गाँव में दुर्गापूजा के पंडाल में हर साल विमला देवी पर ‘देवी’ आती हैं और वह झूम-झूमकर नाचने लगती हैं और आखिरकार खूब ज़ोर-ज़ोर का जयकारा लगाते हुए बेसुध हो जाती हैं। बहुत देर बीत जाने पर वह एकदम सामान्य सी लगने लगतीं हैं जैसे थोड़ी देर पहले की उनकी क्रियायों का उन्हें कोई ज्ञात नहीं। गाँव में जहां कहीं देवी-देवताओं का भजन आदि होने लगता वह इसी तरह झूमने लगतीं। कभी-कभी देवथानों पर भी वह नाचते-गाते बहुत उग्र होकर बेहोश हो जाती हैं। नवरात्रि पर्व के दिनों में गांवों में अक्सर महिलाओं को देवी आती हैं। ये कुछ ऐसा जैसा पूजा-पाठ करते हुए अक्सर वे आँखे बंद करके झूमने लगतीं हैं कभी-कभी ये झूमना बहुत ज्यादा वेग में हो जाता है फिर थोड़ा आक्रोश भी दिखता है। ख़ैर ये क्रियाएं विभिन्न प्रकार से होती दिखतीं और ये देवी-देवता ,ब्रह्म ,पीर आने की क्रियाएं गाँव में स्त्रियों पर ही नहीं पुरुषों पर भी आती हैं। शहरों में भी पूजा-पाठ आदि अनुष्ठानों पर लोगों में देवी-देवता आने दृश्य दिखता है।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले की रहने वाली सुशीला देवी को साल में दोनों नवरात्रि शारदीय नवरात्रि और चैत्र नवरात्रि में देवी आती हैं। जिसमें वह पहले गाना शुरू करती हैं फिर रोना फिर बहुत ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगती हैं। इसके बाद वह अपने पूरे गाँव का भविष्य बताने लगती हैं। जैसे किसको बेटा होगा, किसकी नौकरी लगेगी, कौन गाँव की प्रधानी जीतेगा आदि। फिर वो भूत, प्रेत बाधा आदि की बातें बताने लगती हैं। लोग उनको घेरे रहते हैं सब अपने जीवन को लेकर उनसे सवाल करते हैं जिसका वह हमेशा कुछ गोलमाल जवाब देती हैं। हालांकि, इनमें से अधिकतर लक्षण मानसिक बीमारियों के अंतर्गत आते हैं लेकिन हमारे समाज में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों में घोर निराशा है लोग इस पर बात तक करना नहीं पसंद करते ।
इसी तरह गाँव में कभी-कभी पुरुषों को भी देवी, देवता आते हैं जिसमें वह भी इसी तरह की क्रियाएं करते हैं। जैसे पहले झूमना फिर कुछ देवी देवताओं के नामों का आह्वान फिर आक्रोशित व्यवहार। गाँव-जवार के लोगों को घर-घराने ,पड़ोस के लोगों को भला-बुरा कहना। एक तरह से कुछ प्रत्याशित कुछ अप्रत्याशित व्यवहार करना। महिलाओं की तरह पुरुष भी अपने आसपास के लोगों से जुड़ी होनी-अनहोनी बताने लगते हैं। विख्यात मनोरोग चिकित्सक डॉ. प्रदीप पाटील के लेख में (जिसका हिंदी अनुवाद तर्कशास्त्री उत्तम जोगदंड ने किया है ) बताते हैं कि देवी सिर्फ स्त्रियों पर आती हैं। मुझे अचरज हुआ लेख पढ़कर क्योंकि मैं लगातार गाँव में ही रहती हूं। मैंने देखा है गाँवों में स्त्री और पुरुष दोनों पर ‘देवी-देवता’ आते हैं। इस तरह उस लेख की ये बात निराधार है। गाँव के जीवन से पूरी तरह न परिचित होने के कारण इस तरह की बातें अपने अनुमान से लिख दी जाती हैं।
