समाजमीडिया वॉच लैंगिक भेदभाव और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की फिल्मी दुनिया में महिला पेशेवरों की कमी

लैंगिक भेदभाव और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की फिल्मी दुनिया में महिला पेशेवरों की कमी

यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के शोधकर्ताओं ने कहा है कि फिल्म उद्योग की टेक इंडस्ट्री में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बहुत असमानता है। शोधकर्ताओं ने 1920 से लेकर 2020 तक के समय के बीच रिलीज 1400 से अधिक फिल्मों की समीक्षा की। उनमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली 142 सबसे प्रभावशाली फिल्मों को भी शामिल किया।

बात जब सिनेमा जगत की आती है तो उसे वर्तमान सामाजिक स्थिति से बहुत आगे का और प्रगतिशील कहा जाता है। सिनेमाई पर्दे पर महिलाओं के किरदारों को देखकर कहा जाता है कि एक हद तक सिनेमा महिलाओं को सशक्त करने का काम कर रहा है। इसमें भी बात जब हॉलीवुड की आती है तो उसे भारतीय सिनेमा के परिदृश्य से बहुत आगे माना जाता है। हॉलीवुड कहानी, किरदार से लेकर तकनीकी में अपने नए प्रयोगों के लिए जाना जाता है। लेकिन महिलाओं के फिल्म इंडस्ट्री में प्रतिनिधित्व को लेकर हालात हॉलीवुड से बॉलीवुड तक एक जैसे ही नज़र आते हैं।

भले ही सिनेमा ने महिला किरदारों की एक सशक्त छवि पर्दे पर पेश की हो लेकिन पर्दे के पीछे के काम ख़ासतौर से तकनीक क्षेत्र में पुरुषों का ही प्रतिनिधित्व बना हुआ है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) ने भले ही फिल्मों में एक क्रांति ला दी है। काल्पनिकताओं को वास्तविकता के बहुत करीब ला दिया है लेकिन इस क्षेत्र में सदियों पुरानी लैंगिक असमानता बरकरार है।

केवल नौ एआई महिला पेशेवर

हाल ही में फिल्मों को लेकर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि फिल्म इंडस्ट्री के 116 आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पेशेवरों में से केवल नौ महिलाएं हैं। द गार्डियन में प्रकाशित ख़बर के अनुसार यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के शोधकर्ताओं ने कहा है कि फिल्म उद्योग की टेक इंडस्ट्री में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बहुत असमानता है। शोधकर्ताओं ने साल 1920 से लेकर साल 2020 तक के समय के बीच रिलीज़ 1400 से अधिक फिल्मों की समीक्षा की। इसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली 142 सबसे प्रभावशाली फिल्मों को भी शामिल किया गया है। उनके विश्लेषण में 116 एआई पेशेवरों में से केवल नौ महिलाएं थीं। इनमें से पांच किसी पुरुष के साथ काम करती थी या किसी सीनियर पुरुष एआई इंजीनियर की संतान या साथी के तौर पर पहचान की गई।

इस रिसर्च में एआई तकनीक की कुछ फिल्मों के पुरुष किरदारों का उदाहरण देकर लैंगिक असमानता पर बात की गई है। इसमें विश्व प्रसिद्ध ‘एवेंजर्स’ फिल्म फ्रैंचाइज़ी पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि फिल्म में स्टीरियोटिपिकल तौर पर केवल एक पुरुष को जीनियस यानी आयरन मैन को दर्शाया गया है, जिसमें बहुत से गुण और कौशल हैं। वह टाइम ट्रैवल की परेशानी को ‘एक रात में’ सुलझा देता है। ठीक इसी तरह एलेक्स गारलैंड की 2014 की फिल्म ‘एक्स मकिना’ में भी एक अकेला जीनियस और सफल किरदार है जो कानून और नैतिक सिद्धांतों से ऊपर उठकर एक कर्मचारी के साथ हिंसा करता है और खुद को सेक्स रोबोट से खुश करता है।

