शाह जहाँ की बेटी जहाँआरा लिखती हैं, “एक बार मुझे मेरी दादी ने दो खत दिखाए थे। पहला खत उस वक्त के बंगाल के सूबेदार ने उन्हें लिखा था। उसने दलील दी कि उस साल बंगाल में सूखा पड़ा था। अच्छी बारिश न होने के कारण फ़सल अच्छी नहीं हुई जिस वजह से कर में कमी होगी। वहीं दूसरा खत, एक दूसरे व्यक्ति का था जो उनका खबरी था। इस खत में लिखा था कि इस साल काफ़ी अच्छी पैदावार हुई है, तो कर अच्छा मिलने की संभावना है। उनका प्रशासन में काफ़ी दब-दबा रहता था। कहाँ किसे नियुक्त करना है, या कितना कर आना है, उन्हें सब पता रहता था।” ये किस्सा ‘बादशाह बेग़म’ कहलाने वाली बादशाह जहांगीर की 20वीं और आखिरी बेग़म ‘नूर जहाँ’ का है। बिना किसी शाही घराने से ताल्लुक़ रखे, नूर जहाँ कुछ समय के लिए मुग़ल काल की सबसे ताकतवर महिला रहीं। वह पहली बेग़म थीं जिनके नाम से फ़रमान ज़ारी हुआ करते थे और यहाँ तक कि चांदी की शाही मुहरों पर बादशाह के साथ इनका नाम भी दर्ज हुआ करता था।
मुग़ल साम्राज्य की शासक बनीं नूर जहाँ
मुग़ल राजनीति और प्रशासन में बेग़म का काफ़ी प्रभाव था। जहाँगीर के शासन के आखिरी कुछ साल जब वो काफ़ी बीमार रहने लगे, शाही कार्यभार नूर जहाँ ने ही संभाली। प्रोफेसर रूबी लाल ने इतिहास में नूर जहाँ की भूमिका पर काफ़ी काम किया है। अपनी पुस्तक ‘एम्प्रेस: दी एस्टोनिशिंग राइन ऑफ नूर जहाँ‘ में रूबी लाल नूर जहाँ के व्यक्तित्व को नारीवादी दृष्टिकोण से लिखती हैं। उनका मानना है कि नूर जहाँ जहाँगीर की बेग़म होने के साथ ‘सह-शासक’ के रूप में भी उभर कर आई। अपनी शादी के कुछ वर्षों बाद से लेकर जहाँगीर की मृत्यु तक, करीब 16 सालों तक नूर जहाँ ने अपने पति के साथ प्रभावी ढंग से और प्रमुखता से शासन किया और दरबार की सामंती सियासत के चक्रव्यू और मुगल-जगत की पुरुष-केंद्रित संस्कृति को भी बखूबी पार किया।
नूर जहाँ का जन्म
1570 के दशक में फ़ारस के बादशाह के दरबार में एक समय पर ऊंचे अवदे पर तैनात ग़ियास बेग ने माली तंगी और राष्ट्र में असहिष्णुता से तंग आ कर के हिंदुस्तान का रुख किया। मुग़ल बादशाह अकबर से रहमत की उम्मीद के साथ बेग तेहरान से निकले। 1577 में कांधार में उसके कारवां पर लुटेरों ने हमला कर दिया। तभी ग़ियास की बेग़म अस्मत को प्रसव का दर्द उठा और लुटे-पिटे कारवां के बीच उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया। ग़ियास और अस्मत इस बुरी हालत में उस बच्ची को वहीं छोड़ जाने का फैसला कर चुके थे। लेकिन तभी कारवां के मुखिया मलिक मसूद ने उस बच्ची को रास्ते से उठाकर दोबारा ग़ियास को सौंप दिया और इस बच्ची का नाम मेहरूँ-निसा रखा गया। बच्ची के जन्म के बाद ग़ियास बेग पर रहमत बरसी। मलिक मसूद ने ही उन्हें बादशाह अकबर से मिलवाया और बादशाह ने उन्हें 300 मनसब दे कर दरबार में जगह दी। इसके बाद ग़ियास बेग मुग़ल दरबार के खास मुलाज़िम बन गए। आगे चल कर उन्हें काबुल का दीवान भी बनाया गया। अस्मत बेग़म का भी हरम की महिलाओं के साथ उठना-बैठना होने लगा।
