इंटरसेक्शनलजेंडर नये-नये धार्मिक कर्मकांड और उन में स्त्रियों की भूमिका

नये-नये धार्मिक कर्मकांड और उन में स्त्रियों की भूमिका

स्त्री को प्राचीन काल से ही धर्म और परंपरा की जकड़ में स्थापित किया गया था। नये समय में इस जकड़ के नये-नये ढांचे बन गए और स्त्री उसमें किसी न किसी रूप में आज भी बंधी हुई है।

स्त्री को प्राचीन काल से ही धर्म और परंपरा की जकड़ में स्थापित किया गया था। नये समय में इस जकड़ के नये-नये ढांचे बन गए और स्त्री उसमें किसी न किसी रूप में आज भी बंधी हुई है। मैं सोचती थी, मैं जो गाँव में रहकर स्त्रियों को देख रही हूं और जो शहर में जाकर देखा सबको एकसाथ नहीं अलग -अलग दर्ज करना होगा क्योंकि बहुत अंतर होता है उनके विभिन्न परिवेश का। लेकिन जब मैंने इस दृश्य का और गहरा अध्ययन किया तो देखा आज से डेढ़ दशक पहले अंतर ज़रूर रहा होगा लेकिन अब समय इंटरनेट का है, हर हाथ में किताब भले न पहुंची मोबाइल ज़रूर पहुंच रहा है। मैं यह बात उसी संदर्भ कह रही हूं कि विकास उनके पिछड़ेपन और अशिक्षा के अंधकार में दस्तक नहीं दे पाया और वहां बाज़ार कूदकर पहुंच गया। गाँव, देहात, कस्बे तेजी से तकनीक की दुनिया में शामिल हो रहे हैं लेकिन मानवीय और सौहार्द और सामूहिकता की जो एक दुनिया थी उनकी उसे वे बहुत तेजी से छोड़ते जा रहे हैं। 

समाज में स्त्री की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। समाज निर्माण में अपनी इस भूमिका में वह अपने समाज को किस तरफ ले जा रही हैं इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस पिछड़ेपन और अंधविश्वास में ऐसा नहीं है कि पुरुष नहीं शामिल हैं, उनकी भी खूब हिस्सेदारी है बल्कि उनके हाथ में सत्ता हैं तो वे इस तरह के कर्मकांड, अंधविश्वास और पांखण्ड के समाज में फैलने के ज्यादा जिम्मेदार है। लेकिन यहां मैं अभी स्त्रियों को देखकर रही हूं, उनके जीवन की रहन समझ रही हूं तो उन्हीं की बात करती हूं।

आज आंकड़ों के तौर पर हम देखे तो हमारी मध्यवर्गीय और निम्न-मध्यवर्गीय स्त्रियां धार्मिक कर्मकांड में पहले से कहीं अधिक हमें उलझी नज़र आ रही हैं। जो कुछ कमी थी उसे मोबाइल और इंटरनेट ने पूरा कर दिया है। उसमें वे बाबाओं के वीडियो आदि को देखती रहती हैं जिसमें सीधे-सीधे स्त्रीद्वेष भरा होता है। अगर आप इन बाबाओं के वीडियो को ध्यान से देखें तो पाएंगे कि वहां इतनी अधिक स्त्री हिंसा, नस्लभेद,रंगभेद, जातिभेद है कि मन गुस्से और संताप से भर जाएगा। दिल्ली में रहनेवाली मेरे गांव की एक युवा स्त्री कहती है कि वह जब घर के काम और बच्चों से फुर्सत पाती है तो फलाने बाबा को मोबाइल में देखने बैठ जाती है और तबसे उसका मन बहुत शांत रहता है। घर में भी सुख और शांति है। यही नहीं ये स्त्रियां अब बकायदा तस्वीर लगाकर धूप दीप जलाकर इन बाबाओं की घर में पूजा करती हैं ।

अवध में दो दशक से खूब नये-नये देवी देवता बाबा आदि आ गए हैं जिनका आधार सिर्फ और सिर्फ अंधविश्वास है। यहां दुरदूरिया देवी, चटपटा माई, संकठा माई, तुरंता माई आदि इनके जैसे कितने हैं सबके नाम गिनाना कठिन है। इस व्रत की कथाओं में दुखी स्त्री होती है जिसमें दुखी स्त्री के तारनहार के रूप में बेटा पैदा होता है, वह भी इस पूजा के चमत्कारी प्रभाव से। इन कथाओं में, पूजा-पाठ में अनपढ़ या कम पढ़ी-लिखी ही नहीं बल्कि पढ़ी-लिखी, आधुनिक और नौकरी करनेवाली शहरी, गंवई सब स्त्रियां शामिल हैं। सब इस तरह की पूजा के महिमागान में भी शामिल हैं। 

