समाजखेल ग्रामीण परिवेश में खेल के मैदान में हावी लैंगिक असमानता

ग्रामीण परिवेश में खेल के मैदान में हावी लैंगिक असमानता

ग्रामीण परिवेश में ल़डकियों के भीतर न सिर्फ खेल से जुड़ी उदासीनता थोपी जाता है बल्कि उनके लिए खेलों का बंटवारा भी कर दिया गया है। लड़कियां घर के भीतर बैठकर क्रिकेट, कबड्डी, फुटबाल या खो-खो तक नहीं खेल सकती हैं।

प्रत्येक बच्चे का अधिकार है कि उसे उसकी क्षमता के विकास का पूरा मौका मिले। लेकिन लैंगिक असमानता इसमें एक बाधा बनती है। भारत में लड़कियों और लड़कों के बीच न केवल उनके घरों और समुदायों में बल्कि हर क्षेत्र में लैंगिक असमानता दिखाई देती है। ठीक इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में खेलों में लड़कियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। नए दौर में पगडंडियों पर साइकिल भगाती लड़कियां स्कूल जाती, राशन लाती, कभी गेहूं की बोरियां लाती दिखाई पड़ जाती हैं।

अक्सर घर में मान लिया जाता है कि इससे इनकी शारीरिक कसरत हो गई। नहीं तो सीढ़ियों पर दो-चार बार ऊपर-नीचे, दौड़-धूप कर ली या घर के काम कर लिए या खेतों में थोड़ा घास तोड़ लिया तो ग्रामीण समाज में एक लड़की के लिएअच्छी सेहत के लिए इससे अधिक की ज़रूरत नहीं समझी जाती है। लड़कियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी चौखट के भीतर रह कर ही अपनी इच्छाओं को पूरा करें। ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क पर खेलते, कूदते, भागते, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए दौड़ का अभ्यास करते हुए लड़के दिखाई पड़ते हैं। अभी भी लड़कियां दौड़ती और खेलती नहीं दिखती हैं। 

17 वर्षीय खुशी अभी बारहवीं में पढ़ती हैं। वह कहती है, “बचपन से उसे पढ़ाई पर ध्यान लगाने को कहा गया। अब जब नए स्कूल में लड़कों को खेल और पढ़ाई दोनों में बढ़िया करते हुए देखती हूं, तो मन में एक टीस होती है। मेरा भी मन फुटबॉल को उछाल-उछाल कर खेलने को होता है, दौड़ लगाने का होता है।”

ग्रामीण परिदृश्य से गायब हैं लड़कियां

शाम को किसी बगीचे में या विद्यालय परिसर में क्रिकेट खेलते लड़कों का शोर सुनाई देना बहुत आम बात है। लेकिन इस वक्त लड़कियों की दिनचर्या क्या होती है? जब शाम को बाहर लड़के गेंद और बल्ला लेकर दौड़ रहे होते हैं, हवा खाने गली-मोहल्ले में होते हैं, तब लड़कियां रात के भोजन की तैयारियों में लग जाती हैं या पढ़ने बैठ जाती हैं। लड़कियों ने मजबूरी में यह मान लिया है कि खेल उनके लिए नहीं है।

खेलों का लैंगिक विभाजन

किसी भी प्रकार के लैंगिक विभाजन से अनभिज्ञ,बच्चे जब छोटे होते हैं, तो वह एक साथ खेलते हैं और कल्पनाएं करके नए-नए खेल भी गढ़ते हैं। लेकिन समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव बच्चों को और उनके खेलों को ‘लड़कियों के खेल’ और ‘लड़कों के खेल’ में बांट देता है। लड़कियों के लिए घर के अंदर खेले जाने वाले खेल जैसे लूडो, घर-घरौंदा, आइस-बाइस या अन्य इसी तरह के खेल सही माने जाते हैं। वहीं लड़कों के लिए कबड्डी, क्रिकेट जैसे कई भाग-दौड़ वाले खेल हैं। गांव के कुश्ती के अखाड़े भी सिर्फ पुरूषों के लिए हैं। नहर-तालाब में कई लड़के मछलियां पकड़ते या तैराकी करते दिख जाएंगे। खेलों के इस तरह के विभाजन में ग्रामीण परिवेश में सख्ती से मौजूद पुरुषवादी व्यवस्था और लैंगिक विभाजन का प्रतिबिंब दिखलाई पड़ता है। जब किशोरी लड़कियों को घर से बाहर निकलने, सार्वजनिक स्थानों पर दौड़ लगाने से रोका जाता है, तो इससे न सिर्फ यह सुनिश्चित होता है कि उनका स्थान घर की चार दीवारियों में बल्कि यह उन्हें खेल की कला को अभिव्यक्त करने से रोक देता है।