खूबसूरत, बुद्धिमति और कला में निपुण नूर जहाँ
ईरानी और हिन्दुस्तानी संस्कृति को एक साथ अपने अंदर समेटे मेहरूँ-निसा बला की खूबसूरत, बुद्धिमति और कला में निपुण थी। एक शायरा, उम्दा शिकारी और उन्नत वास्तुकार होने के साथ-साथ उन्हें फैशन, संगीत और साहित्य में भी खास रुचि थी। उनका भी दरबार में आना-जाना हुआ करता था। इसी दौरान शहज़ादे सलीम को उससे प्यार हो गया। बादशाह अकबर को इस रिश्ते से ऐतराज़ था। इसलिए उन्होंने ग़ियास बेग को मेहरूँ-निसा का निकाह कराने की सलाह दी। 17 साल की उम्र में अली कुली बेग (शेर अफ़गान) से उसकी शादी करवा दी गई। शेर अफ़गान को बर्दमान का सूबेदार बनाया गया और उनके साथ मेहरूँ-निसा भी बंगाल चली गई। इस शादी से उनकी एक बेटी हुई जिसे लाडली बेग़म के नाम से जाना गया। साल 1607 में जहाँगीर को शेर अफ़गान के अत्याचारों और बगावत के बारे में खबर मिली, तो उसने कुतुबुद्दीन को भेजा जिसके साथ जंग में शेर अफ़गान मारा गया। तब मेहरूँ-निसा को आगरा बुला लिया गया और वो मुग़ल हरम में रहने लगीं।
राजनीति, कूटनीति और शासन की बेहतरीन समझ
रूबी लाल का मानना है कि ये 12 साल जो नूर जहाँ के बंगाल में बीते, इसमें ही उन्हें राजनीति, कूटनीति और शासन की प्रशिक्षण मिली। उन्होंने हाशिये पर रह कर साम्राज्य को देखा और जिस तरह की सियासत होती रही होगी, उसे जाना। इस लेख की शुरुआत में जहाँ-आरा ने नूर जहाँ के दो खतों के बारे में बताया। नूर जहाँ इस राजनीति और भ्रष्टाचार को होते हुए पहले देख चुकी होगी। इसीलिए, उन्हें अनुभव था कि उसे कैसे संभालना है। भले ही सीधी तौर पर वो राजनीति में लिप्त न हो, लेकिन शेर अफ़गान के साथ एक प्रेक्षक की तरह उन्होंने ये सब कुछ सीखा। 1607 में जब बेवा हो कर नूर जहाँ हरम में आई तो उसे सलीमा सुलताना बेग़म की सेविका के रूप में नियुक्त किया गया। बहुत कम समय में ही मेहरूँ-निसा ने हरम की औरतों के बीच अपनी एक जगह बना ली।
नूर जहाँ और जहाँगीर की शादी
1611 में जहाँगीर ने मेहरूँ-निसा से निकाह कर लिया और उसे ‘नूर महल’ नाम दिया जो आगे चल कर ‘नूर जहाँ’ हो गया। ये शादी अपनेआप में इतनी अनोखी थी कि आज भी आगरा से लाहौर तक की लोक-कथाओं में जहाँगीर और नूर जहाँ के किस्से सुनाए जाते हैं। पुराने लोग, टूर गाइड्स या इतिहास प्रेमी इनके किस्से सुनाते हैं कि कैसे नूर और जहांगीर मीना बाजार में मिले और प्यार हो गया। या किस तरह नूर जहाँ जहाँगीर के दरबार में उनके पीछे बैठा करती थीं। किसी फैसले पर अपनी सहमति जताने के लिए उनकी