हम कल्पना करते हैं जन्म के तुरंत बाद एक नन्हे से शिशु की। इस बच्चे को न तो चलना-फिरना आता है, न ही अपने आस-पास के परिवेश में लोगों की किसी पहचान या जानकारी से परिचित होता है। पर उसमें एक ऐसा प्राकृतिक गुण ज़रूर होता है जो सामान्य रूप में सभी बच्चों में जन्म से होता है। वह गुण ‘अवलोकन’ करना है। वे अपनी शिशु अवस्था में अपने हाथ-पैरों को अलग-अलग दिशा में हिलाते-डुलाते हैं। कभी अपनी आंखों को इधर-ऊधर घुमाते हैं तो कभी एक जगह टकटकी लगाए देखते हैं। उनकी हाथ पैरों की हलचल चारों ओर दौड़ती हुई नज़रें, दोनों के बीच शारीरिक क्रियाओं के जरिये संतुलन धीरे-धीरे ही आता है।
शिशु अवस्था से आगे बढ़ते हुए बच्चे बड़े होने लगते हैं। परिवेश को समझने के लिए शुरू में उन्हें उनके माता-पिता द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता है। उनके जीवन में उनका अपना एक स्पेस बनने लगता है जहां वे अपनी तरह-तरह की रूचियों में दिलचस्पी दिखाते हैं। वे अपनी रूचियों को अनुभव करके सीखने की क्षमता का विकास करते हैं। यहां बच्चों की व्यक्तिगत विशेषताएं साफ़ तौर से झलकती है। पर अक्सर प्राथमिक सामाजीकरण में उनसे वो स्पेस लगभग छीनने की कोशिश की जाती है। वह स्पेस जहां वे खुद की दुनिया को गढ़ते हैं।
बच्चे का विकास तय करता समाज
एक दिन वे स्कूल में कदम रखते हैं और उसके अंदर से पैदा होने वाली रूचि शिक्षा व्यवस्था के मानदंडों के भीतर विकसित होना शुरू कर देती है। उनका खुद का वो स्पेस पारिवारिक माहौल में तो पहले ही छीन लिया जाता है क्योंकि बच्चों को समाज के अनुसार कैसे ढाला जाए, इसकी कोशिशें उनकी मासूम अवस्था से ही माता-पिता करने लगते हैं। बच्चों को किस निश्चित विषय के क्षेत्र में शिक्षा दी जाए या वे किस निश्चित पेशे को अपनाए, इसकी बुनियाद समाज शिशु अवस्था से ही गढ़ने लगता है। उसकी पसंद-नापसंद की उम्मीदें समाज और परिवार कई बार बच्चों के पैदा होने से पहले ही तय कर लिया जाता है। माता-पिता की उम्मीदों की इस पारंपरिक संस्कृति को और ज्यादा बल देने में स्कूल अपनी औपचारिक भूमिका में और अधिक सक्रिय हो जाता है। बच्चों की रुचि को निर्धारित करना और किताबी सूचनाओं को बल देकर उन्हें सफल बनने के लिए एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में धकेलने का काम बराबर किया जाता है।
क्या है शिक्षा की वैकल्पिक अवधारणा
ऐसी शिक्षा जो बच्चों को भीतर और बाहर स्वाधीनता का रास्ता दिखाए, इसके लिए जिस विचार को लाया गया उसे शिक्षा की वैकल्पिक अवधारणा कहा गया। यह एक ऐसी अवधारणा है जो स्कूलों में सीखने-सिखाने, मूल्यांकन, स्कूली प्रशासन आदि पद्धतियों की परंपरागत स्थिति को चुनौती देती है। देश में आज जितने भी वैकल्पिक स्कूल मौजूद हैं उन सबकी अपनी ख़ास फिलोसॉफी और प्रेरणाएं हैं। कुछ स्कूल अलग-अलग शैक्षिक विचारकों के विचारों पर भी आधारित हैं। इसीलिए देश में और वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक शिक्षा की कोई मानक परिभाषा नहीं है।