खुशी कहती है कि कुछ दिनों पहले अपनी प्रिय गायिका की तरह स्वस्थ दिखने के लिए उन्होंने घर पर ही व्यायाम करना शुरू किया। पर घर में पर्याप्त जगह न होने के कारण, नहर की सड़क पर दौड़ने का सोचा जिसपर उनकी माँ ने समझाया कि इतनी बड़ी लड़कियों का सड़क पर उछल–कूद करना बहुत ही भद्दा लगता है और घर की इज्जत खराब होती है।

खुलकर खेलने को तरसती ग्रामीण किशोरियां

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के साई-सराय गाँव की रहने वाली 17 वर्षीय खुशी अभी बारहवीं में पढ़ती हैं। वह कहती है, “बचपन से उसे पढ़ाई पर ध्यान लगाने को कहा गया। अब जब नए स्कूल में लड़कों को खेल और पढ़ाई दोनों में बढ़िया करते हुए देखती हूं, तो मन में एक टीस होती है। मेरा भी मन फुटबॉल को उछाल-उछाल कर खेलने को होता है, दौड़ लगाने का होता है।” वह आगे कहती है कि कुछ दिनों पहले अपनी प्रिय गायिका की तरह स्वस्थ दिखने के लिए उन्होंने घर पर ही व्यायाम करना शुरू किया। पर घर में पर्याप्त जगह न होने के कारण, नहर की सड़क पर दौड़ने का सोचा जिसपर उनकी माँ ने समझाया कि इतनी बड़ी लड़कियों का सड़क पर उछल–कूद करना बहुत ही भद्दा लगता है और घर की इज्जत खराब होती है।

तस्वीर में खुशी

इस पर खुशी कहती है, “मन का सारा उत्साह ही खत्म हो गया। अखबारों में और टेलीविजन पर महिला खिलाड़ियों को देखकर उनके जैसा कुछ करने का मन करता है। पर आज तक कभी ढंग से दौड़ भी नहीं लगाई, कभी जान ही नहीं पाई मैं अच्छा खेलती हूं या बुरा। बस खेल और खिलाड़ियों से जुड़े तथ्यों को सामान्य ज्ञान की पुस्तकों से पढ़कर कंठस्त करती रही। खिलाड़ियों के अंदर का आत्मविश्वास, अपने खेल के प्रति जुनून, लगन, संयम और सम्मान सब कुछ बहुत अच्छा लगता है। मुझे भी सारी चीज़े चाहिए ऐसा मन करता है।”

बड़ी होने पर लड़कियों के खेलने पर पाबंदी

प्रिया पिछले महीने 13 वर्ष की हुई। बचपन से ही खेतीबाड़ी में मदद करते हुए उनके कंधे मजबूत हो गए हैं। सातवीं में पढ़ने वाली प्रिया जब घर से बाहर बिना रोक-टोक के खेलती थी, तब की बातों को याद करते हुए कहती है कि वह अपने कद से बड़ी साइकिल चलाती थी, लड़कों के साथ रेस लगाती थी। खुशी कहती है, “तालाब के पानी में साथी लड़कों में सबसे दूर- कंकड़ फेंकने के बाद मुझे बहुत खुशी मिलती थी। जब मैं थोड़ी छोटी थी तब लड़कों के जैसे शर्ट-पैंट पहन कर रहती थी। उन्हीं के जैसे दिखती थी और क्रिकेट, दौड़, साइकिल रेस, गेंदड़ी जैसे खेलों को खेलने में खूब मन लगता था। साथियों से एक-दो कुश्ती के दांव भी सीखे थे। सब मुझे पहलवान कहकर बुलाते थे।” 

तस्वीर में प्रिया

घर के बाहर खेलने के कारण अक्सर प्रिया को उनकी मां से डांट पड़ती थी और यह हिदायत मिलती थी कि वह घर के काम में हाथ बटाए। वह आगे बताती है, “गांव के प्राइमरी स्कूल में खेल से जुड़ी बहुत कम सुविधाएं थी। वहां एक फुटबाल के अलावा खेलने के लिए कुछ और समान नहीं था। ज्यादा बच्चे होने के कारण सारे बच्चे फुटबाल नहीं खेल सकते थे। इसलिए, मैं ज्यादातर स्कूल के बाद गांव में बच्चों के साथ खेलती थी।”

समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव बच्चों को और उनके खेलों को ‘लड़कियों के खेल’ और ‘लड़कों के खेल’ में बांट देता है। लड़कियों के लिए घर के अंदर खेले जाने वाले खेल जैसे लूडो, घर-घरौंदा, आइस-बाइस या अन्य इसी तरह के खेल सही माने जाते हैं।