गाँव में खूब दिखता है स्त्री-पुरुष ही नहीं, यहां तक कि किशोर उम्र के लड़के और लड़कियों पर भी देवी-देवता आने के दृश्य दिखते हैं। वे पूजा के पंडालों में या गाँव घर के मंदिरों में कभी कभी घर में ही जहां देवी देवता की पूजा होती है वहां झूमने लगते हैं और फिर थोड़ी देर में नाचने गाने लगते हैं। देखा गया है कि अक्सर उस पल उनको होश नहीं रहता अपनी देह का अपने कपड़े या व्यवहार का। जैसे वे आसपास के पूरे वातावरण से वो अनिभिज्ञ हो जाते हैं। उन्हें एक अदृश्य शक्ति के वसीभूत होने का भ्रम हो जाता है। कभी-कभी ये भी दिखा है कि कुछ लोग स्त्री पुरुष या लड़के लड़कियां जानबूझकर ये देवी देवता आने का स्वांग करने लगते हैं वे दिखाते हैं कि उनको होश नहीं है
ये अवस्थाएं और दृश्य बहुत अलग-अलग किस्म के होते हैं लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से और मनोविज्ञान के आधार पर इनका अध्ययन करने से दिखता है कि ये सारी स्थितियां मनुष्य की सामाजिक और आर्थिक अवस्थाओं से भी संचालित होती हैं। और कभी-कभी संवेदनाओं का आवेग एक ऐसी चेतना से प्रभावित होता है जिसे हम सत्य मानते हैं जिस पर हमें विश्वास होता है और को उसी दिशा में क्रियान्वित होने लगती हैं।
गाँव में जिन लोगों पर देवी देवता आते हैं ऐसे लोग के जीवन उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर अध्ययन करते हुए मैंने देखा कि ज्यादातर ऐसे लोगों में देवी-देवता आने की अवस्था देखी गई है जिनको समाज में अक्सर गौण परिस्थितियों में देखा जाता है तो ऐसे में वो कुछ चमत्कार जैसी चीजें करके समाज की दृष्टि में विशेष होने की या दिखने की कोशिश करते हैं और इससे उनकी सामाजिकता में कुछ बदलाव भी होता है। उत्तर प्रदेश के परसपुर गाँव के महिंदर (बदला हुआ नाम).गाँव में कुछ पूजा-पाठ और झाड़फूंक का काम करते थे। लेकिन गाँव मे उन्हें कोई कायदे का पंडित नहीं मानता था बाद में देखा गया कि हर नवरात्रि पर्व आदि के अवसर पर उन पर देवी आने लगीं और वे लोगों को उनका भविष्य बताने लगे। पहले गाँव में लोग उन पर हँसे फिर धीरे-धीरे उनके तमाम पाखंड को चमत्कार की तरह देखने लगे। इस तरह आज उन्हें लोग गाँव में पूजा-पाठ, झाड़-फूंक का बड़ा पंडित मानने लगे।
इसी तरह मैं गाँव में स्त्रियों की भी स्थिति देखती हूं। उनकी इच्छाओं का यहां इतना दमन है कि वे इच्छाएं जाकर उनके अवचेतन में बैठ जाती हैं। ये भी स्त्रियों में देखा गया है कि वे जानबूझकर भी इस तरह की हरकतें करती हैं लेकिन उसके पीछे कहीं न कहीं उनकी इच्छाओं के दमन का ही आधार रहता है। समाज में बहुत सारी स्त्रियां हैं जो अपनी विशिष्ट पहचान चाहती हैं सामाजिक और पारिवारिक सम्मान चाहतीं हैं। लेकिन हमारे समाज की संरचना में जिस तरह से स्त्रियों का दमन है वहां उनको उनकी इच्छाओं के अनुरूप मिल नहीं पाता। ये इच्छाएं फिर विभिन्न प्रकार से काम करती हैं। अक्सर तो इन घरेलू स्त्रियों के अपने अवचेतन में दबी इच्छाओं का ज्ञान भी नहीं रहता।
