अक्सर माता-पिता यह भूल जाते हैं की उनकी परवरिश बच्चों के ‘सीखने’ और ‘ज्ञान पाने की क्षमता’ को प्रभावित करती है क्योंकि वे परवरिश को ‘सिखाने के रूप में’ ज़्यादा समझते हैं। यह विचार उपनिवेशवादी मानसिकता से ग्रस्त लगता है। वे परवरिश की शैली को अपने लिए इस अर्थ में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी मानते हैं कि बच्चों को ‘ज़िम्मेदार’ बनाया जाए भले ही बच्चा अपनी बाल्यवस्था में ‘ज़िम्मेदारी’ के शब्द और भाव दोनों की समझ से कोसो दूर हो। माता-पिता बचपन से ही इसके लिए प्रतिबद्ध और अड़िग रहते हैं। भारतीय परवरिश में सांस्कृतिक रूप से यह अभ्यास बेहद पुराना है। उन्हें ज़िम्मेदार हमेशा बड़े होने के उद्देश्य से बनाते हैं। बच्चों के बड़े होने के क्रम में कुछ भी सीखने के लिए बड़े लोगों को ही एक अकेले माध्यम माना जाता है। ऐसे में बचपने में बच्चों के खुद की दुनिया की रचना करने की स्वाभाविक विशेषता को कुचल दिया जाता है।
आइए इसे एक किस्से से समझते हैं। “एक दिन किसी शादी के एक कार्यक्रम में, एक महिला अपनी 18 महीने की बेटी को वहां मौजूद कुछ रिश्तेदार से हाथ जोड़कर नमस्ते करने को कहती है। उस पल में उभरने वाली मासूम और असहज शारीरिक भाषा में ऐसा लग रहा था की मानो बच्ची रिश्तेदारों को पहचानने की कोशिश कर रही हो। संभावना है कि जिनमें से कुछ से वह पहली बार मिल रही होगी या कभी मिली ही न हो। बच्ची के हाथ जोड़कर नमस्ते न करने पर उसकी माँ सबसे कहती है, ठीक है! पीहू जब तक सबसे हाथ जोड़कर नमस्ते नहीं कर लेती, तब तक उससे कोई बात मत करना।”
समाज में हमारे सामने ऐसे उदाहरण कोई नये नहीं हैं। अभिभावकों के ऐसे व्यवहार सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं के प्रति ज़िम्मेदार बनाने और कड़े अनुशासन मनवाने के आदी हैं। जहां वे इस उम्र में बच्चों को एक निष्क्रिय जीव की तरह समझते हैं, चाहे इस नाज़ुक उम्र में बच्चे हाथ जोड़ने जैसे प्रतीक और इससे जुड़ी अवधारणा को समझने और अभिनय कर पाने में असक्षम ही क्यों न हो। समाज के लिए कुछ निश्चित प्रतीकों को आदत बनाने की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर अभी से ही डालना शुरू कर देते हैं। ऐसे में पीहू की माँ के इरादे भले ही उसे वास्तव में चोट पहुंचाने के नहीं होंगे, पर उनका यह व्यवहार परिवेश में कठोर संस्कृति को पैदा करने में इतना सहायक ज़रूर होगा की बच्चों की सीखने की सभी अवस्थाओं को बाधित करने लगे। बहुत ही कम पेरेंट्स को शायद यह बात मालूम होगी की इस उम्र में बच्चे अपने माहौल का अवलोकन करने की क्षमता ग्रहण करने लगते हैं।
बाल मनोविज्ञान कहता है कि माता-पिता बच्चों के व्यवहार का निर्माण करने और उसे आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में पेरेंट्स के लिए बेहद ज़रूरी हो जाता है की बच्चों के जीवन की पहली अवस्था, ‘बाल्यावस्था’ में उनको खुद से सीखने और अपनी नन्ही सी दुनिया को रचने के लिए नियंत्रणमुक्त और स्वस्थ परिवेश दें। ताकि वे अपने आसपास के लोगों से स्वतंत्रतापूर्वक बेझिझक जुड़ सकें, बातचीत कर सकें। जो सीखने से जुड़ी आने वाली अवस्थाओं में रुकावट पैदा न कर सके। इसके लिए पेरेंट्स बाल मनोविज्ञान से संबंधित कुछ सामान्य अवधारणाओं को जानकार इस अवस्था में सहज रूप में योगदान करने में सक्षम हो सकते हैं। आखिर वे भी पहली बार पेरेंट्स बनने की भूमिका को अनुभव करते हैं।