उदाहरण के तौर पर सुहागिन स्त्रियों में वृहस्पतिवार को होनेवाली ‘दुर्दुरिया की पूजा’ बहुत प्रसिद्ध है। यह बहुत तेजी से फैलनेवाली गुरुवारी पूजा है जिसमें सिर्फ सुहागिन स्त्रियां ही भाग ले सकती हैं। उत्तर संस्कृतिकरण के इस युग में महापंडितों ने इसे ‘दुर्दुरिया’ यानी दुख दूर करनेवाली पूजा का नाम दिया है। यदि आप इसकी कथा सुनेंगे तो सहज ही जान लेंगे कि यह पूजा क्या है। इस तरह की सारी पूजाओं में महज स्त्री-अपमान होता है। इसमें विधवा स्त्री ,जिसका विवाह न हुआ हो, जिस स्त्री का पीरियड आया हो उसे दूर रखा जाता है।  इस तरह के क्रूर कर्म कांड का समाज में इतना महिमामंडन है कि अभी आप फेसबुक पर सर्च करें तोगे देखेंगे कि इस क्षेत्र में तमाम नेता, विधायक अब बकायदा कहीं सार्वजनिक रूप से बड़े समूह में ये दुर्दुरियापूजा करवाते हैं। स्त्रियों की भीड़ जुटती है और कुछ उपहार आदि बटते हैं।

आज आंकड़ों के तौर पर हम देखे तो हमारी मध्यवर्गीय और निम्न-मध्यवर्गीय स्त्रियां धार्मिक कर्मकांड में पहले से कहीं अधिक हमें उलझी नज़र आ रही हैं। जो कुछ कमी थी उसे मोबाइल और इंटरनेट ने पूरा कर दिया है। उसमें वे बाबाओं के वीडियो आदि को देखती रहती हैं जिसमें सीधे-सीधे स्त्रीद्वेष भरा होता है।

इस पूजा में कही जानेवाली कहानी ही बहुत हास्यास्पद और अवैज्ञानिक होती है। वही तीन-चार कहानियां ही अदल-बदलकर सुनाई जाती हैं। इन कहानियों का सार यह यह रहता कि एक राजा था एक रानी। रानी को कोई बेटा नहीं था तो लोगों के ताने से खीझकर राजा ने रानी को वन भेज दिया। रानी वन में रो रही थी कि एक बूढ़ी औरत ने उससे पूछा क्यों रो रही। रानी ने कहा क्या बताने पर तुम मेरा दुख दूर कर दोगी। बुढ़िया ने कहा हां। रानी ने जब बताया कि राजा ने बेटा न होने के कारण रानी को महल से निकाल दिया तो बुढ़िया ने कहा जाओ कहीं से लाई,चना, गुड़ और सात सुहागिनों को इकट्ठा करो और अवसान माई की कथा करो। इस पूजन के बाद अलग-अलग कहानी में कभी रानी की हथेली से मेढ़क पैदा होता है तो कभी अन्य जीव जो रात में राजकुमार बन जाता है या सीधे साक्षात राजकुमार ही पैदा होता है जो बड़ा होकर अपनी मां की महल में वापसी करवाता है। अवसान माई की कृपा से राजा अपने बेटे को राजपाट दे देते हैं और रानी के साथ शेष जीवन सुख पूर्वक बिताने लगते हैं।

इसी तरह एक कहानी में ननद होती है। वह खूब दुरदूरिया की पूजा करती है। सुहागिन स्त्रियों को न्योता देती और बहुत श्रद्धा से यह अनुष्ठान करती है। उसकी भाभी इन सबके कारण ननद से नाराज़ रहती है। फिर ननद का ब्याह हो जाता है बड़े राजा से। वह ससुराल जाकर भी यह पूजा करती है और इधर मायके में भाभी गरीब हो जाती है। पूजा न करने से उसका अनिष्ट होता है। भाई जाकर बहन को लाता है, बहन पूजा करती है दुरदूरिया की और भाई फिर धनवान होने लगता है। फिर भाभी पश्चाताप होता और उसकी आंखें खुल जाती हैं और वह  भी दुरदूरिया की पूजा करती है। कथा के अंत में यह ज़रूर कहा जाता है कि जैसे रानी के दिन बहुरे वैसे ही यह कथा सुननेवालियों के भी बहुरेगें। 

ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि ये सारे रक्षा सूत्र बेटों और पतियों के लिए ही होते भी हैं। स्त्रियां तो अमरत्व की घरिया पीकर आती हैं, उनका लिहाज से, उनके लिए समाज में किसी रक्षा पूजा का विधान नहीं होता।

अब इसमें यह देखना है कि इस तरह की सारी पूजाओं में ऐसी ही कहानियां और कर्मकांड होते हैं। प्रसाद भी लगभग वहीं सब पेड़ा ,बरफी ,लड्डू ,लाई बताशे आदि। बाज़ार ने चढ़ावे और प्रसाद को काफी बड़ा और खर्चीला बना दिया है। जिसके पास जितना धन, प्रसाद उतना ही शाही, व्यवस्था उतनी ही भव्य। कुल मिलाकर यह कि नये-नये देवता और पूजापाठ का ट्रेंड चल निकला है, इसका खूब बाजारीकरण हुआ है। दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है और तथाकथित पढ़ा-लिखा समाज इसमें उतना ही शामिल है जितना अशिक्षित। किसी को ज़रा टोको इस अवैज्ञानिकता पर तो कहेगें हम अमेरिका में नहीं पैदा हुए हैं यह हमारी संस्कृति है। अब कौन समझाए कि पाखंड और अंधविश्वास संस्कृति नहीं है।

अभी कुछ समय पहले की बात है गाँव में आए दिन तरह-तरह की अफवाहें मोबाइल फोन से खूब फैलती कि हाथ मे रक्षा बांध लो, आधी रात को उठकर श्रृंगार कर लो, घर की सिल को नीम के पेड़ के नीचे रख दो, दिया जलाकर ड्योढ़ी पर रख दो, जिसके जितने बेटे हो उतना सवा किलो हलवा-पूरी गाय को खिलाए,  कभी रस घोलकर रात में पीना है तो कभी पैरों में महावर रात में लगाना है। गौरतलब यह है कि पढ़े-लिखे लोग तक ये सब टोटके करते। फिर जाने कब धीरे-धीरे इनका असर कम होता फिर किसी नये टोटके की अफवाह फैला दी जाती। ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि ये सारे रक्षा सूत्र बेटों और पतियों के लिए ही होते भी हैं। स्त्रियां तो अमरत्व की घरिया पीकर आती हैं, उनका लिहाज से, उनके लिए समाज में किसी रक्षा पूजा का विधान नहीं होता।

अब समय इंटरनेट का है, हर हाथ में किताब भले न पहुंची मोबाइल ज़रूर पहुंच रहा है। मैं यह बात उसी संदर्भ कह रही हूं कि विकास उनके पिछड़ेपन और अशिक्षा के अंधकार में दस्तक नहीं दे पाया और वहां बाज़ार कूदकर पहुंच गया। गाँव, देहात, कस्बे तेजी से तकनीक की दुनिया में शामिल हो रहे हैं।

अभी जब कोरोना महामारी का प्रकोप हुआ तो इतनी भीषण आपदा में भी लोगों को इस तरह के कर्मकांड, नयी-नयी पूजा की पद्धतियां और टोटके सूझ रहे थे। खूब प्रचार-प्रसार हो रहा था इनका। गाँव में लोग सांझ ढले खेतों की ओर जाते और अर्घ्य और पूजा करते दिया जलाते और फिर कढ़ाई चढ़ाना, पूरी-हलवा प्रसाद बनाना आदि करते। इसे ताली और थाली बजाने के सरकारी अभियान की श्रेणी में भी देखा जा सकता है। किसी देश में अंधविश्वास और टोन-टोटके को देखकर यह साबित होता है कि विज्ञान और विचार में यहां के लोग कितने पिछड़ेपन में जीते हैं। उन्हें इसका गुमान भी है, इन सबको वे अपनी संस्कृति से जोड़कर इनका बखान करते हैं। 

अचरज़ की बात है कि जिस बात के लिए खेद होना चाहिए वही इस युग में गर्व करने का विषय बन गया है। अंधविश्वास और टोन-टोटके आदि का गाँव में आलम ऐसा है कि अब लोगों में इससे भी वैमनस्य बढ़ रहा है। समाज जहां बाजारीकरण में आगे-आगे दौड़ रहा है आधुनिकता और वैज्ञानिक विचार में पिछड़ता ही जा रहा है। पीछे जाने की प्रकिया पर रोष नहीं बल्कि गर्व से भरता जा रहा है।


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