भारत में वैकल्पिक शिक्षा के विकास की शुरुआत
उन्नीसवीं सदी से पहले देश में कोई औपचारिक शिक्षा व्यवस्था नहीं थी। कहा जाए तो औपचारिक शिक्षा व्यवस्था का अभाव और उसे प्रोत्साहन करने में सरकार की कोई भूमिका नहीं थी। तब केवल स्थानीय स्तर पर पाठशालाओं और मदरसों और मकतबों का चलन था। शिक्षा की यह प्रणाली शिक्षक-केंद्रित हुआ करती थी। यहां बच्चे रटने और याद करने के माध्यम से सीखते थे। शिक्षक बनने के लिए कोई शिक्षा मौजूद नहीं थी जो उन्हें सीखने और सिखाने के लिए तैयार कर सके। शिक्षक अपने आप ही इस बात को तय किया करते थे कि बच्चों को क्या और कैसे पढ़ाना है। आज के समय की तरह तब कक्षा में ज्ञान और सूचना देने के लिए कोई पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री, अटेंडेंस रजिस्टर, वेतन, आदि की कोई व्यवस्था नहीं थी।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश सरकार ने इस स्थानीय और देशी शिक्षा को ‘सांस्थानिक’ रूप प्रदान किया जिसके बाद शिक्षा में एक बहुत बड़ा फर्क देखने को मिला। पर शिक्षा के औपचारिक रूप ग्रहण कर लेने के बाद भी, बच्चों के लिए कक्षाएं कई तरह से नीरस ही बनी रही। ब्रिटिश अधिकारियों का उद्देश्य भारत की ख़स्ता शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाना या उसे आधुनिक रूप देना नहीं था बल्कि शिक्षा को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल कर अपने उपनिवेशिक हितों को पूरा करना था। इसलिए, इन कक्षाओं में बच्चों के लिए उचित सुविधाओं और उनके सीखने की चिंता से जुड़ा विषय उनके उद्देश्यों से परे था।
संस्थागत व्यवस्था से परे स्कूल
19वीं सदी के समाप्ति तक सदियों से तमाम समाज सुधारक जो मानव चेतना के विकास में शिक्षा को प्राथमिक तौर से ज़रूरी मानते थे, उन्होंने वैकल्पिक शिक्षा के विचार को रखने और लागू करने का काम शुरू किया। इस चरण में, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, सर सय्यद अहमद खान, रुकैया सखावत शेखावत, स्वामी विवेकानन्द और अन्य समाज सुधारकों की प्रमुख भूमिका रही है। इन्होंने सामाजिक उत्थान के लिए शिक्षा के विचार को बढ़ावा दिया और इस दिशा में स्कूलों और संस्थानों की स्थापना की।
आगे जाकर बीसवीं सदी में रवीन्द्रनाथ टैगोर, गांधी, जे.कृष्णमूर्ति, श्री अरबिंदो जैसे दार्शनिक और समाज सुधारक परंपरागत स्कूलों की कमियों को सामने लाते हुए शिक्षा के कई विकल्प आदर्श हमारे सामने रखते हैं। इस दिशा में महात्मा गाँधी ने स्कूली पाठ्यक्रम में व्यावहारिक प्रशिक्षण और कौशल सीखने की दिशा में हस्तशिल्प जैसी वोकेशनल या व्यावसायिक शिक्षा का विचार दिया। टैगोर के वैकल्पिक शिक्षा के विचार की बात करें तो उन्होंने साल 1901 में शांतिनिकेतन में एक छोटा स्कूल शुरू किया। यहां उन्होंने मौजूदा शिक्षा से हटकर अपने वैकल्पिक विचारों का प्रयोग किया। टैगोर का मानना था कि एक बच्चे के लिए कक्षा की चार दीवारी की बनावटी संरचना में सीखना उतना सार्थक नहीं है जितना कि प्रकृति के साथ परस्पर क्रिया, समय बिताकर सीखते हैं।
