ रहा है और इसमें भी दलित महिलाओं को सबसे ज्यादा सामना करना पड़ता है।        

तस्वीर साभारः रितिका बैनर्जी फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए

डॉ. रजत मित्रा (क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट, तिहाड़ जेल) एक कार्यक्रम में बताते है कि जब किसी दलित औरत के ख़िलाफ़ यौन हिंसा होती है तो वह केवल उसके प्रति नहीं होती बल्कि पूरे दलित समाज के प्रति होती है क्योंकि जब वह अपने समाज के लोगों से हिंसा के बारे में बात करती है तो उस समुदाय की सारी औरतें उस दर्द को महसूस कर पाती है। बरसों से दलितों के प्रति अत्याचार का होता आ रहा है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहता है। तथाकथित ऊंची जाति के लोग दलित औरतों को बदला लेने, उनका मुह बंद कराने तथा उन्हें नीचा दिखाने के लिए उनके साथ दुर्व्यवहार करते है और यह समझते है कि यह उनका अधिकार है वहीं लोग दलित समुदाय के लोगों के हाथ से दिया हुआ पानी तक नहीं पीते।

दलित महिलाओं के प्रति हिंसा उनके सफलता के अवसरों, विकल्पों और स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए तथा उनकी गरिमा और स्वाभिमान पर हमला करने के लिए ही नहीं उपयोग किया जाता है बल्कि उनके अधिकरों को भी खत्म करने के लिए व्यवस्थित रूप से उपयोग किया जाता है। बलात्कार को एक हथियार और ताकत की तरह समुदाय की ताकत और अधिकार के तौर पर पूरे समुदाय को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा है। ज्योति दिवाकर अपने रिसर्च पेपर ‘सेक्स एज ए वेपन टू सैटल स्कोर अगेंस्ट दलिल्स’ में लिखती है दलित महिलाओं को सोशल स्ट्रक्चर के तहत आसानी से निशाना बनाया जाता है। उन्होंने कहा है कि बलात्कार भूमि विवाद, समूह प्रतिद्धंद्धंता और सबसे ज्यादा जातीय प्रभुत्व बन जाता है।

देश में कुल महिला आबादी का 9.78 करोड़ दलित महिलाओं को दोहरी हिंसा का सामना करना पड़ता है। चूंकि उनकी लैंगिक पहचान महिला और जातीय पहचान दलित है। इस कारण उन्हें हिंसा और शोषण का सामना करना पड़ता है।

न्याय मिलने में भी देरी का सामना

भारतीय समाज के जातिवादी व्यवस्था में दलित के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध के लिए संवैधानिक प्रावधान है। दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन शोषण और बलात्कार के मामलों में सजा के प्रावधान है। कानून से बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं है। कई तरह की रिसर्च में यह बात भी सामने आ चुकी है कि दलित महिलाओं को अपने ख़िलाफ़ होने वाले अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। कास्ट बेस्ड सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट इम्प्यूनिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ बलात्कार के मामले में पुलिस एफआईआर दर्ज करने में देरी करती है। रिपोर्ट में अध्ययन किए गए केस में निकलकर आया है कि पुलिस पर आरोपी के परिवार और गांव के सरपंच द्वारा दवाब बनाया जाता है। ऐसे में पुलिस सर्वाइवर और उसके परिवार को बिलकुल सहयोग नहीं देती है। उनपर लगातार दबाव बनाया जाता है और धमकियां दी जाती है। दलित महिला के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के मामले में पुलिस एससी-एसटी ऐक्ट के तहत रिपोर्ट दर्ज करने में भी देरी करती है। इस ऐक्ट के तहत अग्रिम जमानत का कोई प्रावधान नहीं होता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य यह सुनिश्चित करता है कि “केवल धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव नहीं किया जा सकता।” अनुच्छेद 14 के अनुसार “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र के भीतर कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा” कानून का भी पालन करता है। दलित महिलाओं और लड़कियों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा, बलात्कार की हिंसा लगातार बढ़ रही है। दलित महिला कार्यकर्ता तेजी से अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो रही हैं लेकिन स्थिति में बदलाव लाने के लिए अभी बहुत से मोर्चों पर मजबूती से लड़ना होगा ताकि लैंगिक हिंसा और जातिगत भेदभाव को जड़ से खत्म किया जा सके।


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