पीठ थप-थपाया करती थीं। लोगों के ज़हन में इस छवि का कारण था कि ये शादी किसी राजनीतिक संधि या किसी के दबाव से नहीं हुई थी। नूर जहाँ एक 34 साल की विधवा थीं और जहाँगीर के मन में उनके लिए जो प्रेम और इज्ज़त थी। यह तब ज़ाहिर होता है जब नूर जहाँ के बाद वो कोई और शादी नहीं करते हैं। मुग़ल साम्राज्य में ये पहली बार हुआ था कि किसी बादशाह के साथ कोई ‘सह-शासक’ शासन कर रहा हो। जहाँगीर ने नूर जहाँ को दरबार में जगह ही नहीं दी, बल्कि उन्हें ‘बादशाह बेग़म’ का दर्ज़ा भी दिया। इससे पहले मुग़ल दरबार में किसी महिला की भूमिका इतनी सशक्त नहीं हुई जितनी नूर जहाँ की हुई। जहाँगीर के अफ़ीम और शराब के नशे के कारण तबीयत खराब रहने लगी तो उन्होंने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली और ‘मल्लिका-ए-हिंदुस्तान’ के नाम से जानी जाने लगीं। जहाँगीर को भी उन पर पूरा भरोसा था और शासन में पूरी तरह समर्थन भी की। तूज़ुक-ई-जहाँगीरी में बादशाह सलीम लिखते हैं कि जब तक नूर जहाँ तख्त पर है, उन्हें बस आधा सेर गोश्त और एक प्याला शराब की जरूरत है।
नूर जहाँ से बादशाह बेग़म तक का सफर
शादी के कुछ ही समय बाद से बादशाह बेग़म के नाम से फ़रमान ज़ारी होने लगे। एक फ़रमान बरामद होता है जिस पर कर्मचारियों के ज़मीन की सुरक्षा की बात कही गई थी। इस फ़रमान पर दस्तखत था ‘नूर जहाँ बादशाह बेग़म’ और आगे चल कर सिक्कों पर भी इनका नाम लिखा गया। नूर जहाँ का प्रभुत्व पूरे साम्राज्य को स्पष्ट रूप से दिखने लगा। ब्रिटिश अफसर थॉमस रो तीन सालों तक मुग़ल दरबार में रहे। उन्होंने लिखा है कि नूर जहाँ दरबार में सबसे ताकतवर हैसियत रखती थीं। शासन और रियासत के कामकाज में उनका सीधा दखल था। उन्होंने दरबार में अपने रिश्तेदारों को ताकतवर पदों पर नियुक्त कराया और इतिहासकार बेनीप्रसाद के अनुसार उन लोगों की एक ‘जनता’ खड़ी की, जो उन्हें सियासी संरक्षण देते थे। इस ‘जनता’ में उनके पिता जिन्हें अब ‘इतिमद-उद-दौला’ के नाम से जाना जाता था, उनके भाई आसफ़ खाँ, आसफ़ खाँ के दामाद और बादशाह सलीम के तीसरे बेटे खुर्रम भी इस ‘जनता’ का हिस्सा थे। हालांकि इनका आगे चल कर नूर जहाँ से मतभेद भी होता है।
नूर जहाँ का दबदबा
दरबार का एक वो गुट भी था जिसे नूर जहाँ के शासन से परेशानी थी। उन्होंने बेग़म को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शाहजहाँ-नामा में भी नूर जहाँ को कलंकित किया गया और आगे चल कर अंग्रेज़ इतिहासकारों ने जो इनकी छवि को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है, उससे अलग रूबी लाल एक बुनियादी बात स्थापित करती हैं। नूर न तो शोहरत की लोभी थीं, और न ही कोई घातक स्त्री, जो अपने नशे में धुत्त पति के स्नेह का फायदा उठाकर, उन्हें काबू में रखकर सत्ता हाथ में लिए हुए थी। उनकी शानदार सफलता का कारण उनकी असाधारण सहज बुद्धिमत्ता, शिकार और युद्ध से लेकर चतुर राजनीतिक बुद्धि और कौशल के निरंतर प्रदर्शन का परिणाम था, जो अब तक केवल शाही या कुलीन घरों में जन्मे पुरुषों के लिए ही सुरक्षित था।
