सरस्वती गोरा एक स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वह नास्तिक केंद्र (एथीस्ट सेंटर) की सह-संस्थापक थीं। उन्होंने आजादी से पहले और बाद में लगातार अस्पृश्यता और जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ अभियान चलाया। उन्होंने आंध्र प्रदेश के अलग-अलग जिलों के तीन सौ से अधिक गाँवों में ग्रामीण विकास की दिशा में काम किया हैं। वे अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह के पक्ष में थी और लोगों को हमेशा इसके लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने जीवन में लड़कियों और बच्चों के अधिकारों के लिए लगातार काम किया।
सरस्वती गोरा का शुरुआती जीवन
सरस्वती गोरा का जन्म 28 सितंबर 1912 में हुआ था। उन दिनों बाल विवाह प्रथा चलन में थी और महज दस वर्ष की उम्र में साल 1922 उनका विवाह हो गया था। शादी के बाद उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर सामाजिक कार्यों में योगदान देना शुरू किया। वह अंधविश्वास के ख़िलाफ़ समाज में जागरूकता लाने का काम किया। जब वह गर्भवती थी तब भी बाहर जाकर का काम करती थी। ख़ासतौर पर जब सूर्य ग्रहण होता था तो उन्होंने बाहर निकलकर लोगों को जागरूक किया। हिंदू रूढ़िवाद के अनुसार गर्भवती महिला को सूर्य ग्रहण में किसी तरह का काम नहीं करना चाहिए।
साल 1940 में उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर मुदुनुरु गांव में नास्तिक केंद्र की स्थापना की, जो दुनिया में अपनी तरह का पहला केंद्र था। यह केंद्र नास्तिकवाद को बढ़ावा देते हुए जीवन में विज्ञान और शिक्षा के मूल्यों के महत्व को प्रमुखता देता था। उन्होंने युवाओं को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में कई कार्यक्रम चलाए। वह बहुत सक्रिय तौर पर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हुए भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल थी। आजादी की लड़ाई में वह कई बार जेल भी गई थीं।
देवदासी प्रथा के ख़िलाफ़ किए काम
साल 1930 में सरस्वती गोरा ने देवदासी विवाह और पुनर्विवाह के मुद्दे को उठाया। साथ ही 1940 के बाद से उन्होंने अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक शादियों को बढ़ावा देने और मदद करने का काम किया। उस समय की सामाजिक व्यवस्था में इन विषय पर बोलना अपने आप में एक बहुत साहसिक कदम था। उन्होंने समाज में उदाहरण देने के लिए अपने ही परिवार में ऐसा करने की इच्छा रखने वाले जोड़ों की ऐसी शादियां आयोजित करनी शुरू की। इतना ही नहीं उन्होंने शादी में समानता की पैरवी करते हुए विवाह अधिनियम के तहत शादी पंजीकरण की भी वकालत की।
जमींदारी उन्मूलन के लिए संघर्ष
साल 1954 में कारिवेना में 60 महिलाओं के एक समूह का नेतृत्व करते हुए जमींदारी उन्मूलन के लिए संघर्ष किया। इस वजह से उन्हें पांच महीने के लिए जेल में भी रहना पड़ा था। लेकिन जब यह व्यवस्था खत्म हुई तो किसानों को वे जमीनें दे दी गईं। आजादी के बाद उन्होंने गरीब और दलितों के अधिकारों के लिए अनेक संघर्ष और आंदोलन किए। उनके द्वारा स्थापित नास्तिक केंद्र सर्वोदय और भूदान आंदोलन में पूरी तरह शामिल था। उन्होंने विनोभा भावे की भूदान पदयात्रा में आंध्र प्रदेश में भी हिस्सा लिया था।
महिलाओं के रहने के लिए गृहनिवास पर काम
सरस्वती गोरा हमेशा महिलाओं और लड़कियों के बनाए पितृसत्ता के नियमों को चुनौती देती रही। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए कई कार्यक्रमों का संचालन किया। अगस्त 1985 में उन्होंने ‘गोरा अभय निवास’ के नाम से महिलाओं के रहने के लिए एक गृहनिवास की स्थापना की। अगस्त 1985 से मार्च 1999 तक 1053 महिलाओं को मदद दी गई। उनके नेतृत्व में 350 महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह का संचालन हुआ। इतना ही नही उन्होंने महिला कैदियों के पुर्नवास के लिए भी कार्यक्रम चलाए।
नास्तिक केंद्र के अंतर्गत सामाजिक काम
उन्होंने नास्तिक केंद्र में आर्थिक समता मंडल केंद्र चलाया। इसके तहत उन्होंने कृष्णम गुंटूर, पश्चिम और पूर्व गोदावरी और नालगोंडा जिले के 150 गांवों में ग्रामीण विकास के लिए स्कीम चलाई। आर्थिक समता मंडल के तहत ही बच्चों के कल्याण के लिए कई कार्यक्रमों का संचालन किया गया। कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों के सहयोग से वित्तीय मदद के साथ उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों की शिक्षा के लिए काम किया। उनके द्वारा संचालित संस्था में स्वास्थ्य कल्याण और सुविधाओं के साथ-साथ परिवार नियोजन को लेकर गरीब और हाशिये के समुदाय के लोगों में जानकारी दी गई।
वासव्य महिला मंडली, आर्थिक समता मंडल और संस्कार तीन प्रमुख संस्थान थे जो नास्किक केंद्र के तहत चलाएं। इसके तहत गांव के हाशिये के समुदाय, महिलाओं, बच्चों, विकलांग और अन्य लोगों के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए काम किया गया। नास्तिक केंद्र में फैमिली कोर्ट भी स्थापित किए गए। महिलाओं के लिए सामाजिक दिशा-निर्देश स्थापित किए गए और उन्हें पंचायती राज के लिए प्रशिक्षिण दिया गया और सशक्त किया गया। सरस्वती गोरा अपने जीवन में लोगों के अधिकारों के लिए हमेशा आवाज़ उठाती रही। उन्होंने समाज को अपना परिवार माना और उसके कल्याण में लगी रही। साल 2012 में उनकी आत्मकथा तेलगु में ‘माई लाइफ विद गौरा’ प्रकाशित हुई।
समाज में समानता स्थापित करने की कोशिश
सरस्वती गोरा का जीवन सामाजिक न्याय और समानता को हासिल करने के संघर्षों की एक गाथा हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज में समानता स्थापित करने से जुड़े कार्यों में लगा रखा। सामाजिक कार्यो के लिए उन्हें कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। हैदराबाद के ट्रस्टों द्वारा उन्हें उत्कृष्ट सामाजिक कार्यो के लिए चल्लागल्ला पुरस्कार और मल्लदी सुब्बमा पुरस्कार नवाजा गया। जी.डी. बिरला अवार्ड से सम्मानित भी किया गया जा चुका है। साल 1999 में जानकी देवी बजाज पुरस्कार के अलावा 2000 में कर्नाटक सरकार द्वारा प्रदत्त बसवा पुरस्कार के लिए चुना गया था। जीवनभर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाली सरस्वती गोरा ने 19 अगस्त 2006 को फेफड़ों में संक्रमण के चलते इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।