बाल मनोवैज्ञानिक में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत
बाल मनोविज्ञान में वह सिद्धांत ‘संज्ञानात्मक विकास’ है। संज्ञानात्मक विकास उन ‘मानसिक क्षमताओं’ से संबंधित है जिसमें किसी चीज़ की समझ विकसित करने के लिए समस्या-समाधान, चिंतन, तर्क करना और क्रिटिकल थींकिंग, जैसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। सीखने की इन प्रक्रियाओं के माध्यम से बच्चे अपने परिवेश के साथ इंटरेक्ट करके ज्ञान हासिल करते हैं। इस सिद्धांत को देने वाले स्विस मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे (1896-1980) हैं। इन्होंने जीव विज्ञान में बाल मस्तिष्क के क्रमबद्ध विकास का पता लगाकर अपना सिद्धांत दिया। जिसे ‘विकासात्मक मनोविज्ञान’ (डेवलपमेंटल साइकोलॉजी) के नाम से जाना जाता है। उन्होंने इसके भीतर बच्चों के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं को दुनिया के सामने रखा है।
पियाजे अपने नज़रिये से एक ‘निर्माणवादी’(कंस्ट्रक्टिविस्ट) ज़्यादा थे। इस नज़रिये का ज़्यादातर प्रभाव उनके संज्ञानात्मक के सिद्धांत और इसके भीतर दी गई कई ज्ञान को हासिल करने की अवधारणाओं पर दिखाई देता है। बाल मनोविज्ञान में निर्माणवाद विचार इस बात पर आधारित है की बच्चे गतिविधियों के जरिए अपने ज्ञान का निर्माण (सेल्फ-कंस्ट्रक्शन) खुद करते हैं। इस प्रक्रिया में पियाजे उन्हें सक्रिय जीव के रूप में देखते हैं। वह कहते हैं बच्चा जैसे-जैसे विकास करता है ज्ञान का निर्माण और पुनः निर्माण होता रहता है।
बच्चों के विकास की वे चार अवस्थाएं जिनमें वे सीखते हैं
बच्चों के विकास की प्रकृति को समझने के लिए, पियाजे ने अपने तीन बच्चों के व्यवहार को ध्यान से परखा था। वह उनके सामने कई तरह की चुनौतियां प्रस्तुत किया करते थे और बाद में उनसे मिलने वाली प्रतिक्रियाओं पर नज़र डालते थे। पियाजे के विचार बच्चों को बड़ों से बिल्कुल भी कम नहीं समझते हैं। न ही उन्हें खाली दिमाग के रूप में देखते हैं। उन्होंने बच्चों को क्षमतावान मानते हुए उनके विकास की चार अवस्थाओं को दिया। विकास के ये चरण उनके समय-समय पर ‘सीखने’(लर्निंग) को बल प्रदान करते हैं। यहां हम इन अवस्थाओं की चर्चा कर रहे हैं ताकि बच्चे अपनी उम्र के अनुरूप जो क्रियाएं करते हैं पेरेंट्स उन क्रियाओं की एक समझ बना सकें।
पहली अवस्था, जन्म से 2 साल तक की होती है। पियाजे ने इसे ‘सेंसरी मोटर अवस्था’ कहा है। इस चरण के दौरान, बच्चे अपनी पांच इंद्रियों का इस्तेमाल करके कुछ-न-कुछ सीखते हैं और अपने परिवेश को एक्सप्लोर करते हैं। जैसे हम इस उम्र के किसी बच्चे को बिस्तर पर लेटे हुए कुछ छूना, इधर-उधर पैर मारना, आस-पास देखना, आदि गतिविधियों करते हुए देखते हैं। इस उम्र की अवस्था की कुछ विशेषताओं में एक विशेषता यह है, परिवेश में अवलोकन और अनुकरण करना। बच्चे आसपास मौजूद लोगों के व्यवहारों को गौर से अवलोकन करते हैं और फिर उन व्यवहारों का अनुकरण करने की कोशिश करते हैं। यहां पेरेंट्स के लिए ध्यान देने वाली बात है की बच्चों के सामने वे किस तरह से व्यवहार और भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में अभी से ही बच्चों की भाषाई क्षमताओं को विकसित करने पर ध्यान दिया जा सकता है और कुछ आसान शब्दों को दोहराकर उनकी शब्दावली बढ़ाने की भी कोशिश की जा सकती हैं। इस उम्र में अक्सर आपने देखा होगा की बच्चे किसी वस्तु के रंग और आर्कषक लगने वाले पैटर्न को कुछ पल के लिए टकटकी लगाए देखते हैं। ऐसे में उन्हें अलग-अलग रंग और आकार के खिलौने दिए जा सकते हैं।