नूर जहाँ का साम्राज्य संभालना
जहाँगीर की तबियत खराब होने लगी और सल्तनत में तख्त की लड़ाई शुरू हो गई। नूर जहाँ तख्त पर अपना रुत्बा बनाए रखने के लिए अपनी बेटी लाडली बेग़म की शादी, मुग़ल सल्तनत के अगले बादशाह से करवाना चाहती थीं। 1617 में वो जहाँगीर के सबसे बड़े बेटे, खुसरो के पास ये प्रस्ताव ले कर गईं। खुसरो तब जेल में थे। बादशाह के खिलाफ़ बगावत की वजह से उन्हें कैद कर लिया गया था। खुसरो से लाडली बेग़म का ब्याह नहीं हो पाया तो नूर जहाँ ने जहाँगीर के दूसरे बेटे शह्रयार से उनका निकाह तय कर दिया। यहाँ से असली सियासत शुरू हुई।
नूर जहाँ अपने दामाद शह्रयार को तख्त पर बैठाना चाहती थीं लेकिन तीसरा शहज़ादा खुर्रम भी मुग़लिया तख्त के ही फिराख में था। उसने दक्कन में अपने पिता के खिलाफ खेमेबाज़ी शुरू कर दी थी। 1620 में कांधार में हमला हुआ, तो नूर जहाँ ने जहाँगीर से कह कर शाहजहाँ को कंधार भेजने की तयारी कर ली। शाहजहाँ को डर था कि अगर वो आगरा से बाहर चला गया तो मुग़ल तख्त उसके भाईयों में से किसी को मिल जाएगा। इसलिए वो कंधार नहीं गया। इसी बीच मौका पा कर नूर जहाँ ने शह्रयार को कई जागीरें दे दीं जो जिन पर दूसरे शहजादों का हक था। 1622 में खुर्रम ने अपने पिता के खिलाफ़ विद्रोह कर दिया। हालांकि इसमें उसे मुँह की खानी पड़ी। खुर्रम ने जहांगीर से संधि करते हुए अपने दोनों बेटे दारा शिकोह और औरंगजेब को आगरा भेजवा दिया। नूर जहाँ को अब विश्वास हो गया था कि बादशाह शह्रयार ही बनेगा।
नूर जहाँ की महाबत खाँ के साथ जंग
साल 1626 आते-आते जहाँगीर की तबियत बहुत खराब रहने लगी थी। दरबार में फूट और सियासत होने लगी थी जिससे बेग़म हर दरबारी के साथ सख्ती से पेश आने लगीं। सभी दरबारियों के साथ महाबत खाँ, जो मुग़ल दरबार के एक बहुत योग्य दरबारी, मनसबदार और सैनिक थे। उन्हें भी अपने काम-काज का हिसाब-किताब देने के लिए बादशाह के दरबार में बुला लिया गया। इस बात से उन्हें बहुत अपमानित महसूस हुआ। इसी दौरान नूर जहाँ ने अपने भाई आसफ़ खाँ को बतौर वज़ीर नियुक्त किया। महाबत खाँ को ये बात इतनी बुरी लगी कि उन्होंने बगावत की ठान ली। जब बादशाह इलाज के लिए काबुल की ओर रुख कर रहे थे, तब झेलम के पास उन्होंने काफिले पर हमला कर के जहाँगीर को कैद कर लिया। बादशाह को कैद से छुड़वाने के लिए बेग़म खुद हाथी पर सवार हो कर जंग के मैदान में उतरीं। लेकिन महाबत खाँ की सेना के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा और उन्हें भी जहाँगीर के साथ कैद कर लिया गया।