भारत में वैकल्पिक शिक्षा प्रदान करने वाली संस्थाएं
साल 1978 में स्थापित, राजस्थान का ‘दिगंतर’ शिक्षा में वैकल्पिक प्रयोग की एक बेहतरीन मिसाल है। यह एक पंजीकृत स्वयंसेवी संगठन है। इसका ध्येय सभी को; खासकर के हाशिए पर रहने वाले और कम संसाधनों के साथ जीवनयापन करने वाले लोगों तक शिक्षा को पहुंचाने पर जोर देना है। अक्सर परंपरागत स्कूल उन सामाजिक मूल्यों और प्रथाओं को बढ़ावा देने की कोशिश करते हैं, जिनका प्रभाव सीधे तौर पर अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों पर पड़ता है। संगठन इन समुदाय से आने वाले बच्चों के लिए उत्कृष्ट कार्य कर रहा है।
दिगंतर की स्कूली संरचना
दिगंतर की स्कूली संरचना के बारे में बात करें तो यहां के स्कूलों में परंपरागत स्कूलों जैसी कोई औपचारिकताएं नहीं हैं। यहां स्कूल में कक्षाएं नहीं हैं। यहां अलग-अलग स्तर के लर्निंग ग्रुप होते हैं। यहां न कोई वर्दी, न पाठ्यक्रम और न ही बच्चों की रोज़ाना की हाजिरी और गैरहाजिरी को सूचित करने वाला अटेंडेंस रजिस्टर होते हैं। बच्चे जब चाहे अपनी इच्छानुसार आ और जा सकते हैं। शिक्षक की जिम्मेदारी बच्चों को प्रेरित करने और उनके अधिगम या सीखने को और अधिक रोचक बनाना है।
दिगंतर से ही एक अलग वैकल्पिक संस्था, आंध्र प्रदेश की ‘ऋषि वैली एजुकेशन सेंटर’ है। यहां बच्चों को व्यक्तिगत कौशल और प्रतिभा को व्यक्त करने का पर्याप्त अवसर मिलता है। संस्था के उद्देश्य के अनुसार, बच्चों को ऐसा भयमुक्त माहौल मिलता है जहां वे स्वतंत्रपूर्वक अपनी जिज्ञासा, मानवता के प्रति आदर और प्रकृति के प्रति प्रेम व्यक्त कर सकें। यह ऐसे अनुभव प्रदान करता है कि बच्चे जहां भी जाए वे जीवनभर सीखते रहें। इनकी पद्धति महान शैक्षिक विचारक जे. कृष्णमूर्ति के दर्शन से प्रभावित है। दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विषयों के लेखक एवं प्रवचनकार जे.कृष्णमूर्ति ऋषि वैली के संस्थापक भी हैं। दिगंतर और ऋषि वैली के अलावा ऐसे ही शिक्षा के कई और वैकल्पिक केंद्र और संस्थाएं हैं जो औपचारिक और गैर-औपचारिक शिक्षा के भीतर प्रभावशाली दृष्टिकोण के साथ काम कर रही हैं।
स्कूलों में शिक्षकों की छवि में अंतर
परंपरागत स्कूलों में शिक्षक एक निश्चित स्थान पर बैठकर शिक्षा के संकुचित नियमों का पालन कराने पर ज़ोर देते हैं। ऐसे में वे स्वयं को एक अथॉरिटी के रूप में प्रदर्शित कर रहे होते हैं। वे पहले से ही तय मानदंडों और नियमों के अनुसार अपने विद्यार्थियों का मूल्यांकन करते हैं। ऐसा मूल्यांकन जो गुणों के बजाय संख्याओं के आधार पर किया जाता है। शिक्षक बदलाव के एजेंट के रूप में कम प्रशासन द्वारा तैयार कठोर व्यवस्था को बनाए रखने के दबाव में अधिक काम करते हैं। बच्चे कठोर परीक्षा-उन्मुख पाठ्यक्रम का पीछा करते हैं