इस लिस्ट में 1997 की महिला एआई निर्माता की फिल्म ऑस्टिन पॉवर्सः इंटरनैशनल मैन ऑफ मिस्ट्री है। इस फिल्म के किरदार में बुलेट यानी गोलियां उसकी छातियों में फिट करे हुए हैं जो बहुत चिल्लाता है। इस रिसर्च की सह-लेखिका और लीवरहल्मे सेंटर फॉर द फ्यूचर ऑफ इंटेलिजेंस के एक वरिष्ठ शोध साथी डॉ. कांता दिहल ने कहा है कि पुरुष पूर्वाग्रह ‘आर्ट मिमिकिंग लाइफ’ का हिस्सा था जिससे फिल्म निर्माता एआई प्रोफेशनल भी अछूते नहीं हैं। पुरुष प्रभुत्व को दिखाने के लिए पुरुषों के रूप में ही किरदार चित्रित करते हैं। इसी वजह से सिनेमा में चित्रित किए गए किरदारों में दस में से एक की तुलना में पांच में से एक एआई इंजीनियर महिलाएं हैं। वे उसी स्टीरियोटाइप को बढ़ा रहे है जो वे देखते हैं। 

हाल ही में फिल्मों को लेकर जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि फिल्म इंडस्ट्री के 116 आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पेशेवरों में से केवल नौ महिलाएं हैं। द गार्डियन में प्रकाशित ख़बर के अनुसार यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज के शोधकर्ताओं ने कहा है कि फिल्म उद्योग की टेक इंडस्ट्री में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बहुत असमानता है।

पर्दे पर महिला किरदारों की कमी और एआई इंजीनियरों की कमी को कैमरे के पीछे महिलाओं की कमी से भी जोड़ा जाता है। पब्लिक अंडरस्टैडिंग ऑफ साइंस के अध्ययन के अनुसार पिछली शताब्दी में एआई आधारित एक भी फिल्म केवल महिला द्वारा निर्देशित नहीं है। दिहल का मानना है कि पुरुष रूढ़िवादिता का स्थायीकरण कई स्तरों पर बहुत हानिकारक है। सबसे पहले यह करियर की पसंद के चयन को प्रभावित करता है। महिलाओं में यह धारणा बना दी जाती है कि एआई केवल पुरुषों का क्षेत्र है। दूसरा इसका प्रभाव हायरिंग पर जाता है यानी काम पर रखने के लिए केवल पुरुषों को ही इसके लिए उपयुक्त माना जाता है। उन्होंने कहा है, “अगर महिला एआई रिसर्चर को काम पर रख भी लिया जाता है तो वर्कप्लेस पर उसे कई तरह के रूढ़िवाद और धारणाओं से गुजरना पड़ेगा।”

यूनिवर्सिटी ऑफ साउथहेम्पटेन की कम्प्यूटर साइंस की प्रोफेसर डेम वेंडी हॉल के अनुसार आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में विविधता बढ़ाने के लिए एक अभियान की तत्काल आवश्यकता है। प्रो. हॉल ने साल 1987 में कंप्यूटिंग क्षेत्र में महिलाओं की कमी पर एक पेपर में लिखा था कि एआई क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है क्योंकि समाज का इस पर बहुत अधिक प्रभाव था। उन्होंने कहा कि मीडिया इस स्थिति को बदलने में बड़ी भूमिका निभा सकता है।

लगातर बनी हुई है टेक फील्ड में महिलाओं की कमी

सिनेमा के पर्दे पर भले ही हर कहानी में महिलाओं के किरदार हमें पर्दे पर देखते हैं लेकिन इन कहानियों को बनाने के लिए पर्दे के पीछे महिलाओं की संख्या में बहुत कमी है। बात अगर हॉलीवुड से ही शुरू करें तो “सेल्युलाइड सीलिंग” की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022 में हॉलीवुड में कैमरे के पीछे महिला फिल्ममेकर, तकनीशियन और चालकों में भारी गिरावट देखने को मिली है। रिपोर्ट से पता चलता है कि 2022 की शीर्ष 250 फिल्मों में से सिनेमैटोग्राफरों में से केवल सात प्रतिशत महिलाएं शामिल थीं। पुरुषों में यह दर 93 प्रतिशत दर्ज की गई। 