कैद में रहते हुए भी खुद का बचाव
नूर जहाँ ने कैद में रहते हुए ही महाबत खाँ की आधी से अधिक सेना को अपने खेमे में कर लिया। सियासी दाव-पेंच लगा कर बेग़म ने छः महीने में महाबत खाँ को अंदर से तोड़ दिया। इसके बाद महाबत खाँ को भाग कर शाहजहाँ के साथ मिलना पड़ा। इस कार्रवाई को कूटनीति और सियासत में नूर जहाँ की उत्कृष्टता के रूप में पहचाना जाता है। इस घटना के कुछ समय बाद ही, 1627 में जहाँगीर की मौत हो गई। शह्रयार इस समय लाहौर में तैनात थे और वहीं उसने अपनेआप को बादशाह घोषित करवा दिया। शाहजहाँ जो इस समय दक्कन में था, अपने गद्दी पर हक जमाने के लिए शह्रयार के ऊपर हमला कर दिया। शुरुआत में बाज़ी शह्रयार के हाथ आती दिख रही थी लेकिन नूर जहाँ की एक पुरानी गलती के वजह से पासा पलट गया। नूर जहाँ ने शाहजहाँ की शादी अपने भाई आसफ़ खाँ की बेटी अर्जुमंद बानो बेग़म में कारवाई थी, जिसका खामियाज़ा उन्हें अब भुगतना पड़ा। अपनी बेटी के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आसफ़ खाँ ने अपने दामाद शाहजहाँ का साथ दिया और बहन नूर जहाँ को कैद करवा दिया। आसफ़ खाँ की मदद से खुर्रम बादशाह बन गया और उसने शह्रयार को भी मरवा दिया।
परिधान और फैशन के क्षेत्र में योगदान
इसके बाद नूर जहाँ राजनीति और रियासत छोड़ कर लाडली बेग़म के साथ लाहौर चली गईं और आखिरी समय तक वहीं रहीं। उनकी देख-रेख में ही वहाँ जहाँगीर और साथ में उनका भी मक़बरा बना। आगरा में उन्होंने अपने वालिद इतिमाद-उद-दौला का मक़बरा बनवाया था, जिसे ‘छोटा ताज महल’ भी कहा जाता है। अपने शासन के दौरान उन्होंने कई बाग-बगीचे बनवाए। नूर जहाँ का कपड़ों और पहनावे में भी बहुत योगदान रहा। उस समय के शाही घरों में नूर जहाँ का पहनावा काफ़ी समय तक प्रचलित रहा। आज के समय में हम जिसे शरारा या पलाज़ो कहते हैं, उसकी शुरुआत भी नूर जहाँ ने ही की थी। उन्हें इत्र बनाने का बहुत शौक था। जहाँगीर उनके बनाए हुए इत्र का ही प्रयोग करते थे। नूर एक बेहतरीन शायरा भी थी और शिकारी भी। जहाँगीर ने खुद इनके शिकार कौशल की तारीफ में लिखा है कि एक बार इन्होंने चार बाघों का शिकार किया था। उस जमाने में किसी आम घर से आई लड़की का इतना सब कुछ कर पाना मुश्किल था। नूर जहाँ ने अपने 16 सालों के शासन काल में हर शासक जैसे कई अच्छे-बुरे, सही-गलत फैसले लिए होंगे। लेकिन अपनी प्रासंगिकता को उन्होंने बनाए रखा। कभी भी अपना प्रभाव कम नहीं होने दिया। जहाँगीर ने भी उन्हें भरपूर समर्थन दिया। इसका परिणाम है कि आज भी आम जन-मानस में उनके किस्से प्रचलित हैं। साल 1645 में 68 साल की उम्र में नूर जहाँ की मृत्यु हो गई और उन्हें लाहौर में जहाँगीर की कब्र के करीब दफ़नाया गया।