और प्रदर्शन करने के लिए एक अथक दौड़ का हिस्सा बनाए जाते हैं। ऐसी दौड़ जिसमें बच्चे एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। वैकल्पिक स्कूल बच्चों को इन प्रतिस्पर्धा और इन कठोर नियमों की व्यवस्था से मुक्त करने के मॉडल सुझाता है। शिक्षा प्रदान करने का इनका दृष्टिकोण अधिक लचीला है। बच्चों के हितों और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए शिक्षक तरह-तरह के शिक्षण और सीखने के दृष्टिकोण का उपयोग करते हैं। यहां शिक्षक ज्ञान और सूचनाओं के एकल स्रोत के रूप में नहीं होते हैं।
वैकल्पिक स्कूल में ‘वैयक्तिकता’ है मूल आधार
वैकल्पिक स्कूल काफी हद तक व्यक्ति विशेष या ‘वैयक्तिकता’ पर आधारित है। इसीलिए यह विद्यार्थियों की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति, रूचियों और ज़रूरतों पर ज़ोर देता है। अक्सर परंपरागत स्कूलों में बच्चे क्या करना चाहते हैं, इस पर बल ही नहीं होता। वे साथ ही बच्चों के आत्म-निर्देशित तरीके से सीखने को निरुत्साहित करते हैं। कहने को परंपरागत स्कूल विद्यार्थी-केंद्रित होने का दिखावा करते हैं। पर कक्षा में जो गतिविधियां कराई जाती हैं वे पाठ्यक्रम की कठोर संरचना के अनुरूप ही करायी जाती है।
शिक्षा में क्यों जरूरी है वैकल्पिक विचारधारा
तमाम शिक्षा की नीतियां और पाठ्यचार्य की रूपरेखाएं अक्सर इस बात पर बल देती आयी हैं कि शिक्षकों को अपने शिक्षण में शैक्षिक विचारकों के द्वारा दिए गए विचारों को प्रयोग में लाना चाहिए। इसके लिए कई नीति दस्तावेज जैसे ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एन.सी.एफ-2005) साफ़ तौर पर टैगोर, श्री अरबिंदो, जे.कृष्णमूर्ति, गिज्जूभाई आदि विचारकों के प्रभावशील विचारों को अमल में लाने के सुझाव का उल्लेख करता है। पर कितने ही ऐसे शिक्षक हैं जो इन विचारकों को अपने शिक्षण में जगह देते हैं? इन विचारों को वैकल्पिक इसलिए कहा जाता है क्योंकि ये व्यावहारिक हैं जो कि मुख्यधारा की शिक्षा के लिए आदर्श हैं।
परंपरागत स्कूलों की कक्षाओं में पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव कोई नया नहीं है। कई बार यहां शिक्षक इस अभिवृति से भी ग्रस्त होते हैं कि ‘हमारा काम पढ़ाने का है न कि पढ़ने का’। बच्चे कक्षाओं की उन भौतिकवादी चार दीवारी में सीखने की प्रक्रिया से गुज़रते हैं। पर उन ‘चार दीवारी’ को ‘चार दीवारी’ जैसा दिखाई न पड़ने की सोच शिक्षा के वैकल्पिक प्रयोगों से ही संभव है। दार्शनिक अरस्तू की एक बात यहां अनुकूल बैठती है कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि एक उदार समाज ऐसा होना चाहिए जो शिक्षा को सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सके। पर यह कहना उचित होगा कि शिक्षा के वैकल्पिक प्रयास निस्संदेह ही ऐसी शैक्षिक परंपरा को जीवित किए हुए हैं। यहां शिक्षा की प्रक्रिया समाज के किसी दबाव में नहीं बल्कि समाज के साथ मिलकर संपन्न की जाती है।