पीरियड्स के बाद खेल से टूटा संबंध

पिछले साल से पीरियड्स शुरू होने के बाद से अब उसके कपड़े पहनने के ढंग में बदलाव आ गया है। उन्हें शर्ट पैंट पहनना ज्यादा आसान लगता था। लेकिन माँ के समझने पर और बड़ी बहनों से सीखकर अब वह खुद की पसंद को पीछे रखकर सूट-सलवार पहनना शुरू कर दिया है। छोटे बाल रखने की जगह अब लंबे बाल कर लिए हैं। पीरियड्स के बाद से प्रिया के पहनावे में बदलाव के साथ-साथ उसकी खेल-कूद की गतिविधियां एकदम बंद करा दी गई है। गाँव-समाज में जैसे-जैसे लड़कियों की उम्र बढ़ती है, उन पर और अधिक पाबंदी लगा दी जाती है। किशोरावस्था में शारीरिक बदलाव के बाद बॉडी शेमिंग की जाती है। इस तरह के व्यवहार के कारण लड़कियों के मन में खुद के शरीर को लेकर एक विषेश प्रकार के शर्म की भावना आ जाती है, जिसको वे कभी जाहिर तक नहीं कर पाती हैं। इसी तरह बाहर आने-जाने में एक अजीब तरह का भय प्रिया के मन को घेरे रहता है।

प्रिया कहती है कि बड़ी बहन प्रियंका की दसवीं कक्षा में दाखिले के बाद शादी करा दी गई। अगली बारी मेरी है। इसलिए अब मां घर के काम सीखने पर जोर देती हैं और गलतियां करने पर फटकारती हैं। मेरे यह पूछने कि जब खेलने का मन होता है, तब वह क्या करती हैं, प्रिया कहती है, अब खेलने में उतना मन नहीं लगता। दोस्तों का बर्ताव भी बदल गया है। सब लोग अब गांव से बाहर वाले डूहिया पर बैट-बाल खेलते हैं। लेकिन जब कभी भैंस को बाहर घास चराने के लिए ले जाती हूं, तो अच्छा लगता है। भैंसे परेशान करती हैं। लेकिन उनको पकड़ने के बहाने दूर-दूर तक घूम के आ जाती हूं।” 

लड़कियों को कम खेलने को मिलता है

10 वर्ष की सोनम अभी चौथी कक्षा में पढ़ती हैं। सोनम जमीन पर डब्बे बना कर उसपर एक टांग मोड़कर तीती खेलती हैं। गिल्ली डंडा, कंचों से निशाना लगाना, सरपटसर्रो आदि खेलना सोनम को बहुत पसंद हैं। सोनम गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और बताती है कि कभी-कभी स्कूल में छुट्टी के समय शिक्षक बच्चों में दौड़ करवाते हैं और हमें बॉल खेलने को मिलती है। वरना तो ज्यादातर समय हम लकड़ी के डंडों से खेलते या ऐसे खेल खेलते हैं जिसमें खिलौने की जरूरत न हो।” 

तस्वीर में सोनम

स्कूल में ज्यादा प्रतियोगिताएं नहीं होती जिस कारण सोनम और उनके साथी बच्चों में खेल से जुड़ी अधिक जानकारी नहीं है। स्कूली शिक्षा में खेल जगत में पहचान बनाने को लेकर अधिक जानकारी नहीं मिल पाती, जिससे लड़कियां खेल से जुड़े सपने भी नहीं देखती। यह पूछने पर कि बड़ी होने पर आप क्या बनना चाहती हैं सोनम ने शर्माते हुए कहा कि वह पुलिस बनना चाहती हैं।

पीरियड्स के बाद से प्रिया के पहनावे में बदलाव के साथ-साथ उसकी खेल-कूद की गतिविधियां एकदम बंद करा दी गई है। गांव-समाज में जैसे-जैसे लड़कियों की उम्र बढ़ती है, उन पर और अधिक पाबंदी लगा दी जाती है। किशोरावस्था में शारीरिक बदलाव के बाद बॉडी शेमिंग की जाती है। 

ग्रामीण परिवेश में लड़कियों के भीतर न सिर्फ खेल से जुड़ी उदासीनता थोपी जाता है बल्कि उनके लिए खेलों का बंटवारा भी कर दिया गया है। लड़कियां घर के भीतर बैठकर क्रिकेट, कबड्डी, फुटबाल या खो-खो  तक नहीं खेल सकती हैं। ऐसे परिवेश में जहां लड़कियों का बाहर निकलना ही सबसे पहली चुनौती है, वहां बाहर निकलकर खेलने में कई तरह के सामाजिक प्रतिबंध हैं। उनके अंदर लोक लाज के नाम पर भय और शर्म भरी जाती है, जिससे उनके अंदर की खेल से जुड़ी जिज्ञासाएं खत्म हो जाती हैं।

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