शोधकर्ताओं ने 1920 से लेकर 2020 तक के समय के बीच रिलीज 1400 से अधिक फिल्मों की समीक्षा की। उनमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाली 142 सबसे प्रभावशाली फिल्मों को भी शामिल किया। उनके विश्लेषण में 116 एआई पेशेवरों में से केवल नौ महिलाएं थी।

सिनेमा जगत में एक स्थापित सोच यह है कि यहां महिलाएं या तो हीरोइन हो सकती हैं या फिर प्लेबैक सिंगर। ऐसी सोच के चलते फिल्म भारतीय इंडस्ट्री की अन्य विधाओं ख़ासतौर से तकनीकी फील्ड में बहुत कम महिलाएं हैं। भारतीय सिनेमा की पहली ट्रेंड टेक्नीशियन अरूणा राजे पाटिल हैं जिन्होंने 1969 में एफटीआईआई पुणे से प्रशिक्षिण प्राप्त किया था। पिछले एक दशक में हिंदी सहित तमिल भाषाओं में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की कई फिल्में बनी हैं। इसमें रोबोट, ओके कम्प्यूटर, अनुकूल जैसे नाम शामिल हैं। एआई के क्षेत्र में भारतीय महिलाओं के नाम की बात करे तो यहां न के बराबर है। 

सिनेमा जगत में शीर्ष पदों पर है बहुत कम महिलाएं

फिल्म इंडस्ट्री में हर स्तर पर लैंगिक असमानता बनी हुई है। गीना डेविस इंस्टीट्यूट के द्वारा जारी ग्लोबल सिम्पोज़िअम ऑन जेंडर इन मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में जेंडर रेशो 6.2 पुरुष पर एक महिला है। 10 पुरुषों में से केवल एक महिला निर्देशक है। अगर शीर्ष प्रतिनिधित्व को लेकर बात करे तो वहां भी महिलाओं की संख्या बहुत कम है। बीते वर्ष ‘ओ वुमनिया 2022’ रिपोर्ट में इंडियन फिल्म इंडस्ट्री में ऑन-स्क्रीन और ऑफ-स्क्रीन महिलाओं के प्रतिनिधित्व में असमानता की स्थिति से जुड़े आंकड़े जारी किए गए।

इस रिपोर्ट में महिला प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी को आठ भाषाओं की 150 फिल्मों का अध्ययन किया गया था। फिल्म इंडस्ट्री में सीनियर लीडरशिप में केवल 10 फीसदी महिलाएं ही विभाग में मुख्य पद पर हैं। कैमरे के पीछे काम जैसे प्रोडक्शन डिज़ाइन, राइटिंग, एडिटिंग, डॉयरेक्शन और सिनेमाटोग्राफी विभागों में 10 फीसदी महिलाएं हेड पोजिशन पर आसीन हैं। 

यूनिवर्सिटी ऑफ साउथहेम्पटेन की कम्प्यूटर साइंस की प्रोफेसर डेम वेंडी हॉल के अनुसार आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में विविधता बढ़ाने के लिए एक अभियान की तत्काल आवश्यकता है। प्रो. हॉल ने साल 1987 में कंप्यूटिंग क्षेत्र में महिलाओं की कमी पर एक पेपर में लिखा था कि एआई क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब है क्योंकि समाज का इस पर बहुत अधिक प्रभाव था।

संचार के साधनों में फिल्मों को सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। फिल्में और फिल्म जगत के लोगों से लोग बहुत ज्यादा प्रभावित भी होते हैं। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि लैंगिक भेदभाव की चुनौतियों को खत्म करने में फिल्म इंडस्ट्री अगर वास्तविक कदम उठाती है तो इसका संदेश आसानी से प्रसारित होगा। इसके लिए इंडस्ट्री में हर स्तर पर मौजूद लैंगिक भेदभाव को खत्म करने की पहल पहले स्वयं से करनी होगी। तकनीक, निर्माता-निर्देशक और एआई पेशेवरों को बढ़ाने के लिए महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाकर समावेशी माहौल तैयार करना होगा। महिलाओं की अधिक संख्या ही स्थापित पूर्वाग्रह और रूढ़िवाद को खत्म करने मददगार साबित होगी। 


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