दूसरी अवस्था, 2 से 7 साल तक की होती है। इसमें बच्चे सांकेतिकया तरह-तरह के संकेतों की समझ हासिल कर लेते हैं जैसे हाव-भाव, भाषा या चित्र। यहां भाषा का विकास भी बहुत तेज़ी से होता है। इस अवस्था की तमाम विशेषताओं में एक विशेषता है की बच्चा/बच्ची ‘अहंकेंद्रित’ होते हैं यानि खुद को हर विषय के केंद्र में रखेंगे और वे दूसरों के नजरिए को महत्व नहीं देंगे क्योंकि वे मानते हैं की दूसरे लोग भी उन्हीं की तरह दुनिया का अनुभव करते हैं। वे सभी निर्जीव वस्तुओं को सजीव मानते हैं जिसे ‘एनिमिज़्म’ कहते हैं। इस अवस्था के जरिए बच्चा/बच्ची तर्क करने की सीढ़ी की ओर बढ़ते हैं इसलिए यह ज़रूरी है की वे वास्तविक दुनिया के अनुभवों से सीखना जारी रखें।
तीसरी अवस्था, 7 से 11 साल तक की होती है। इस अवस्था में बच्चे तर्क करने की परिस्थिति में आ जाते हैं। वे दूसरों के नजरिए को महत्व देना सीख जाते हैं। बच्चे वस्तुओं का तमाम तरह के गुणों के आधार पर बांटना या वर्गीकरण करना सीख लेते है। जैसे एक ही रंग और आकार की वस्तुओं को एक साथ लगाना, या फिर वस्तुओं को घटते या बढ़ते क्रम में लगाना। सीखने की इन विशेषताओं का संबंध गणित से है।
चौथी अवस्था, 11 साल और उससे ज़्यादा की होती है। इस अवस्था में बच्चे तमाम जटिल विषयों पर भी सोच-विचार करने लगते हैं। वे किसी समस्या के समाधान के लिए सबसे पहले उसके कारणों की पहचान करके उसके समाधान के उपाये बताने की चिंतन करने की क्षमता विकसित कर लेते हैं। यहां वे समाज से जुड़े मुद्दों के बारे में अपनी चिंताएं और संवेदनशीलता जाहिर करने लगते हैं।
उनके छुटपन में सीखने के लिए कारगर कुछ रचनात्मक सामग्री
बच्चों को खुद की दुनिया को गढ़ने में सहयोगी कुछ बाल संबंधी किताबें भी हैं जो केवल पठन (पढ़ना) पर ही बल नहीं देती बल्कि उनके भीतर की रचनात्मकता को बाहरी जगत में लाने का कोशिश भी करती हैं। कुछ इसी उद्देश्य से की जाने वाली पहल भोपाल के एकलव्य काफी लंबे समय से करता हुआ आ रहा है। जहां हर उम्र के बच्चे के लिए विशेषज्ञों द्वारा तैयार साहित्य, चित्रकारी, बाल पत्रिकाओं जैसी सामग्रियां हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू, आदि भाषाओं में प्रकाशित की जा रही हैं। ऊपर चर्चा की गई विकास की अवस्थाओं के दौरान एकलव्य की यह रचनाएं पेरेंट्स के लिए निस्संदेह ही बेहद रोचक और प्रभावशील होंगी।
एकलव्य संस्था ‘चकमक’ नाम से एक बाल विज्ञान पत्रिका निकालते हैं। पत्रिका के अनुसार, यह बच्चों में तर्क और क्रिटिकल नजरिए को पैदा करने, अपने आसपास के प्रति संवेदनशील बनाने और कल्पनाशीलता को बढ़ाने पर ज़ोर देती है। इस तरह, बाल मनोविज्ञान संकुचित मायने में बच्चों को किसी की इच्छित उम्मीदों और महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के रूप में नहीं देखता बल्कि उनके लिए एक सुरक्षित और मुक्त पारिवारिक और सामाजिक परिवेश की वकालत करता है। ऐसा परिवेश उपलब्ध कराना ही असल ज़िम्मेदारी होनी चाहिए न कि कड़े अनुशासन और मूल्यों को थोपने की ज़िम्मेदारी दिखाना। जो कि उनके वृद्धि, विकास और व्यक्तित्व को अवरूद्ध करते हुए उनके सीखने की संभावनाओं को कम करने लगे।
स्रोत:
- EPW
- Britannica
- NCERT
- Researchgate
- Lumenlearning
- Book – Psychology of Learning for Instruction, 3rd Edition, by Marcy P. Driscoll, Chapter-6 and 11