कभी-कभी स्त्रियों की यौन-दमित इच्छाएं भी इसमें कार्य करती हैं क्योंकि मनुष्य इच्छाओं और संवेदनाओं से बना होता है और हमारी सामाजिक संरचना में उसका लगातार दमन ही होता है। ऐसी परिस्थितियों में वे इच्छाएं किसी और रूप में बाहर निकलती हैं। जैसे अक्सर देखा गया है कि स्त्रियां या किशोर उम्र की लड़कियों में जब देवी-देवता आते हैं तो अपने आसपास के लोगों के कुछ निजी संबंधों को लेकर समाज में जिन्हें अनैतिक माना जाता है अप्रत्याशित रूप से बेहद अवांछित बातें करने लगती हैं। जैसे अक्सर देखा गया है कि स्त्रियां या किशोर उम्र की लड़कियों में जब देवी-देवता आते हैं तो अपने आसपास के लोगों के कुछ निजी संबंधों को लेकर समाज में जिन्हें अनैतिक माना जाता है अप्रत्याशित रूप से बेहद अवांछित बातें करने लगती हैं।
अगर बात सिर्फ स्त्रियों पर देवी आने को लेकर की जाए तो उसके भीतर बहुत से सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक कारण मिलते हैं। गाँव हो ज्यादातर शहरी परिवेश में भी स्त्रियों के अधिकार सीमित हैं। स्त्रियाँ बहुत कुछ वो नहीं कर सकती जो पुरुष करते हैं अर्थात समाज में वह आज़ादी जो पुरुषों को मिली है वह स्त्रियों को नहीं मिली है। इसी तरह परिवार में भी लगभग यही स्थिति है गाँव में तो स्त्रियाँ जो गवईं भोज आदि होते हैं वहां भी शामिल नहीं हो पातीं क्यों कि गाँव में यही चलन है कि स्त्रियां घर में ही रहें ससुराल और मायके के सिवा उनके पास तीसरी कोई जगह नहीं होती जहां आ जा सकें। आर्थिक कारण भी बहुत कुछ इस तरह के अवचेतन मन के लिए जिम्मेदार होता है क्योंकि स्त्रियाँ हमेशा आर्थिक रूप से कमजोर होती हैं । इस तरह समाज में शक्ति के जो आधार हैं स्त्रियों के पास नहीं होते तो एक चमत्कारिक शक्ति का स्वांग करती हैं और हमेशा तो ये स्वांग भी नहीं होता कभी-कभी अवचेतन होता है जो सदियों की कल्पना जगत के प्रभाव में मन से बाहर निकलता है।
कोई भी मानसिक स्थिति जब तक व्यक्ति में सीमित है तो व्यक्ति का नुकसान करती है लेकिन जब वह समाज में चलन या एक काल्पनिक सत्य की तरह बरती जाने लगती है तब वो समाज का नुकसान करती है। देवी -देवता , ब्राह्म भैरव आना या पीर जिन्न का मनुष्यों पर आना एक धंधा व्यापार भी बन गया है। जहां लोगों को अंधविश्वास और झूठी आस्था के अंधेरे में और गहरे धकेल दिया जाता है। उनके यहां खूब चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं । मोटी रकम ली जाती है। मानसिक रूप से बीमार लोगों को भूत प्रेत बाधा या जिन्न आदि का प्रकोप बताकर लूटा जाता है।आज तो खुले आम यूट्यूब से लेकर तमाम शोषल मीडिया पर अंधविश्वास की दुकानें खुली हैं जो समाज को गर्त में धकेल रहा है लेकिन प्रशासन इसके खिलाफ शख्त कारवाई नहीं करता ।जबकि मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से ऐसी जगहों पर लोगों को और बीमार कर दिया जाता है। उन्हें वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य निर्देश की जरूरत होती है न कि झाड़फूंक करते ओझा तांत्रिक और पंडित पीर आदि की। देवी-देवता आना हमेशा आस्था से जुड़ा या अवचेतन संवेग से जुड़ा विषय नहीं होता कभी-कभी मनुष्य की चालाकी और धूर्तता भी होती है।