इतिहास रुक्मिणी देवी अरुंडेल: जिन्होंने नृत्य के लिए राष्ट्रपति बनने से किया था इनकार

रुक्मिणी देवी अरुंडेल: जिन्होंने नृत्य के लिए राष्ट्रपति बनने से किया था इनकार

जनवरी 1936 में, रुक्मिणी और उनके पति ने अडयार (चेन्नई के पास) में कलाक्षेत्र नामक नृत्य और संगीत की एक अकादमी की स्थापना की। रुक्मिणी देवी ने नृत्य से जुड़ी कलंकित और समाज में मौजूद रूढ़ीवादी सोच को मिटाने का संकल्प लिया।

साल 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित, रुक्मिणी देवी अरुंडेल को नृत्य, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में उनके दूरदर्शी कार्य के लिए जाना जाता है। अपने लंबे और शानदार जीवन के दौरान उन्होंने शास्त्रीय नृत्यों विशेष रूप से भरतनाट्यम के कई पहलुओं को पुनर्जीवित किया और पूरी दुनिया के सामने उनके नये वैभव का प्रदर्शन किया। हालांकि, कम ही लोग जानते हैं कि अगर उन्होंने साल 1977 में प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई द्वारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो वह भारत की पहली महिला राष्ट्रपति हो सकती थीं।

प्रारंभिक जीवन 

29 फरवरी, साल 1904 में मदुरै में जन्मी रुक्मिणी नीलकंठ शास्त्री और शेषम्मल की आठ संतानों में से एक थीं। उनके पिता, एक संस्कृत विद्वान और इतिहासकार, एक उत्साही अनुयायी थे और मद्रास की थियोसोफिकल सोसायटी के करीबी सहयोगी थे। चूंकि उनकी मां की संगीत में बेहद दिलचस्पी थी तो इसके कारण रुक्मिणी देवी भी अपने घर की परिधि में नृत्य, संगीत और संस्कृति से अवगत रही।

रुक्मिणी न केवल अपने पिता से बल्कि भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन की समर्थक, महिला अधिकार कार्यकर्ता एनी बेसेंट से भी बहुत प्रभावित थीं। वह महज़ 16 साल की ही थीं जब वह, शिक्षक, थियोसोफिस्ट और एनी बेसेंट के भरोसेमंद लेफ्टिनेंट, जॉर्ज अरुंडेल से मिलीं और उनसे प्यार हो गया। साल 1920 में उन्होंने अपने से 24 साल बड़े जॉर्ज से शादी के बंधन में बंधकर अपने परिवार और समाज को चौंका दिया। उस दौरान उनके समाज में इस शादी का कड़ा विरोध भी किया गया था।

यात्रा, अनुभव और आजीविका 

अपनी शादी के बाद, वह अपने पति और बेसेंट के साथ थियोसोफिकल मिशन पर विभिन्न देशों की यात्रा पर जाती रही। इसी दौरान रुक्मिणी शास्त्रीय नृत्य से रूबरू हुई। साल 1928 में, वह विश्व प्रसिद्ध रूसी नृत्यांगना अन्ना पावलोवा से मिलीं, जो एक परफॉर्मेंस के सिलसिले में बॉम्बे आई हुई थीं। पावलोवा के अनुरोध पर रुक्मिणी ने बैले सीखना शुरू किया। पावलोवा ने उन्हें शास्त्रीय भारतीय नृत्य रूपों में प्रेरणा लेकर अपने भीतर की नर्तकी को प्रोत्साहित करने की सलाह दी। 

तस्वीर साभार: Kalakshetra
तस्वीर साभार: Kalakshetra

रुक्मिणी ने इस परामर्श को निभाते हुए, भरतनाट्यम सीखने, अभ्यास करने और बढ़ावा देने के लिए एक अभियान शुरू किया। देर से सीखने की शुरुआत करने के बावजूद वह पूरी प्रक्रिया को अपनी भक्ति और समर्पण के माध्यम से नृत्य शैली में निपुणता हासिल करने में सफल रही। वह एक लुप्त होते हुए भारतीय नृत्य रूप को पुनर्जीवित करने के साथ इससे जुड़ी नकारात्मक सामाजिक रूढ़ियों से भी भिड़ने को तैयार थीं।

भरतनाट्यम उस्ताद मीनाक्षी सुंदरम से अपना औपचारिक प्रशिक्षण को पूरा करने के बाद, रुक्मिणी ने साल 1935 में थियोसोफिकल सोसाइटी के मंच पर 30 की उम्र में अपना पहला सार्वजनिक प्रदर्शन दिया, जिसने भारतीय महिलाओं के लिए नृत्य के अभ्यास और प्रदर्शन के लिए एक मिसाल कायम की।

जनवरी 1936 में, रुक्मिणी और उनके पति ने अडयार (चेन्नई के पास) में कलाक्षेत्र नामक नृत्य और संगीत की एक अकादमी की स्थापना की। रुक्मिणी देवी ने नृत्य से जुड़ी कलंकित और समाज में मौजूद रूढ़ीवादी सोच को मिटाने का संकल्प लिया। अभिनय में तेजी से आगे बढ़ने के साथ उन्होंने एक अनूठा पाठ्यक्रम विकसित किया। उन्होंने भारतीय साड़ियों के लिए एक बुनाई और रंगाई केंद्र भी स्थापित किया, जहां पारंपरिक पैटर्न तैयार किए, बुने और पहने जाते थे।

पुरस्कार और सम्मान

बाद के दशकों में, रुक्मिणी भारत की सबसे प्रसिद्ध नर्तकियों में से एक बन गईं। साल 1956 में, उन्हें पद्म भूषण और 1967 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह राज्य सभा के लिए मनोनीत होनेवाली पहली महिला में से एक बनीं। राज्यसभा सांसद बनकर इन्होंने 1952 और 1956 में पशु क्रूरता निवारण के लिए विधेयक का प्रस्ताव रखा। ये विधेयक 1960 में पास हो गया। उन्होंने 1962 में भारतीय पशु कल्याण बोर्ड की स्थापना की अगुवाई की।

तस्वीर साभार: dontcallitbollywood
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साल 1977 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रुक्मिणी देवी से पूछा कि क्या वह भारत की राष्ट्रपति बनना चाहेंगी लेकिन रुक्मिणी ने कलाक्षेत्र में अपने कार्य को जारी रखने का चयन करते हुए, इस प्रस्ताव को शालीनता से अस्वीकार कर दिया।

आख़िरी अध्याय 

भरतनाट्यम की नायिका ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष उस संस्था में बिताए, जिसे उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया था। अपने ज्ञान को सैकड़ों छात्रों को प्रदान किया और भावी पीढ़ी के लिए कला को आगे बढ़ाया। पारंपरिक भारतीय कला रूपों के पुनरुद्धार के लिए क्या कुछ करने के बाद, रुक्मिणी देवी अरुंडेल का 24 फरवरी, 1986 को 82 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इतनी प्रगतिशील और प्रतिभाशाली महिला को भले ही भारत की राष्ट्रपति बनने की स्वीकृति से इनकार था पर उन्होंने जो कुछ बनना और रचना चुना वह सराहनीय है और उसके लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा। 


स्रोत:
1- Kalakshetra

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